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न्यूज क्लिपिंग्स् | चुनाव चर्चा से नदारद पुलिस सुधार- विभूति नारायण राय

चुनाव चर्चा से नदारद पुलिस सुधार- विभूति नारायण राय

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published Published on Apr 12, 2019   modified Modified on Apr 12, 2019
आगामी आम चुनाव को लेकर सभी प्रमुख दलों ने अपने-अपने घोषणापत्र जारी कर दिए हैं और इन सभी में एक समान अनुपस्थिति आपका ध्यान आकर्षित कर सकती है। किसी भी दल ने पुलिस सुधारों पर एक भी पंक्ति लिखने की जरूरत नहीं समझी। पहले की ही तरह इस बार भी किसी को यह जरूरी नहीं लगा कि जिस संस्था से जनता का रोजमर्रा की जिंदगी में सबसे ज्यादा वास्ता पड़ता है और जिसके बारे में कम ही लोगों के मन में अच्छे विचार होंगे, उसमें किसी तरह के बुनियादी बदलावों का वादा जनता से किया जाए। वैसे तो घोषणापत्र चुनावों के बाद रद्दी के टुकड़ों में तब्दील हो जाते हैं, पर कम से कम उनमें दर्ज होने के बाद कुछ कार्यक्रम राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा जरूर बन जाते हैं। पुलिस में सुधारों को वे इस लायक भी नहीं समझते कि अपने घोषणापत्र में शरीक ही कर लें।

जिस संस्था से एक नागरिक का सबसे अधिक वास्ता पड़ता है, वह पुलिस ही है। जीवन की हर गतिविधि को किसी न किसी रूप में यह प्रभावित करती है। कई बार तो राज्य के लोकतांत्रिक या फासिस्ट होने का प्रमाण भी उसकी पुलिस के आचरण में निहित होता है। विदेशी सैलानी भी आपके राष्ट्र के बारे में जो राय बनाते हैं, उसे तय करने में काफी हद तक पुलिस का प्रदर्शन जिम्मेदार होता है। फिर क्यों किसी भी राजनीतिक दल ने अपने चुनावी वादों में पुलिस सुधारों की बात नहीं की? कहीं ऐसा तो नहीं कि उन्हें लगता है कि जनता के लिए पुलिस के चरित्र में बुनियादी बदलाव का कोई मतलब ही नहीं है?

नक्सलबाड़ी के सशस्त्र संघर्ष के बाद 1970 के दशक से सरकारी हल्कों में पुलिस आधुनिकीकरण नाम से एक कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय रहा है। आमतौर पर पुलिस आधुनिकीकरण का मतलब होता है पुलिस को हथियार, परिवहन या संचार की बेहतर सुविधाएं देना, उनके लिए अधिक आवासीय परिसर खड़े करना या अनुसंधान के लिए वैज्ञानिक संसाधन निर्मित कर देना। इन कार्यक्रमों में शायद ही कभी पुलिस के बुनियादी चरित्र या व्यवहार में ऐसे परिवर्तनों की बात सोची गई, जो उसके एक लोकतांत्रिक समाज की पुलिस बनने में सहायक हों।

इसमें कोई शक नहीं कि भारत में पुलिस संसाधनों और आबादी के आनुपातिक संख्या बल में दुनिया के तमाम विकसित और विकासशील देशों की तुलना में बहुत पीछे है। पर क्या यही उसकी समस्या है और क्या बेहतर हथियार, संचार और परिवहन उसे एक दक्ष व पेशेवर संस्था में तब्दील कर सकते हैं? भारतीय पुलिस को नेतृत्व प्रदान करने वाली सेवा आईपीएस का तीन दशकों से अधिक सदस्य रहने के बाद कम से कम मैं तो यह नहीं कह सकता। मेरा अनुभव कहता है कि बिना बुनियादी चारित्रिक परिवर्तन किए संसाधनों में बेतहाशा वृद्धि पुलिस को अधिक अलोकतांत्रिक ही बनाएगी।

एक आधुनिक संस्था के रूप में भारतीय पुलिस का जन्म 1860 के दशक में बने औपनिवेशिक कानूनों के आधार पर हुआ था। यह सही है कि पहली बार वर्ण-व्यवस्था के कठोर शिकंजे से मुक्त एक ऐसी संस्था का निर्माण हो रहा था, जिसमें सिद्धांत के तौर पर ही सही, कोई भी व्यक्ति सिर्फ योग्यता के बल पर शामिल हो सकता था। पर यह भारत का यथार्थ नहीं था, जात-पात में बंटे भारतीय समाज में नागरिकों की सारी गतिविधियां- शिक्षा, व्यापार, संपत्ति या शासकीय सेवाएं, सब कुछ जन्म की जाति से निर्धारित होता था। अंग्रेज इसे पूरी तरह से नकार नहीं पाए, खासतौर से इसलिए भी कि सिर्फ तीन साल पहले 1857 में धार्मिक विश्वासों में दखल देने की कीमत वे एक बड़े विद्रोह के रूप में अदा कर चुके थे। उन्होंने शासकों की जरूरत के अनुरूप पुलिस बनाई, जिसका एकमात्र मकसद औपनिवेशिक शासन की रक्षा करना और उसके खिलाफ उठने वाले जन-उभारों को कुचलना था। अपने इस कर्तव्य को लगभग एक शताब्दी तक भारतीय पुलिस ने बखूबी निभाया भी। नुकसान सिर्फ यह हुआ कि शासकों को खुश रखने के चक्कर में उसकी आदतें और छवि एक ऐसे संगठन की बन गई, जो कानून-कायदे को अपने ठेंगे पर रखती रही है, जिन नागरिकों की सेवा के लिए उसे खड़ा किया गया, उनके मानवाधिकार उसके लिए कोई मायने नहीं रखते और
जो कानून की नहीं, शासक वर्गों की सेवा करने में सदा उत्सुक रहती है।

पुलिस सुधारों का कोई भी मकसद उसकी इस छवि में बदलाव होना चाहिए और यह तभी होगा, जब हम उसे संविधान और कानून का सम्मान करने वाली संस्था में तब्दील कर सकेंगे। आजादी के फौरन बाद यह किया जा सकता था। जो लोग शासन के लिए चुने गए, वे सभी पुलिस की ज्यादतियों के शिकार रह चुके थे, पर हमने वह मौका खो दिया। पुलिस को जब कभी आधुनिक बनाने की बात की गई, विमर्श के केंद्र में उसके भौतिक उपकरण ही रहे। शायद ही कभी उन बुनियादी परिवर्तनों के बारे में गंभीरता से सोचा गया, जो उसे एक लोकतांत्रिक समाज के अनुकूल और जनता की मित्र छवि वाली संस्था बना सके। पुलिस को बेहतर बनाने के उद्देश्य से बने बहुत से आयोगों और कमेटियों की रिपोर्टें सचिवालयों में धूल खा रही हैं। सबसे तकलीफदेह उदाहरण तो धर्मवीर आयोग का है, जो आपातकाल की समाप्ति के बाद बना था और जिसने बड़े विस्तार से पुलिस से जुड़े पेशेवर सवालों पर गौर किया था। 1902 के पुलिस कमीशन के बाद यह पहला आयोग था, जिसने पुलिस तंत्र में आमूल-चूल बदलावों की परिकल्पना की थी। फर्क भी बड़ा सामयिक था- जहां 1902 के कमीशन की चिंता ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा थी, वहीं आपातकाल के दौरान पुलिस-दुरुपयोगों की पृष्ठभूमि में गठित धर्मवीर आयोग ने मुख्य ध्यान पुलिस के राजनीतिक दुरुपयोगों को रोकने और उसे जनता का मित्र तथा पेशेवर बनाने पर था। दुर्भाग्य से किसी भी दल के लिए इसकी सिफारिशें ऐसी नहीं थीं कि वे कुछ देर ठहरकर इसके बारे में सोचते। उन्हें भी दोषी अकेले नहीं माना जा सकता, उनके मतदाता ने ही कब उन्हें यह एहसास दिलाया है कि उसके जीवन के लिए महत्वपूर्ण पुलिस में बुनियादी सुधार होने चाहिए। वक्त-बेवक्त किसी पुलिस ज्यादती के खिलाफ सड़क पर उतरने के अलावा उसने भी तो कोई ऐसा आंदोलन नहीं खड़ा किया, जो राजनीतिक दलों को सोचने पर मजबूर कर दे कि जनता कानूनों का सम्मान करने वाली मित्र पुलिस चाहती है। ऐसा आंदोलन ही राजनीतिक दलों को पुलिस सुधारों पर सोचने को मजबूर करेगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-opinion-hindustan-column-on-9-april-2481303.html


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