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न्यूज क्लिपिंग्स् | गरीबी का फंदा तोड़ने के वास्ते-- प्रमोद जोशी

गरीबी का फंदा तोड़ने के वास्ते-- प्रमोद जोशी

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published Published on Oct 15, 2015   modified Modified on Oct 15, 2015
आर्थिक विकास, व्यक्तिगत उपभोग और गरीबी उन्मूलन के बीच क्या कोई सूत्र है? यह इक्कीसवीं सदी के अर्थशास्त्रियों के सामने महत्वपूर्ण सैद्धांतिक प्रश्न है. पिछले डेढ़-दो सौ साल में दुनिया की समृद्धि बढ़ी, पर असमानता कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ी. ऐसा क्यों हुआ और रास्ता क्या है? 

इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार प्रिंसटन विश्वविद्यालय के माइक्रोइकोनॉमिस्ट प्रोफेसर एंगस डीटन को देने की घोषणा की गयी है. वे लंबे अरसे से इस सवाल से जूझ रहे हैं. भारत उनकी प्रयोगशाला रहा है. उनके ज्यादातर अध्ययन पत्र भारत की गरीबी और कुपोषण की समस्या से जुड़े हैं. उनकी धारणा है कि आर्थिक विकास की परिणति विषमता भी है, पर यदि यह काफी बड़े तबके को गरीबी के फंदे से बाहर निकाल रहा है, तो उसे रोका नहीं जा सकता. इसके लिए जनता और शासन के बीच में एक प्रकार की सहमति होनी चाहिए. 

प्रो डीटन भारत में ज्यां द्रेज, अभिजित बनर्जी, जिंशु दास के साथ मिल कर गरीबी उन्मूलन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, पोषण और इनसे संबद्ध विषयों पर काम कर चुके हैं. प्रिंसटन विवि की वेबसाइट के होमपेज पर अध्ययन का मुख्य विषय है ‘विश्व और भारत में गरीबी.' भारत में गरीबी रेखा की परिभाषा को लेकर वे भारत सरकार के आलोचक भी हैं, पर वे यह मानते हैं कि स्थितियों में सुधार हुआ है. आमतौर पर नोबेल पुरस्कार उन्हीं को मिलता है, जो फ्री मार्केट का समर्थन और सार्वजनिक कल्याण के कार्यक्रमों पर सरकारी व्यय बढ़ाने की आलोचना करते हैं. 

हाल के वर्षों में ऐसे अर्थशास्त्रियों को भी यह सम्मान मिला, जिन्होंने बाजारवादी ताकतों की आलोचना की. इनमें जॉर्ज एकरलॉफ, जोजफ स्टिग्लिट्ज, रॉबर्ट शिलर और अमर्त्य सेन का नाम शामिल है. स्कॉटलैंड में जन्मे प्रो डीटन के विचारों को बाजार बनाम राज्य के हस्तक्षेप की बहस में दोनों पक्ष उद्धृत कर सकते हैं. 

डीटन एकतरफा नहीं सोचते. यानी न तो वे नितांत पूंजीवादी समझ के हामी हैं और न वामपंथी तौर-तरीकों के समर्थक. वे अपनी धारणाओं को विचारधारा के दायरे से बाहर रखते हैं. उनके अनुसार, दुनिया को गरीबी के फंदे से बाहर निकाला जा सकता है. 

पिछले साल थाॅमस पिकेटी की किताब ‘कैपिटल इन द ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी' ने दुनिया का ध्यान बढ़ती विषमता की ओर खींचा था. वस्तुतः इस दिशा में उसके एक साल पहले आयी डीटन की पुस्तक ‘द ग्रेट एस्केप' में ज्यादा गहराई थी. भारत के संदर्भ में डीटन की किताब कई तथ्यों को उजागर करती है. दो साल पहले अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो की किताब ‘पुअर इकोनॉमिक्स' में डीटन को कई जगह उद्धृत किया गया है. खासतौर से उदयपुर (राजस्थान) के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर उनके काम का उल्लेख है. डीटन खुद भारत के पत्रों में लिखते रहे हैं, इपीडब्ल्यू में उनके कई लेख प्रकाशित हो चुके हैं. 

डीटन ने अपनी किताब ‘द ग्रेट एस्केप' में बताया है कि अठारहवीं सदी के बाद से दुनिया में समृद्धि बढ़ी है, जिसके कारण लोगों की औसत उम्र बढ़ी, स्वास्थ्य बेहतर हुआ, गरीबी कम हुई. पर ऐसा पूरी दुनिया में नहीं हुआ. तेज प्रगति ने मानव जाति के जीवन को बदल कर रख दिया, पर दूसरी ओर असमानता भी बढ़ी. यह असमानता खासतौर से बीसवीं सदी में बढ़ी है. डीटन ने भारत में कुपोषण को बड़ी समस्या के रूप में उभारा है, जिसके कारण यहां के लोग नाटे होते हैं. भारत में अनाज की उपलब्धता बढ़ने के बावजूद कुपोषण बढ़ा है. 

प्रो डीटन और ज्यां द्रेज ने दिखाया कि भारत में पिछले 25 साल में लोगों का भोजन कम से कम होता जा रहा है. तेज आर्थिक विकास के बावजूद, प्रति व्यक्ति कैलोरी उपभोग में निरंतर कमी आयी है. 

भोजन की थाली की संरचना इस तरह बदली है कि भोजन पर व्यय-राशि तो वही है, पर वह ज्यादा महंगी खाद्य वस्तुओं पर खर्च हो रही है. हर लिहाज से वास्तविक आय बढ़ी है. समृद्धि बढ़ने के बावजूद भारतीय लोग, आय के प्रत्येक वर्ग में, आज औसतन जो कुछ भी खा रहे हैं, वह अतीत के स्तर से कम हैं. ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि खाद्य वस्तुओं की कीमतें बढ़ीं. 

बल्कि 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों से 2005 के बीच, शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों में, दूसरी वस्तुओं के मुकाबले खाने की चीजों की कीमत में गिरावट का रुख रहा है. इनकी कीमतें 2005 से बढ़ने लगीं हैं, पर कैलोरी उपभोग में गिरावट उन्हीं दिनों ज्यादा आयी, जिन दिनों खाद्य वस्तुओं की कीमतें गिर रहीं थीं. गरीब भी, जिन्हें फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइजेशन (एफएओ) उनके खाद्य-उपभोग के आधार पर भूखा मानता है, उस वक्त भी ज्यादा खाने को उत्सुक नजर नहीं आते, जब वे चाहें तो खा सकते हैं.

डीटन के अनुसार, भारतीय बच्चों की हाइट कम होने की वजह है बाल्यावस्था में पोषण की कमी. इस दौरान ही मस्तिष्क का विकास होता है. डीटन और नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पानगढ़िया के बीच इस बात को लेकर बहस भी चली कि भारतीय बच्चों की हाइट कम होने के पीछे कुपोषण है या जेनेटिक कारण हैं. अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने इस बात की छानबीन की है कि नाटा होना क्या दक्षिण एशिया की जेनेटिक विशेषता है. 

इंग्लैंड और अमेरिका में दक्षिण एशियाई प्रवासियों के बच्चे कॉकेशियन और ब्लैक बच्चों की तुलना में नाटे होते हैं. पश्चिमी देशों में दो पीढ़ियों के निवास के बाद और अन्य समुदायों के साथ वैवाहिक संपर्कों के बगैर भी दक्षिण एशियाई लोगों के नाती-पोते उसी कद के हो जाते हैं, जैसे दूसरे समुदायों के बच्चे. 

मामला जेनेटिक्स का नहीं, कुपोषण का है. यह कुपोषण है, भूख नहीं. भारत के राष्ट्रीय पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे के आंकड़े भयावह हैं. प्रो डीटन को नोबेल देने के लिए यह उपयुक्त समय है. पिछले 15 साल से दुनिया संयुक्त राष्ट्र के सहस्राब्दी लक्ष्यों के लिए काम कर रही थी.

ये लक्ष्य पूरे नहीं हो पाये. अब संयुक्त राष्ट्र ने सतत विकास का एजेंडा-2030 पास किया है. पिछले हफ्ते विश्व बैंक ने दावा किया है कि दुनिया में गरीबी की रेखा के नीचे रहनेवालों की संख्या एक अरब से कम हो रही है. यह भी कहा कि 2030 तक गरीबी का फंदा पूरी तरह टूट जायेगा. डीटन ने नोबेल पुरस्कार की घोषणा के बाद कहा कि स्थितियां बेहतर हो रहीं हैं, पर अभी बहुत ज्यादा काम बाकी है.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/560548.html


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