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न्यूज क्लिपिंग्स् | घोर विपदा की तरफ बढ़ता कश्मीर-- पी चिदंबरम

घोर विपदा की तरफ बढ़ता कश्मीर-- पी चिदंबरम

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published Published on Apr 16, 2017   modified Modified on Apr 16, 2017

जम्मू एवं कश्मीर की स्थिति पर मैंने कई बार लिखा है, खासकर कश्मीर घाटी की स्थिति के संदर्भ के साथ। अप्रैल से सितंबर 2016 के दरम्यान, प्रस्तुत पेज पर, इस विषय पर छह स्तंभ आए। मेरा मुख्य तर्क यह था कि जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा सरकार और केंद्र सरकार ने जो नीतियां अख्तियार की हुई हैं उनके चलते हम कश्मीर को खो रहे हैं। कश्मीर घाटी के बाहर, कुछ ही लोगों ने मेरी बात का समर्थन किया; बहुतों ने मेरी आलोचना की; और केंद्र सरकार के एक मंत्री तो मुझे करीब-करीब राष्ट्र-विरोधी कहने की हद तक चले गए!

 

मैंने अपनी राय बदली नहीं है। बल्कि हाल की घटनाओं से वह और मजबूत हुई है, और मैं उसे जोरदार ढंग से कहना चाहूंगा। मेरा तर्क संक्षेप में इस प्रकार है:


अनुच्छेद 370 एक समझौता है

जम्मू व कश्मीर पर एक राजा का शासन था, जब 1947 में ‘एक महान सौदे' के तहत उसका भारत में विलय हुआ। उस महान समझौते को मूर्तिमान करता भारत के संविधान का अनुच्छेद-370 वर्ष 1950 में अंगीकार किया गया। बरसों से उस अनुच्छेद का पालन कम, उल्लंघन अधिक हुआ है। उस पर जम्मू-कश्मीर के तीनों क्षेत्रों की प्रतिक्रिया अलग-अलग रही है। टकराव का केंद्र कश्मीर घाटी है जहां सत्तर लाख लोग रहते हैं। भारत में जम्मू-कश्मीर के विलय के वक्त जिस स्वायत्तता का वादा किया गया था उससे इनकार किए जाने पर घाटी के लोगों खासकर युवाओं की उग्र प्रतिक्रिया रही है। वहां के लोगों में, मुट्ठी भर लोग ही हैं जो घाटी को पाकिस्तान का हिस्सा बनते देखना चाहते हैं। थोड़े-से लोग उग्रवादी हो गए और उन्होंने हिंसा का रास्ता पकड़ लिया, पर कभी भी उनकी संख्या कुछ सौ से ज्यादा नहीं रही। अलबत्ता वहां के अधिकतर लोगों की मांग आजादी की है।


भारत, बल्कि कहना होगा कि भारतीय सत्ता-तंत्र ने हमेशा पूर्वानुमानित ढंग से व्यवहार किया है। जम्मू-कश्मीर की हर सरकार और केंद्र की भी हर सरकार ने चुनौती का जवाब ज्यादा चेतावनियां जारी करके, ज्यादा फौज तैनात करके तथा पहले से ज्यादा कानून थोप कर दिया है। मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि कश्मीर एक ऐसा विषय है जिस पर प्रधानमंत्री की नहीं चलती। मैं मानता हूं कि वाजपेयी जी ने संजीदगी से समाधान की तरफ बढ़ने की कोशिश की थी, वे इंसानियत के पक्ष में बोले, लेकिन ‘आॅपरेशन पराक्रम' उन्हीं की सरकार की विरासत थी। डॉ मनमोहन सिंह के पास इतिहास की पैनी समझ थी, उन्होंने गोलमेज सम्मेलन, अफस्पा (सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम) में सुधार और वार्ताकारों की नियुक्ति जैसी नई तजवीजें कीं, पर आखिरकार ‘सत्तातंत्र' के ही नजरिए को स्वीकार कर लिया। नरेंद्र मोदी जी ने अपने शपथ-ग्रहण समारोह में नवाज शरीफ को आमंत्रित करके सबको हैरत में डाल दिया था, पर जल्दी ही उन्होंने सत्तातंत्र के दृष्टिकोण को अपना लिया।

सबसे बुरा दौर
कश्मीर घाटी के लोग आशा और निराशा के बीच झूलते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर ने अच्छे दौर भी देखे हैं और बुरे दौर भी, पर मौजूदा वक्त लगता है सबसे बुरा दौर है।

अराजकता का क्रम जुलाई 2016 में, बुरहान वानी के मारे जाने के बाद, शुरू हुआ था। वह घटना सिर्फ एक फौरी उकसावा थी, रोष के बीज तो पहले ही बोए जा चुके थे। 2014 में, जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के बाद, दो बेमेल साझेदारों, भाजपा और पीडीपी, ने मिलकर साझा सरकार का गठन किया। तब इस पर जो नाराजगी पैदा हुई थी वह अब भी कायम है। पीडीपी को एक वादाखिलाफी करने वाली पार्टी के रूप में देखा जाता है और भाजपा को जबरन अधिकार जमाने वाले के रूप में। विपरीत दिशाओं में खींचे जाने का नतीजा यह हुआ है कि राज्य सरकार निष्क्रिय और असहाय बनी हुई है, जबकि सशस्त्र बलों ने असहमति और उपद्रव को दबाने के लिए बल प्रयोग की नीति चला रखी है।


जुलाई 2016 से 20 जनवरी 2017 तक, जम्मू-कश्मीर में पचहत्तर लोगों की जिंदगी हिंसा की भेंट चढ़ चुकी है। इसके अलावा, बारह हजार लोग घायल हुए, और पैलेट गन के इस्तेमाल के चलते एक हजार लोग अपनी एक आंख की रोशनी गंवा बैठे और पांच व्यक्ति अंधे हो गए (जैसा कि निरुपमा सुब्रमण्यम ने ‘द हिंदू' में लिखे एक लेख में बताया है)।


जब मैं यह लिख रहा हूं, जम्मू-कश्मीर के हालात बेहद खराब हैं। वहां दो उपचुनाव हुए- श्रीनगर में और अनंतनाग में। श्रीनगर लोकसभा क्षेत्र तीन जिलों में फैला है, जहां 9 अप्रैल को मतदान हुआ। मतदान सिर्फ 7.14 फीसद रहा, जो कि 28 वर्षों का न्यूनतम आंकड़ा है। बडेÞ पैमाने पर पत्थरबाजी की घटनाएं हुर्इं। आठ लोग पुलिस फायरिंग में मारे गए। 38 बूथों पर 13 अप्रैल को पुनर्मतदान हुआ। इनमें से 26 बूथों पर एक भी व्यक्ति वोट डालने नहीं आया, और पुनर्मतदान में बस 2.02 फीसद वोट पड़े। इस बीच, अनंतनाग में मतदान 25 मई तक के लिए मुल्तवी कर दिया गया। मतदान न होना असल में राज्य सरकार और केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास का वोट है।


दीवार पर जो लिखा है वह साफ पढ़ा जा सकता है। कश्मीर के लोगों में पराए होने का भाव लगभग चरम पर पहुंच गया है। हम कश्मीर को खोने के कगार पर पहुंच गए हैं। हम ‘ताकत' की नीति के सहारे स्थिति पर काबू नहीं पा सकते- मंत्रियों के गरजते बयान, सेनाध्यक्ष द्वारा सख्त चेतावनी, फौज की तैनाती बढ़ाना या कुछ और विरोध-प्रदर्शनकारियों का मारा जाना।


अंतिम अवसर

राष्ट्र-विरोधी कह दिए जाने का जोखिम उठा कर भी मैं कुछ कदम सुझाऊंगा जो उठाए जाने चाहिए:
1. पीडीपी-भाजपा सरकार को इस्तीफा देने के लिए कहा जाए और वहां राष्ट्रपति शासन लागू किया जाए। एनएन वोहरा ने राज्यपाल के तौर पर बहुत अच्छा काम किया है, पर अब समय आ गया है कि नया राज्यपाल नियुक्त किया जाए।
2. यह घोषणा की जाए कि केंद्र सरकार सभी पक्षों से बातचीत शुरू करेगी। बातचीत की शुरुआत सिविल सोसायटी समूहों और छात्र नेताओं से की जा सकती है। अंत में अलगाववादियों से भी बात हो।
3. बातचीत का रास्ता साफ करने के लिए वार्ताकारों की नियुक्ति की जाए।
4. सेना और अर्ध-सैनिक बलों की तैनाती घटाई जाए और घाटी में कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी जम्मू-कश्मीर पुलिस को सौंपी जाए।
5. पाकिस्तान से लगी सरहद की हर हाल में रक्षा हो, सीमा पर घुसपैठियों के खिलाफ निरोधक कार्रवाई की जाए, लेकिन घाटी में ‘आतंकवादी-निरोधक कारवाई' फिलहाल रोक दी जाए।
अगर सख्त बयानों तथा और भी कड़ी कार्रवाई की मौजूदा दवा जम्मू-कश्मीर में काम नहीं कर पा रही है, तो क्या यह वक्त का तकाजा नहीं है कि एक वैकल्पिक उपचार को आजमाया जाए?


http://www.jansatta.com/blog/dusri-nazar-blog-about-kashmir-issue/300463/


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