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न्यूज क्लिपिंग्स् | गरीबी और सरकारी अमानवीयता- एम जे अकबर

गरीबी और सरकारी अमानवीयता- एम जे अकबर

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published Published on Jul 31, 2013   modified Modified on Jul 31, 2013
यह इनसानी स्वभाव है कि व्यक्ति अगर अच्छे मूड में हो, तो वह अपने सहयोगी को इंतजार कर रही त्रासदी से बचाने में गर्व महसूस करता है. एक दागदार व्यक्ति को सतत रूप से जारी फिजूल तमाशे से बचाना एक अच्छा मौका हो सकता है. संभवत: वक्त आ गया है जब हम सब मिल कर 28 साल पहले दिल्ली में हुए सिख विरोधी दंगों के दौरान लोगों को हत्या और मारकाट के लिए उकसाने के मामले में सज्जन कुमार पर चल रही अदालती सुनवाई को खत्म करने के लिए एक याचिका दायर करें.

पिछले तीन दशक से वे बार-बार कानून में मौजूद छिद्रों का फायदा उठाकर बचते रहे हैं. इसमें अधिकारियों की मिलीभगत रही है. ऐसा पिछले हफ्ते एक बार फिर घटित हुआ. दिखावा क्यों करें? 1984 के दंगों के पीड़ितों को साफ संदेश दें कि उम्मीद छोड़ दें. यह भारतीय न्यायिक भूल-भुलैया में दाखिल होनेवाले हर व्यक्ति के लिए सही है.

अब राजनीतिक माहौल अगले आम चुनाव की ओर बढ़ रहा है. बातचीत और जनमत सर्वेक्षण एक दूसरे का मनोरंजन के दायरे में पीछा कर रहे हैं. कारणों को आगे रखने और प्रस्तावों से पीछे हटने, मतदाताओं पर असर डालने वाले मुद्दे और इसके कारणों की बारीक पड़ताल के बीच ऐसा लगता है कि चुनाव विश्‍लेषकों का एक महत्वपूर्ण मुद्दे- न्याय न मिलने के कारण लोगों में बढ़ते गुस्से पर ध्यान नहीं जाता है. न्याय का व्यापक फलक विडंबनाओं को जन्म दे सकता है.

बिहार में मिड-डे मील हादसे को लें. गरीबों का गुस्सा कानूनन जायज है. प्रिंसिपल और उसके साथी, जिन्होंने कीटनाशक के जरिये कुपोषित बच्चों को जहर दिया वे सिर्फ लालच की वजह से बने अपराधी नहीं हैं, बल्कि उनके जेहन में शोषितों के प्रति घृणा की भावना है. लेकिन इस घटना का एक परिणाम अजीब है. इस घटना के बाद बिहार के शिक्षक यह तर्क पेश करते हुए हड़ताल पर चले गये हैं कि मिड-डे मील मुहैया कराना उनका काम नहीं है. वे भी अन्याय से पीड़ित होने का दावा कर रहे हैं.

क्या इन दोनों शिकायतों के बीच संबंध है? हां, दोनों सरकार के धराशायी होने का संकेत हैं. सुप्रीम कोर्ट सरकारों को स्कूलों में खाना मुहैया कराने का आदेश देता है, लेकिन राज्य सरकारों के पास इसके लिए न तो बुनियादी ढांचा है न ही ऐसा करने की इच्छाशक्ति. उद्देश्य के साथ क्षमता का विकास करने का कोई प्रयास नहीं किया गया. यह पैसे का सवाल नहीं है. इस खाने के लिए जरूरी पैसे पूरे देश के चरमरा चुके प्रशासन को चलाने के लिए जरूरी वित्तीय मदद का एक काफी छोटा हिस्सा है. पर कोई भी राज्य सरकार इस सच को स्वीकार करने का खतरा नहीं उठा सकती. ऐसा करना राजनीतिक आत्महत्या होगी. ऐसे में वे वही करते हैं, जो उन्होंने सीखा है.

समझौते और चोरी पर टिकी व्यवस्था को बढ़ावा देना. मिड-डे मील योजना के लिए पेशेवर तरीके की जरूरत है ताकि जबावदेही तय हो सके. इसके बदले सरकार शिक्षकों को पैसा दे देती है और उन्हें अपनी मनमर्जी से काम करने की इजाजत मिल जाती है. राजधानी से लेकर स्कूल तक, हर स्तर पर इसमें कमीशन तय है.

पर हर कोई इतना बेईमान नहीं होता, नहीं तो छपरा जैसी घटनाएं अकसर होतीं. लेकिन यह व्यवस्था गरीबों के साथ अमानवीय व्यवहार करती है. वह मानती है कि गरीब अपने घरों में गंदा खाना खाते हैं, फिर स्कूलों में उन्हें अच्छा खाना क्यों दिया जाये? इससे भी बडी त्रासदी जो सुर्खियां नहीं बन पाती, वह है हजारों बच्चों को सड़ा हुआ खाना देकर धीमा जहर दिया जाना. धीमी मौत खबर नहीं बनती है.

भारत में अन्याय नया नही है. आदिवासी सदियों से हाशिये पर हैं. सामंती भारत के पास उनके लिए समय नहीं है. आदिवासियों की न्याय की मांग बंदूक के जरिये सुनी जाती है. दूसरों ने अभी तक हिंसा का रास्त अख्तियार नहीं किया है. अभी भी गरीबों में लोकतंत्र के प्रति थोड़ा भरोसा है. वे अपना गुस्सा चुनावों में प्रदर्शित करते हैं. लेकिन सत्ताधारी वर्ग समय को अंतहीन संसाधन के तौर पर प्रयोग करता है.

भ्रष्टाचार भी अन्याय का पर्याय है, क्योंकि यह लोगों के संसाधनों की लूट पर टिका है. भ्रष्टाचार केवल अमीरों के बीच संपत्ति का आदान-प्रदान नहीं है, यह लोगों के पैसे का कुछ सीमित लोगों के हाथों में सिमट जाना है. बिहार में शिक्षक अपने वेतन से मिड-डे मील का खर्च नहीं दे रहे थे, वे करों से जमा हुए पैसों की बंदरबांट कर रहे थे. वैसी मोबाइल कंपनियां जिन्होंने कम कीमत पर स्पेक्ट्रम खरीदीं, वे भी राष्ट्रीय संपत्ति की चोरी कर रहे थे.

तानाशाही से न तो न्याय की उम्मीद की जाती है न ही यह दी जाती है. यही वजह है कि जब तानाशाह सत्ता से बेदखल होते हैं तो न्याय की मांग काफी तीव्र हो जाती है. लेकिन न्याय लोकतंत्र की मूल भावना है. साधारण अपराधों की सजा भी कानून के जरिये होती है. राजनीतिक अपराध का फैसला चुनावों में होता है.

जब न्याय नहीं दिया जाता है तो यह जेहन में हावी रहता है. आप इसे मंद कर सकते हैं, जैसा कि सज्जन कुमार के मामले में है, लेकिन राष्ट्रीय चेतना के किसी कोने से यह हमेशा आपका पीछा करती रहेगी. हर चुनाव न्याय पर फैसला होता है. यह फैसला भले ही सटीक न हो, लेकिन यह काम करता है.


http://www.prabhatkhabar.com/news/28843-Inhuman-poverty-government-Corruption.html


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