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न्यूज क्लिपिंग्स् | घरेलू कामगार: अर्थव्यवस्था का अंधेरा कोना- जैनेन्द्र कुमार

घरेलू कामगार: अर्थव्यवस्था का अंधेरा कोना- जैनेन्द्र कुमार

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published Published on Mar 3, 2014   modified Modified on Mar 3, 2014

राजधानी दिल्ली में बीते दिनों एक सांसद और उसकी पत्नी पर आरोप लगा कि उन्होंने अपने घरेलू कामगार को मौत के घाट उतार दिया है. यही नहीं, कुछ पिछड़े राज्यों से देश की राजधानी में आकर घरेलू कामकाज करनेवाली महिलाओं पर अत्याचार की कहानियों से तो हम आये दिन दो-चार हो रहे हैं. क्यों होती हैं ऐसी घटनाएं, देश में घरेलू कामगारों के लिए किस तरह का है माहौल, क्या है घरेलू कामगार की परिभाषा और उनसे संबंधित नियम, ऐसे ही सवालों के बीच ले जा रहा है आज का नॉलेज.

बीते वर्ष नवंबर महीने में एक सांसद और उनकी डॉक्टर पत्नी को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार किया. खबर आयी थी कि इस दंपति के घर में बर्तन मांजने, झाड़ू-पोंछा लगाने समेत रोजमर्रा के तमाम काम करनेवाली 35-40 साल की एक महिला की लाश मिली है. मामले की तफ्तीश करनेवाले पुलिस अधिकारियों का कहना था कि सांसद और उनकी चिकित्सक पत्नी उस घरेलू कामगार को लोहे की छड़ और डंडे से पीटते और यातना देते थे. मृत पायी गयी महिला पश्चिम बंगाल की थी और जीविका की तलाश में देश की राजधानी में आयी थी.

इस घटना से कुछ ही दिन पहले दिल्ली के अखबारों में ऐसी एक और कहानी छपी. बीते अक्तूबर महीने में पुलिस ने एयर इंडिया के लिए काम करनेवाली एक एयर होस्टेस को गिरफ्तार किया. पुलिस के मुताबिक, एयर होस्टेस को ऑस्ट्रेलिया की अपनी उड़ान पर जाना था. वह घरेलू कामकाज करने के लिए रखी गयी एक किशोरी को अपने अपार्टमेंट में बंद करके चली गयी. एयर होस्टेस के अपार्टमेंट में कैद भूख-प्यास सहती यह किशोरी मणिपुर के एक गांव की थी. पुलिस ने इसे आरंभिक तौर पर मानव-व्यापार का मामला माना. गिरफ्तारी के बाद यह भी पता चला कि एयर होस्टेस किशोरी को बेल्ट से पीटती और भूखा रखती थी.

पारस्परिक विश्वास की कमी से उपजी हिंसा का स्वरूप

घरेलू कामकाज करनेवाली महिलाओं पर अत्याचार की कहानियों से हम आये दिन दो-चार होते हैं. आम तौर ऐसी घटनाओं को पारस्परिक विश्वास की कमी से उपजी हिंसा की घटना के रूप में पढ़ा जाता है. हिंसा की इन घटनाओं को एक तरह से नकारने के लिए कुछ और कहानियां सुनायी जाती हैं. इन कहानियों में बताया जाता है कि घरेलू कामकाज के लिए किसी महिला को अपने घर में सहायक के तौर पर नियुक्त करनेवाला हर व्यक्ति व्यवहार के मामले में हिंसक नहीं होता.

बहुत से बहुत से मध्यवर्गीय परिवार हैं, जहां घरेलू परिचारक-परिचारिकाओं से इंसानियत का बरताव किया जाता है. उनके सुख-दु:ख का ख्याल रखा जाता है और उनकी भावी प्रगति की जमीन तैयार करने के लिए मदद दी जाती है. लेकिन मध्यवर्गीय परिवारों के घरेलू कामकाज में सहायता करके जीविका कमाने को मजबूर महिलाओं की समस्या व्यक्तिगत व्यवहार का मामला भर नहीं है. उनके साथ होनेवाली हिंसा की घटनाएं आपसी विश्वास की कमी भर से नहीं उपजतीं. ऐसी महिलाओं के साथ होनेवाली हिंसा की जड़ें मानवीय स्वभाव में कम और हमारे मौजूदा अर्थव्यवस्था की बनावट में कहीं ज्यादा हैं.

सवाल परिभाषा का

हमारी अर्थव्यवस्था के भीतर घरेलू कामकाज में सहायक लोगों को बेनाम और बेशक्ल रखा गया है. परंपरा से चली आ रही मान्यता घरेलू कामकाज में सहायता करनेवाले लोगों को नौकर/ नौकरानी का दरजा देती है, यानी एक ऐसा व्यक्ति जो मूल कार्य नहीं करता, बल्कि मूल कार्य के पूरा होने में किन्हीं तरीकों से सहायक मात्र होता है और इस वजह से किये गये काम के वाजिब मेहनताने का नहीं, बल्कि बख्शीश भर पाने का पात्र होता है. बख्शीश हकदारी का नहीं, मनमानी का मामला है. मन हुआ तो सल्तनत बख्श दी और मन हुआ तो पैबंद लगे कपड़े, फटे जूते या फिर बासी रोटी थमा कर खुद के मालिक होने पर गर्व महसूस करने लगे.

नौकर नहीं ‘कामगार’

दरअसल, घरेलू कामकाज में सहायक श्रमशक्ति की सारी लड़ाई इस मान्यता से टकराने और बदलने की है. इस श्रमशक्ति की लड़ाई खुद को नौकर/ नौकरानी नहीं बल्कि ‘कामगार’ (यानी एक ऐसा व्यक्ति जिसके काम का तयशुदा मोल हो) स्वीकार करवाने की है. कामगार का दरजा हासिल होते ही वैधानिक तौर पर कार्यस्थल पर हासिल सुविधाएं, काम के घंटे, वांछित काम का रूप, उनसे जुड़ा जोखिम और हर्जाना समेत कार्य-संपन्न होने की स्थिति में होनेवाले भुगतान की बात सुनिश्चित हो जाती है. ऐसे में घरेलू कामकाज में सहायक के तौर लगे लोगों से किये जानेवाले बरताव में मनमानी करने की गुंजाइश समाप्त हो जाती है.

हक से वंचित एक बड़ी आबादी

देश के कस्बों, शहरों और महानगरों में आबाद मध्यवर्गीय परिवारों के घरेलू कामकाज में सहायक महिला श्रमशक्ति की एक बड़ी तादाद कामगार का दरजा पाये बगैर काम करने को बाध्य है. काम से जुड़े उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान नहीं किये गये हैं और जो थोड़े से प्रावधान हैं भी, उनकी अमलदारी में भारी कमी है. अंतरराष्ट्रीय श्रम-संगठन के अनुसार, जीविका के लिए किसी और के घरेलू कामकाज में सहायता करनेवाली महिलाओं की संख्या बीते एक दशक (साल 2001-2010) के बीच तकरीबन 70 प्रतिशत बढ़ी है. देश में फिलहाल ऐसी महिलाओं की संख्या एक करोड़ है. नेशनल सैंपल सर्वे के 2004-05 के आंकड़ों में जीविका के लिए किसी अन्य के घर के कामकाज में बतौर घरेलू सहायक काम करनेवाले लोगों की संख्या 47.50 लाख बतायी गयी थी. कहा गया था कि इसमें 30 लाख ऐसी महिलाएं हैं, जो किसी न किसी शहरी घर में सहायक का काम करती हैं. किसी भी लिहाज से देखने में यह एक बड़ी तादाद है.

जीविका का संकट

इतनी बड़ी तादाद देश में कामगार होने के बावजूद पर्याप्त नियमों के अभाव में अर्थव्यवस्था के भीतर बेशक्त हैं. नियोक्ता और नियुक्त के बीच रिश्तों को परिभाषित करनेवाला किसी भी औपचारिक अनुबंध से वंचित श्रमशक्ति की यह बड़ी तादाद कई चुनौतियों को ङोल रही है. संगठन के अभाव में इनकी आवाज और मांगें सार्वजनिक नहीं हो पातीं.

काम के लिए मोलभाव करने की खास ताकत अगर कामगार की एक पहचान है, तो यह श्रमशक्ति इस ताकत से भी वंचित है. काम के दौरान जोखिम से गुजरती इस महिला श्रमशक्ति को अपने काम से जुड़ी वैधानिक सुरक्षा, छुट्टी, मातृत्व अवकाश या बीमारी की दशा में उपचार की गारंटी जैसी कोई सुविधा हासिल नहीं है.

घरेलू कामकाज में सहायक महिला शक्ति कानूनी सुरक्षा के अभाव में आठ से अठारह घंटे के बीच काम करते हुए निरंतर जीविका की असुरक्षा से गुजरती है. बात यहीं नहीं रुकती. घरेलू कामकाज में सहायक का काम करके जीविका कमानेवाली महिलाएं ज्यादातर सामाजिक रूप से वंचित समुदाय की होती हैं. ऐसे में उनकी सामाजिक हैसियत से जुड़े सामाजिक पूर्वाग्रह उनके कार्यस्थल पर भी नित नयी चुनौतियों के रूप में सामने आते हैं. यौन-प्रताड़ना का शिकार होना अगर इसका एक रूप है, तो दूसरा रूप है उन पर चोरी का आरोप लगाना, गाली देना, अभद्र भाषा में बात करना या फिर इन्हें घर के भीतर शौचालय आदि का इस्तेमाल न करने देना.

कानून में क्या है?

किसी अन्य के घरेलू कामकाज में सहायता करके जीविका कमानेवाले लोगों की स्थिति में सुधार लाने के लिए सरकार ने एक राष्ट्रीय नीति तैयार करने के मकसद से कई बार प्रयास किये हैं. इस प्रयास के तहत ऐसे सहायकों को ‘कामगार’ का दरजा देने के लिए जरूरी परिभाषा प्रस्तावित की गयी है. घरेलू कामगार को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि ‘ऐसा कोई भी बाहरी व्यक्ति, जिसे नकद या फिर किसी अन्य रूप में किये जानेवाले भुगतान के एवज में किसी घर में काम करने के लिए सीधे या फिर एजेंसी के माध्यम से बहाल किया जाता है; चाहे यह बहाली स्थायी हो या अस्थायी, अंशकालिक हो या पूर्णकालिक, तो उसे घरेलू कामगार माना जायेगा.’

सामाजिक सुरक्षा कानून

केंद्र सरकार ने असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा कानून (2008) लागू किया, तो उसमें घरेलू कामगारों को भी शामिल किया गया है. साथ ही, कुछ और कानून हैं, जैसे- न्यूनतम मजदूरी से संबंधित कानून (1948), मुआवजा देने से संबंधित कानून (1923) तथा समान भुगतान से संबंधित कानून (1976) और इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्कमैन एक्ट (1967), जो घरेलू कामगारों के हक में इस्तेमाल किये जा सकते हैं. इन कानूनों के बावजूद अभी तक ऐसा कोई व्यापक और अखिल भारतीय स्तर पर समान रूप से लागू होनेवाला कानून नहीं बन पाया है, जिसके जरिये घरेलू कामगारों की कार्यदशा बेहतर हो सके. उन्हें अपने काम का सही भुगतान मिल सके और वे खुद को सुविधाओं के मामले में अन्य कामगारों के समान मान सकें.

यातना का एक सिलसिला

5 नवंबर, 2013

जौनपुर से बसपा के सांसद धनंजय और दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में डेंटल सर्जन के पद पर नियुक्त उनकी पत्नी को पुलिस ने घरेलू कामगार महिला की मृत्यु के सिलसिले में गिरफ्तार किया. उन पर अपने अन्य घरेलू सहायकों को प्रताड़ना देने के भी आरोप हैं. इन घरेलू सहायकों में नाबालिग भी शामिल हैं.

28 अक्तूबर, 2013

दिल्ली के नेताजी नगर इलाके के एक फ्लैट से 13 साल की एक किशोरी को पुलिस की सहायता से मुक्त कराया गया. मणिपुर की यह किशोरी एयर होस्टेस के फ्लैट में बतौर घरेलू सहायक कार्यरत थी. उसे अकसर भूखा-प्यासा रखा जाता था और बात-बात पर पीटा जाता था. पुलिस के मुताबिक, एयर होस्टेस उसे आराम करता देख उसका  सिर दीवार से लगा कर धक्का देती थी.

1 अक्तूबर, 2013

दिल्ली के वसंतकुंज इलाके में घरेलू सहायक के तौर पर काम करनेवाली झारखंड की एक किशोरी को एक स्वयंसेवी संस्था के प्रयासों से मुक्त कराया गया. उसे सफदरजंग अस्पताल में भरती कराया गया, क्योंकि उसके शरीर पर चाकू और कुत्ते के दांत से काटने के जख्म थे. पूरे शरीर पर कई जख्म पाये गये थे. पुलिस के मुताबिक, उस फ्लैट में रहनेवाली वंदना धीर अपनी घरेलू कामगार को इसलिए अधनंगा रखती थी, ताकि वह भाग न जाये.

आंकड़ों के आईने में

नेशनल सैंपल सर्वे के 2004-05 के आंकड़ों में जीविका के लिए किसी अन्य के घर के कामकाज में बतौर घरेलू सहायक काम करनेवाले लोगों की संख्या 47.50 लाख बतायी गयी थी. कहा गया था कि इसमें 30 लाख ऐसी महिलाएं हैं, जो किसी न किसी शहरी घर में सहायक का काम करती हैं. किसी भी लिहाज से देखने में यह एक बड़ी तादाद है.

घरेलू कामगार की परिभाषा

घरेलू कामगार को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि ‘ऐसा कोई भी बाहरी व्यक्ति, जिसे नकद या फिर किसी अन्य रूप में किये जानेवाले भुगतान के एवज में किसी घर में काम करने के लिए सीधे या फिर एजेंसी के माध्यम से बहाल किया जाता है, चाहे यह बहाली स्थायी हो या अस्थायी, अंशकालिक हो या पूर्णकालिक, तो उसे घरेलू कामगार माना जायेगा.


http://www.prabhatkhabar.com/news/93159-story.html


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