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न्यूज क्लिपिंग्स् | घर छोड़ने को मजबूर क्यों अन्‍नदाता? - देविंदर शर्मा

घर छोड़ने को मजबूर क्यों अन्‍नदाता? - देविंदर शर्मा

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published Published on Jan 7, 2015   modified Modified on Jan 7, 2015
कृषि के संदर्भ में राष्ट्रीय नमूना सर्वे संगठन (एनएसएसओ) की हालिया रिपोर्ट साफ तौर पर बताती है कि कृषि न केवल संकट के दौर से गुजर रही है, बल्कि उसका तेजी से क्षरण भी हो रहा है। मैं चकित नहीं हूं। आखिरकार 1996 में ही विश्व बैंक ने भारतीय कृषि के पतन की दिशा बता दी थी। तब विश्व बैंक ने अनुमान लगाया था कि अगले बीस वर्षों में भारत में ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी इलाकों में पलायन का आंकड़ा ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी की साझा आबादी के आंकड़े की बराबरी कर लेगा। इन तीनों देशों की संयुक्त आबादी 20 करोड़ है और विश्व बैंक ने अनुमान लगाया था कि 2015 के अंत तक पलायन का आंकड़ा 40 करोड़ तक पहुंच सकता है।

यह भयावह स्थिति इसलिए उत्पन्न हुई है, क्योंकि कृषि फायदे का व्यवसाय नहीं रह गई है। घाटे की खेती करते-करते किसान ऊब चुके हैं और वे रोजी-रोटी की तलाश में शहरी इलाकों का रुख करने लगे हैं। 2008 की अपनी विश्व विकास रिपोर्ट में विश्व बैंक ने यह इच्छा प्रकट की थी कि भारत भूमि अधिग्रहण तथा ग्रामीण क्षेत्रों के युवाओं के कौशल विकास के लिए देशव्यापी प्रशिक्षण केंद्र बनाने की प्रक्रिया तेज करे, ताकि उन्हें औद्योगिक श्रमिक के रूप में तैयार किया जा सके। अब किसानों को कृषि से बाहर निकालने की प्रक्रिया कहीं स्पष्ट रूप से नजर आ रही है। इसके संकेत पिछले 17 वर्षों में तीन लाख से अधिक किसानों की आत्महत्या तथा 42 प्रतिशत किसानों द्वारा विकल्प उपलब्ध होने की दशा में कृषि छोड़ने के इच्छुक होने जैसे तथ्यों से भी मिलते हैं। ये तथ्य जिन परिस्थितियों की देन हैं, उनमें कृषि को जानबूझकर सार्वजनिक क्षेत्र की फंडिंग से दूर रखने के प्रयास भी शामिल हैं। हालात दिन-प्रतिदिन खराब होते जा रहे हैं। बढ़ती कर्जदारी को समाप्त करने के लिए कोई प्रयास न होना तथा करीब 58 प्रतिशत किसानों के रोज ही भूखे सोने के तथ्य भी यह बताते हैं कि किसान पलायन के अलावा कुछ नहीं कर सकते। 2011 की जनगणना बताती है कि रोज 2400 से अधिक किसान कृषि छाेडकर शहरों की ओर चल पड़ते हैं। कुछ स्वतंत्र अनुमान तो हर वर्ष शहर पलायन करने वाले लोगों की संख्या 50 लाख के आसपास बताते हैं।

रघुराम राजन ने जब रिजर्व बैंक के गवर्नर का पद संभाला था तो उन्होंने भी इसी तरह की भावना जताई थी। उन्होंने कहा था कि भारत में असली प्रगति तब होगी, जब हम लोगों को कृषि से बाहर निकालकर शहरों में लाने में सफल होंगे। वे ऐसा कहने वाले अकेले अर्थशास्त्री नहीं हैं। अधिकांश मुख्यधारा के अर्थशास्त्री कई दशकों से इसी तरह के विचार व्यक्त करते रहे हैं। यह इन्हीं विचारों का नतीजा है कि सरकारी नीतियों में कृषि की अनदेखी की जाती है। कृषि भारत के आर्थिक राडार से गायब ही हो गई है।

जब 70 प्रतिशत किसानों के पास एक हेक्टेयर से कम जमीन है और चालीस प्रतिशत से अधिक किसान मनरेगा कार्डधारक हैं, तब यह अपने आप साफ हो जाता है कि खेती-किसानी किस तरह घाटे का सौदा बनकर रह गई है। सर्वे की रिपोर्ट के अनुसार पांच लोगों का एक सामान्य परिवार फसल के उत्पादन से 3078 रुपए प्रतिमाह कमाता है और 765 रुपए उसे डेयरी से मिल जाते हैं। अगर इसमें 2069 रुपए प्रतिमाह मजदूरी के तथा 514 रुपए गैर-कृषि गतिविधियों के जाेड दिए जाएं तो एक घर की कुल मासिक आय 6426 रुपए हो जाती है। इसका मतलब है कि एक कृषक परिवार के घर में आमदनी का केवल 60 प्रतिशत हिस्सा कृषि से आता है। यदि हरित क्रांति के 45 वर्ष बाद एक किसान के नसीब में मात्र इतना ही पैसा आता है तो क्या यह राष्ट्रीय शर्म का विषय नहीं? क्या इसका यह मतलब नहीं कि अंधाधुंध तरीके से झोंकी गई गहन कृषि तकनीकें किसानों के जीवन में खुशहाली लाने में नाकाम साबित हुई हैं?

वैसे तो एनएसएसओ हमें यह बताता है कि 15.61 करोड़ ग्रामीण घरों में 57 प्रतिशत कृषि से जुड़े हुए हैं। इसका मतलब है कि इन परिवारों में कम से कम एक सदस्य या तो कृषि कर रहा है या पशुपालन से जुड़ा हुआ है। लेकिन सच्चाई क्या है? सच्चाई यह है कि खेती से संबंधित ये परिवार भी निरंतर उपेक्षा तथा संवेदनहीनता के शिकार हो रहे हैं। 11वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान कृषि के लिए कुल बजट आवंटन एक लाख करोड़ रुपए था। 12वीं योजना के तहत अगले पांच सालों में बजट आवंटन बढ़कर डेढ़ लाख करोड़ रुपए हो गया। इस वर्ष यानी 2014-15 में 58 प्रतिशत आबादी को रोजगार उपलब्ध कराने वाली कृषि को केवल 24000 करोड़ मिले। दूसरी ओर इस वर्ष उद्योग सेक्टर को 5.73 लाख कराेड रुपए की केवल कर छूट प्राप्त हुई। विचित्र यह है कि मनरेगा तक को कृषि की तुलना में अधिक बजटीय आवंटन मिला।

राहत की एकमात्र बात किसानों को दिया जाने वाला न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी है। इसमें भी यह गौर करने लायक है कि पिछले तीन वर्षों में गेहूं और चावल के समर्थन मूल्य में प्रतिवर्ष केवल 50 रुपए प्रति क्विंटल की वृद्धि हुई है। यह देश में इन चीजों की बढ़ती महंगाई के अनुरूप भी नहीं है। किसानों को सहारा देने के बजाय ऐसे हरसंभव प्रयास किए जा रहे हैं जिससे सरकारी खरीद की प्रक्रिया ही समाप्त हो जाए। एमएसपी को खत्म करने के सुझाव दिए जा रहे हैं। इसका मतलब होगा किसानों को बाजार की मनमानी के हवाले कर देना। लागत और मूल्य आयोग खुद ही एमएसपी को समाप्त करने की मांग कर रहा है, ताकि बाजार ही यह तय कर सके कि किसानों को उनकी उपज की क्या कीमत मिलनी चाहिए। इस तरह के सुझाव देते हुए यह नहीं बताया जा रहा है कि केवल आठ प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी का लाभ होता है और 92 प्रतिशत उनका शोषण करने वाले निजी व्यापार पर निर्भर रहते हैं। पंजाब के किसानों को एक सुनिश्चित एमएसपी हर वर्ष मिलता है, जबकि बिहार के किसान इससे वंचित रहते हैं। अगर एमएसपी खत्म कर दिया जाता है तो पंजाब के किसान भी बिहार जैसे हालात से गुजरने के लिए विवश होंगे। खाद्य मंत्रालय ने राज्य सरकारों को जो निर्देश दिया है कि वे एमएसपी के ऊपर किसानों को कोई बोनस न दें, वह इसी दिशा में उठाया गया कदम है।

-लेखक खाद्य व कृषि मामलों के विश्‍लेषक हैं।


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