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न्यूज क्लिपिंग्स् | गरीब बदनसीब के आंसुओं से परेशां - गोपालकृष्ण गांधी

गरीब बदनसीब के आंसुओं से परेशां - गोपालकृष्ण गांधी

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published Published on Jan 21, 2019   modified Modified on Jan 21, 2019
कोई तीस साल हुए। शायद उससे भी कुछ ज्यादा। दिल्ली से मैं रेलगाड़ी में जा रहा था। कहां जा रहा था, यह याद नहीं। पर सफर साफ याद है मुझे, जैसे कि कल नहीं आज हुआ हो। क्यूं? क्या हुआ था उस सफर में जो कि भुलाया ना जाए? कोई हादसा? कोई तिलस्मी अनुभव? किसी ऋषि-मुनि का, संयोग से, जीवन बदल देने वाला दर्शन?

नहीं, ऐसा कुछ नहीं! एक गाना। सिर्फ, एक गाना। गाना...?

भीड़ थी उस नॉन एसी दूसरे दर्जे के रेल डिब्बे में। कंधे कंधों को रगड़ रहे थे। घुटने घुटनों को। बेहद गर्मी थी, घुटन थी। गर्म सांसों से डिब्बा जैसे तप रहा था। बाहर धूप, अंदर ताप। एक हिले, तो दूसरा अकड़े। पर मजबूरी थी। सब हमसफर थे, अपनी-अपनी मुसाफिरी में, अपने किए-कर्म के बोझ को अपने बक्सों-बिस्तरों में घुसेटे, लपेटे हुए। अपनी-अपनी उलझनों को अपने दिलों की गिरहों में दबोचे हुए। बर्थों के बीच जगह ना बची थी, गलियारे नाम की कोई जगह ना रही थी। सब खामोश थे,अपनी-अपनी फिक्रों में सिमटे हुए।

अचानक...यकीन नहीं होता कि कैसे, लेकिन फिर भी इस तंगी में अचानक एक लड़की के गाने की आवाज आई। पहले सुर सुना दिया गया, शब्द नहीं। जैसे कि 'शास्त्रीय संगीत में आलाप! सुर मधुर था, दर्द-भरा। फिर उस सुर की स्रोत, उस गाने की रचयिता दिखी। उस भीड़ के बीच भी वह चल रही थी, धीरे-धीरे अपना एक रास्ता बना रही थी। वह कोई चौदह-पंद्रह साल की रही होगी। फटे-पुराने कपड़े पहने हुए थे उसने, मलिन लहंगा और कमीज के ऊपर जीर्ण ओढ़नी। उसके साथ उससे भी छोटा एक लड़का था, गालिबन उसका भाई। फटी-सी पतलून, ऊपर का देह निर्वस्त्र। तभी कुछ क्षणों में गाने के शब्द सुनाई दिए- 'देने वाले किसी को गरीबी ना दे। मौत दे दे मगर बदनसीबी ना दे। राजेंद्र कृष्ण द्वारा रचित इस गीत को वह पूरी लय में गा रही थी और भाई उसका हाथ फैलाए लोगों से पैसे की आशा रखे चल रहा था।

गहरी सोच थी गाने में, इंतहा गहरी। गरीबी नसीब से जुड़ी होती है, लेकिन नसीब गरीबी से अलग भी हो सकता है। यह दोनों गरीब तो थे ही, साथ में बदनसीब भी। तिस पर भी इतनी बारीकी का ख्याल, इतना बहु-स्तरित विचार। लड़की गा रही थी उस गीत को पूरी समझ के साथ, दर्द के साथ। एक किस्म की विरक्ति के साथ कह रही थी वह- हूं गरीब, बदनसीब भी। तकदीर की मारी हूं साथ...जात की भी...औरत-जात की, और फिर मेरे घर की जात की भी...!
मेरा दिमाग सुन्न् हो गया।


फर्ज करते हैं कि उस लड़की का नाम था पहेली। और उसके भाई का नाम, बच्चू। नसीब ने क्या रखा है, इस जालिम दुनिया ने उन दोनों के लिए?
यह तीस-पैंतीस साल पहले की बात है। आज पहेली पचास साल से ऊपर की औरत होगी। मां तो होगी ही, शायद नानी या दादी भी। या फिर...! और बच्चू होगा ना जाने कहां? अपनी बहन से तो निश्चय ही बहुत दूर? पैंतालीस-पचास साल का।


जब-जब मैं इस घटना को, इस गाने को याद करता हूं तो मुझे अपने बचपन की एक और 'रेलगाड़ी की याद आती है। वह असली रेलगाड़ी नहीं, फिल्मी थी। पर मेरे दिमाग में ऐसे समा गई है कि भूले नहीं भूलती। फिल्म थी 1954 में वी. शांताराम की बनाई हुई, उसका नाम भी था 'सुबह का तारा। उसमें लता मंगेशकर और तलत महमूद का गाया एक गीत है, और 'सीन है रेल का डिब्बा। फर्स्ट क्लास। और कोई नहीं है उसमें। सिर्फ युगल दंपती...खिड़की से झांक रहे हैं दोनों, देख रहे हैं आसमान में चमकता हुआ सुबह का तारा। प्रदीप कुमार और जयश्री दोनों गा रहे हैं। बिलकुल भिन्न् है उसका 'रस, मेरे सीधे सुने हुए गाने से।

गया अंधेरा हुआ उजारा, चमका-चमका सुबह का तारा। टूटे दिल का बंधा सहारा, चमका-चमका सुबह का तारा। सांस खुशी की तन में आई। अरमानों ने ली अंगड़ाई। जाग उठी उम्मीदें सारी। जाग उठी तकदीर हमारी। कहीं किसी ने दूर पुकारा, चमका-चमका सुबह का तारा...।


ये दोनों दृश्य मेरे दिमाग में घूमे जा रहे हैं जब से गरीबों के लिए 10% आरक्षण की घोषणा हुई है। क्या पहेली-बच्चू जैसों के लिए यह योजना सुबह का तारा बनेगी? क्या उससे उनकी तकदीर खुल जाएगी? शुरू में यह बात कह देनी चाहिए कि इस योजना का उद्देश्य सराहनीय है, श्रेष्ठ है। लेकिन उसके समय का चयन सही नहीं। उसमें सामाजिक इंसाफ की नहीं, सियासी फायदे की गंध है। 'अच्छे काम के लिए हर घंटा अच्छा कहा जाता है। मैं उस सत्य को नकार नहीं रहा हूं। लेकिन यह जरूर कहूंगा कि सत्यवाद और अवसरवाद में उतना ही ताल्लुक है, जितना कि चंदन और चूने में। राष्ट्रीय चुनाव से चार महीने पहले नहीं, चुनाव से चार साल पहले यह योजना आई होती तो ठीक रहता। आज इस योजना का तारा आसमायी नहीं सिनेमायी लग रहा है। जैसे कि चुनाव के पर्दे पर वी. शांताराम के पर्दे वाला वर्क का बनाया हुआ 'तारा लगा दिया हो।


बात सिर्फ सामयिकता की नहीं है। बात वास्तविकता की भी है। आरक्षण कागज पर नहीं होता। आरक्षण हकीकत पर होता है।
कहां हैं नौकरियां, किधर हैं रिक्तियां?


आज की पहेली को और बच्चू को अगर कोई ढूंढ निकाल भी ले, तो कहां भेजे जाएंगे वे? कौन उनको कहेगा बांग्ला में 'ऐशो, ऐशो..., या मराठी में 'ये, ये? या कन्न्ड़ में 'बा, बा...? कौन?
आरक्षण नहीं, हिंद के गरीब को, उसकी पहेली और बच्चू को, पद नहीं, पदार्थ चाहिए। खोखले वचन नहीं, ठोस मदद चाहिए। हां, अगर 'जॉब्स होते, आवंटन के लिए तो 'जॉब्स से बेहतर मदद और नहीं होती। लेकिन हैं नहीं 'जॉब्स। और जो थे, वे भी कम हो चले हैं।


पिछले कुछ सालों में मनरेगा के निर्वहन में खामियां रही हैं। गाफिलात और गोलमाल भी हुए हैं उसके तहत। लेकिन फिर भी उस योजना से मिली है मदद देहात में हमारे बेरोजगार सह-नागरिकों को। वैसी योजनाएं चाहिए हमें अब नगरों में भी। जो कि रोटी जैसी सच्ची हों।


अंत में इतना और कहे देता हूं। मैंने इस 10% आरक्षण के बारे में कहा कि उसका चुनाव से पहले लाया जाना ठीक नहीं। इस हकीकत के पीछे एक और विकट सत्य भी है। चुनाव होने को हैं, होंगे। राजनैतिक दल तैयार हो रहे हैं। कोई हारेगा, कोई जीतेगा। लेकिन आसमान के भी अपने तरीके हैं। बारिशें नहीं आई हैं। मानसून फेल हुआ है। आगामी माह महा-अकाल के हो सकते हैं।


मप्र, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, उप्र, राजस्थान, मराठवाड़ा में अभी भी देखिए, पोखर सूखे पड़े हैं। दरख्त अपर्ण! खेत वीरान! 'पोस्ट-मानसून बारिशें भी गुम हैं। कोई किसी से भी लड़े चुनाव में, कोई किसी से भी भिड़े, हम सबों को सामना करना होगा कुछ ही सप्ताहों में एक अति-कठोर सूखे से। और जब नलों में पानी न होगा, तो हम सब पहेली और बच्चू बन जाएंगे...गरीब हों या अमीर, सब अकाल नाम की बदनसीबी के शिकार।


सरकारों (केंद्रीय और प्रांतीय) को आज एक-मन से, तन-मन-धन से सियासी वचनों को भूलकर, त्याजकर, देश के सम्मुख एक नीति रखनी चाहिए पानी के उपयोग की, पानी की उपलब्धता और उसके इस्तेमाल की, जिसमें पेय-जल सबसे पहले आए, पशु-योग्य जल दूसरे नंबर पर और कृषि जल तीसरी जगह पर हो। उसके बाद बाकी सब।

यह अपरिहार्य है। इस पर ध्यान ना दिया जाए तो हम सब समझिए देखते-देखते, 'बद-नसीबी ना दे...!

(लेखक पूर्व राजनयिक-राज्यपाल हैं और वर्तमान में अध्यापक हैं)


https://naidunia.jagran.com/editorial/expert-comment-feeling-sad-for-tears-of-the-poors-2771297


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