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न्यूज क्लिपिंग्स् | छत्तीसगढ़ में एसपीओ और सुप्रीम कोर्ट - कनक तिवारी

छत्तीसगढ़ में एसपीओ और सुप्रीम कोर्ट - कनक तिवारी

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published Published on Jul 14, 2011   modified Modified on Jul 14, 2011

जुलाई 2011 को सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति सेवानिवृत्त होते बी. सुदर्शन रेड्डी और सुरेन्दर सिंह निज्जर की पीठ ने ऐतिहासिक फैसला देते हुए छत्तीसगढ़ शासन के उन आदेशों को निरस्त कर दिया है, जिनके अनुसार बस्तर में नक्सलियों से निपटने के लिए विशेष पुलिस कर्मी (एसपीओ) को भरती कर मजबूर, गरीब और लगभग अशिक्षित आदिवासी युवकों के हाथों में कथित आत्मसुरक्षा के नाम पर बंदूकें थमा दी गई थीं. प्रोफेसर नंदिनी सुंदर, प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा और भारत शासन के पूर्व सचिव ई. ए. एस. शर्मा वगैरह द्वारा दायर याचिका पर आदेश करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत, वैचारिक और भविष्यमूलक टिप्पणियां की हैं. कोर्ट ने छत्तीसगढ़ और केन्द्र शासन के शपथ पत्रों की जमकर खिंचाई की है और उन्हें बार बार अविश्वसनीय, गलत और गैरज़िम्मेदार ठहराया है.

इस निर्णय के लगभग तिहाई भाग में उन ऐतिहासिक, सामाजिक और दार्शनिक कारणों का अनुशीलन और विवेचन किया गया है जिनके कारण भारत में नक्सलवाद तेजी से पनप रहा है. न्यायाधीशों की गहरी समझ समर्थन मांगती है. वे अपने विषद ज्ञान और तार्किकता को ताज़ा जानकारियों, सूचनाओं और अध्ययन से सम्पृक्त करते हैं. यदि फैसले पर पुनर्विचार नहीं हुआ अथवा संसद ने कोई विधायन नहीं किया तो यह फैसला केन्द्र और राज्य के उन हुक्मरानों के गले की हड्डी बनेगा, जो नक्सली हिंसा के मुकाबले राज्य की प्रतिहिंसा के पक्षधर बने हुए हैं.

80 कंडिकाओं के फैसले में संविधान, साहित्य, दर्शन, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और मानव अधिकार आदि की दृष्टि से मामले को वैचारिक गंभीरता से समझने की कोशिश की गई है. उसका अभाव नक्सलवाद से निपट रही सरकारी फाइलों में शायद दर्ज नहीं होगा. विशेषज्ञ टिप्पणियों के बाद छत्तीसगढ़ की बस्तरिहा नक्सली स्थिति पर सुप्रीम कोर्ट ने विचार कर भयानक अमानवीय स्थितियों को उकेरा है.

चार वर्षों से सुप्रीम कोर्ट बस्तर-याचिकाओं के सहारे राज्य और केन्द्र से जानकारियां, दस्तावेज, शपथ पत्र मांगता रहा है. उसने समय समय पर राज्य को निर्देश दिए और सवाल भी पूछे हैं. उपरोक्त फैसला यकबयक नहीं हुआ है. बार बार शपथ पत्र पेश करने वाली सरकारों को इस निर्णय का पूर्वाभास भी रहा होगा. लेकिन तब तक पानी सिर पर से गुजर चुका था.

सुप्रीम कोर्ट ने बस्तर में मानवाधिकारों के हनन की शिकायत पर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को भी जांच दल बनाकर संस्तुतियों के साथ रपट देने कहा था. 25. 08. 2008 को रपट दे भी दी गई. उस पर अदालत ने राज्य सरकार को अमल करने को भी कहा. सरकार को यह भी निर्देश था कि वह मानव वध के प्रत्येक प्रकरण में पुलिसिया प्राथमिकी दर्ज कर मजिस्ट्रेट से जांच जरूर कराए और प्रतिवेदन पेश करे. 18 फरवरी 2010 को ही सुप्रीम कोर्ट ने लगभग 3000 एसपीओ की भर्ती की जानकारी मिलने पर राज्य सरकार से ऐतराज जताया था. सुप्रीम कोर्ट ने तीन चुभते हुए सवाल पूछे थेः

1. स्कूलों और छात्रावासों में सुरक्षा बलों के ठहरने के कारण और प्रभाव क्या हैं?
2. एसपीओ अर्थात कोया कमांडो की भर्ती, ट्रेनिंग और उन्हें हथियारों से लैस करने की क्या स्थितियां हैं?
3. स्वामी अग्निवेश द्वारा मोरपल्ली, ताड़मेटला और तिम्मापुरम गांव में लगभग 300 घरों को जलाने, महिलाओं के साथ बलात्कार करने और 3 व्यक्तियों की मार्च 2011 में हत्या को लेकर सरकार को क्या कहना है? साथ ही स्वामी अग्निवेश और उनके साथियों पर सलवा जुडूम के सदस्यों द्वारा कथित हमलों के आरोप को लेकर सरकार का क्या रुख है?

शुरुआत में ही सरकार द्वारा स्कूलों और छात्रावासों में सुरक्षा बलों के नहीं ठहरने संबंधी शपथपूर्ण बयान को सुप्रीम कोर्ट ने अपनी छानबीन में गलत पाया. अदालत ने हिदायतें देना जारी रखा. उसे अब भी भरोसा नहीं है कि उसके आदेशों का पालन हो गया है.

सुप्रीम कोर्ट ने यह तल्ख टिप्पणी भी की ‘‘जिस तरह छत्तीसगढ़ सरकार ने इस मुकदमे के सिलसिले में अपना आचरण किया है उस पर हमें गहरा एतराज़ है.‘‘ सरकार ने इसलिए नया शपथ पत्र पेश करके सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करने के लिए अतिरिक्त समय भी मांगा.

उसमें सरकार ने जानकारी पेश की कि 2004 से 2008 के दरम्यान नक्सलियों ने 2298 छोटे बड़े हमले किए. इनमें 538 पुलिस तथा अर्धसैनिक बलों के जवान, 169 एसपीओ, 32 अन्य शासकीय कर्मचारी और 1064 ग्रामीण मारे गए. इनमें एक साथ 76 सुरक्षा बल के सदस्यों के मारे जाने की घटना शामिल है. सरकार ने स्वामी अग्निवेश के आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि सलवा जुडूम कार्यरत नहीं है.

सरकार ने यह भी सूचित किया कि 28. 03. 2011 की स्थिति में 6500 एसपीओ कार्यरत हैं. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कटाक्ष किया कि एक वर्ष पहले सरकार के शपथ पत्र में केवल 3000 एसपीओ के कार्यरत रहने का उल्लेख था. अर्थात पिछले एक वर्ष में संख्या दो गुने से ज़्यादा हो गई. अदालत ने एसपीओ की भर्ती को लेकर पांच सवाल किएः-

1. शैक्षणिक एवं अन्य योग्यताएं क्या होंगी?
2. ट्रेनिंग के क्या आयाम हैं, और विशेष कर हथियार देने को लेकर?
3. एसपीओ के कार्यों और गतिविधियों पर सरकार का नियंत्रण कितना और कैसा होगा?
4. कार्यरत रहते हुए एसपीओ के मरने अथवा गंभीर रूप से जख्मी होने को लेकर उनके तथा परिवारों की देखभाल को लेकर क्या सोच है?
5. नौकरी छोड़ देने पर एसपीओ से हथियार वापस लेने और उनकी सुरक्षा को लेकर क्या प्रबंध हो सकते हैं?
इस संबंध में सरकार ने मौखिक बहस खत्म होने के बाद 03. 05. 2011 को अतिरिक्त शपथ पत्र तथा 11. 03. 2011 और 16. 05. 2011 को लिखित तर्क भी पेश किए.

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के शपथ पत्रों का सार संक्षेप समझते हुए यह पाया कि एसपीओ की अधिकतम संख्या का निर्धारण केन्द्र शासन को करना होता है क्योंकि उसे ही मानदेय का बड़ा हिस्सा वहन करना होता है. एसपीओ की भर्ती छत्तीसगढ़ पुलिस अधिनियम, 2007 की धारा 9 (1) के तहत की जाती है तथा धारा 9 (2) के तहत नियमित पुलिस बल की तरह सुविधाओं, अधिकारों और कर्तव्यों के पालन का उल्लेख है. सेवा शर्तों पर जिला पुलिस अधीक्षक का पूरा नियंत्रण होता है. उनकी सेवाएं कभी भी बिना कारण बताए समाप्त की जा सकती हैं. एसपीओ को सहायक बल तथा पुलिस बल का ‘मल्टीप्लायर‘ भी माना गया. इनकी नियुक्तियों की सिफारिश वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता वाले प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी की है. एसपीओ की भर्ती का एक बड़ा कारण नियमित पुलिस बल की कमी है.

राज्य सरकार ने 2007 में तीन सदस्यीय अध्ययन समिति का गठन किया था. उसने पाया था कि राज्य में नक्सलियों से निपटने के लिए कम से कम 70 पुलिस बटालियनों की ज़रूरत होगी. केन्द्रीय सुरक्षा बलों की 24 बटालियनों तथा राज्य की कुल 16 पुलिस बटालियनों की उपलब्धता के बावजूद 30 बटालियनों की कमी है. इसलिए राज्य ने एसपीओ की भर्ती को ज़रूरी समझा जिनमें 18 वर्ष से अधिक आयु के उन युवकों को तरजीह दी जाती है जो कम से कम पांचवीं कक्षा तक पढ़ाई कर चुके हों.

छत्तीसगढ़ शासन ने अपने शपथ पत्रों में दिलचस्प बयान भी किए. सुप्रीम कोर्ट को यह बताया गया कि दो महीने की ट्रेनिंग में एसपीओ को 24 पीरियड में हथियारों के परिचालन तथा रखरखाव, प्राथमिक चिकित्सा, ड्रिल और कसरत, योगाभ्यास और कानून अर्थात भारतीय दंड संहिता, अपराध प्रक्रिया संहिता, साक्ष्य अधिनियम आदि की पढ़ाई भी की जाती है. 12 पीरियड में मानव अधिकार और भारतीय संविधान का ज्ञान दिया जाता है. 6 पीरियड में वैज्ञानिक और फोरेंसिक विज्ञान की जानकारी दी जाती है. सामुदायिक पुलिस व्यवस्था की जानकारी के लिए 6 पीरियड मुकर्रर हैं. बस्तर की संस्कृति और रीति रिवाजों के लिए 9 पीरियड लिए जाते हैं. प्रत्येक पीरियड एक घंटे का होता है. इसके बाद उनकी नियुक्तियां की जाती हैं.

राज्य के पहले शपथ पत्र के अनुसार केवल 3000 तथा दूसरे शपथ पत्र के अनुसार 6500 कार्यरत एसपीओ में से 173 शहीद हो गए. क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि एसपीओ की ज़्यादा अनुपात में मृत्यु हुई है.


गैर हाजिरी तथा अनुशासनहीनता के कारण 1200 एसपीओ को निकाला भी जा चुका है. 22 एसपीओ के खिलाफ अपराधिक मुकदमे दर्ज किए गए हैं. 2005 से अप्रेल 2011 तक 173 एसपीओ शहीद हुए हैं. एसपीओ को घने जंगलों के रास्तों तथा नक्सलियों की व्यूह रचना आदि के बारे में भी स्थानीय संपर्कों से सूचनाएं मिल जाती हैं. इससे नियमित पुलिस बल को बहुत सहायता होती है. 700 एसपीओ को सफल ट्रेनिंग के बाद नियमित पुलिस बल में भर्ती भी कर लिया गया है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के बाद 06. 05. 2011 को राज्य ने विशेष पुलिस बल (नियुक्ति, ट्रेनिंग तथा सेवा शर्तों) विनियम प्रक्रिया 2011 को अधिसूचित किया है.

उपरोक्त जानकारियों, तर्कों और सरकारी दावों पर सुप्रीम कोर्ट ने लगभग पूरी तौर पर असहमति, अविश्वास और विरोध जाहिर किया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि एसपीओ के ऊपर नियमित पुलिस बल के सभी उत्तरदायित्वों का भार है तो उन्हें 3000 रुपए मासिक मानदेय की मामूली राशि क्यों दी जा रही है. यह तो संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 का सीधा उल्लंघन है, जिनमें बराबरी और जीवन की गरिमा की गारंटियां दी गई हैं.

अदालत ने केन्द्र शासन के हलफनामे की भी लगभग खिल्ली उड़ाई. उसमें कहा गया था कि नक्सलवादी भी तो ग्रामीणों को अपने सहायक सुरक्षा बल बनाकर रखते हैं जिसे ‘जन मिलीशिया‘ कहा जाता है. केन्द्र शासन ने यह कहा कि देश में लगभग 70 हजार एसपीओ कार्यरत हैं. उन्हें नियमित बलों की संख्या का वृद्धिकारक समझा जाना चाहिए.

सुप्रीम कोर्ट ने आश्चर्य व्यक्त किया कि बस्तर में पदस्थ लगभग 45 हज़ार सुरक्षा कर्मियों में से 538 जवान शहीद हुए. राज्य के पहले शपथ पत्र के अनुसार केवल 3000 तथा दूसरे शपथ पत्र के अनुसार 6500 कार्यरत एसपीओ में से 173 शहीद हो गए. क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि एसपीओ की ज़्यादा अनुपात में मृत्यु हुई है. वे या तो ज़्यादा खतरनाक परिस्थितियों में जूझ रहे हैं अथवा उनकी ट्रेनिंग अपूर्ण और अपरिपक्व है.

अदालत ने पाया कि केन्द्र शासन भारतीय संविधान के अनुच्छेद 355 के अनुसार राज्यों में आंतरिक खतरों को नियंत्रित करने की अपनी जवाबदारियों से बचते हुए गोल मटोल उत्तर दे रहा है.

सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ पुलिस अधिनियम 2007 में जिम्मेदारी संबंधी धारा 23 (1) में पाया कि कानून व्यवस्था बनाने, लोकजीवन, नागरिक आज़ादी, संपत्ति अधिकारों और गरिमा की रक्षा करने, अपराधों और पब्लिक न्यूसेंस को रोकने, आंतरिक सुरक्षा बनाए रखने, आतंकवादी गतिविधियों को रोकने तथा नियंत्रित करने, अपराधियों की धरपकड़ और गिरफ्तारी करने, आपदा परिस्थितियों में लोगों की मदद करने, यातायात नियंत्रण करने, गोपनीय सूचनाएं एकत्रित करने, लोकसेवकों की सुरक्षा करने वगैरह की जिम्मेदारियों का पहाड़ एसपीओ के कंधों पर डाल दिया गया है.

इनमें से अधिकांश का पालन करना बस्तर के लगभग अपढ़, मासूम, सीधे सादे युवकों के लिए आधुनिक जीवन की संलिष्टताओं और नक्सलियों के हमलों की अधुनातन तक्नालॉजी से निपटना कैसे संभव होगा. इन्हें तो मानो शेर के पिंजड़े में बलि चढ़ाने के लिए छोड़ दिया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने इसलिए रेखांकित किया कि सरकारी दावों पर भरोसा करना उसके लिए मुमकिन नहीं है. यह मानना भी संभव नहीं है कि नवयुवक स्वेच्छा से एसपीओ बनना चाहते हैं. अदालत के अनुसार बस्तर में इतनी जटिल समाजशास्त्रीय स्थितियां हैं कि उन्हें समझना बेहद मुश्किल है. ऐसे में आदिवासी नवयुवक विचार कर स्वस्थ निर्णय लेने के लिए कैसे समर्थ समझे जा सकते हैं.

राज्य ने यह तर्क भी किया था कि बहुत से नवयुवक उन परिवारों से हैं, जिनके किसी सदस्य की हत्या नक्सलियों ने कर दी है. ये नवयुवक अवांछित हिंसा के खिलाफ कारगर सामाजिक भूमिका का निर्वाह करना चाहते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कटाक्ष किया कि राज्य प्रतिहिंसा और बदले की सामाजिक थ्योरी का प्रचार कर रहा है. भारत के संविधान में राज्य को सीधे निर्देश दिए गए हैं कि वह एक एकीकृत, बन्धुत्वपूर्ण और संवेदनशील समाज की रचना करेगा. यदि बस्तर के पीड़ित परिवारों के सदस्य एसपीओ बनकर हथियार उठाते रहेंगे तो इस जंजाल से आदिवासी समाज कभी मुक्त नहीं होगा. यह भूमिका अथवा विचार ही खारिज कर देने योग्य है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कुछ भटके हुए नीति निर्माता अमानवीयकृत संवेदनाओं से युक्त पीड़ित युवकों को माओवादियों के खिलाफ युद्ध में झोंकने की तिरस्कारयोग्य थ्योरी का प्रचार कर रहे हैं. उसे देश का उच्चतम न्यायालय कभी अनुमोदन नहीं करेगा. अदालत ने राज्य को यह आत्मविश्लेषण करने की हिदायत भी दी कि वह देखे कि उसने किस तरह राज्य की सभी सेवा संस्थाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य, संस्कृति, उद्योग वगैरह के इलाकों में तहस नहस कर निजीकरण के सामने घुटने टेक दिए हैं. मुख्यतः इस कारण ही तो नक्सलवाद फल फूल रहा है. मनुष्य के जीवन की कीमत यदि 3000 रुपए का मासिक मानदेय है और उसके बावज़ूद उसे कभी भी नौकरी से निकाला जा सकता है-तो ऐसे युवा एसपीओ को असुरक्षित बनाकर जोखिम में क्यों डाला जा रहा है?

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकारें यह मान रही हैं कि नक्सलवाद 1980 के दशक से लगातार सघन और चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है. ऐसे में एसपीओ को हर तरह से कच्ची नौकरी पर भी रखने का क्या तुक है? क्या यह उनकी मानवीय गरिमा के क्षरण का सीधा प्रमाण नहीं है?

एसपीओ की सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी भी राज्य पर डाली गई है. तथाकथित कोया कमांडो या सलवा जुडूम के कार्यकर्ताओं द्वारा किसी भी रूप में कानून के अपने हाथों में लेने को भी सुप्रीम कोर्ट ने निषेधित कर दिया है.

अदालत ने संतोषजनक उत्तर नहीं पाया कि सेवा समाप्ति के बाद यदि एसपीओ ने हथियार लौटाने से इंकार कर दिया तब क्या होगा. उनके पास हथियारों के बेजा इस्तेमाल का अधिकार भले न रहे, हथियार तो रहेंगे.

अदालत ने माना कि नक्सलवाद से निपटने के लिए राज्य को बहुत कठिनाइयां महसूस हो रही हैं. फिर भी यह कार्यपालिका की मूल जिम्मेदारी है कि वह सभी नागरिकों को सुरक्षाएं मुहैया कराए. स्थितियों की विपरीतता या कठिनाई संविधान न्यायालयों को उनके कर्तव्यों से डिगा नहीं सकती. यह न्यायालय की जिम्मेदारी है कि वह देखे कि संविधान की मान्यताओं, सिद्धांतों, व्यवस्थाओं और संभावनाओं की राज्य द्वारा हेठी तो नहीं हो रही है. एसपीओ की मदद से यदि सुरक्षा बलों को मजबूती मिलती है, तब भी उसे संविधानिक अनुमतियों का मानदंड नहीं बनाया जा सकता.

अदालत ने कड़े शब्दों में कहा कि एसपीओ द्वारा छत्तीसगढ़ में माओवाद या नक्सलवाद से निपटने में कारगर होने के सरकारी दावों को यदि पूरी तौर पर खारिज नहीं किया जा रहा है, तब भी वे विश्वसनीय नहीं हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने एसपीओ की गतिविधियों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने का राज्य शासन को आदेश दिया है. ऐसे प्रयोजनों के लिए केन्द्र सरकार द्वारा वित्तीय मदद देने की भी मनाही कर दी है. अदालत ने राज्य सरकार को निर्देशित किया है कि वह तत्काल प्रभाव से सभी एसपीओ से हथियार वापस ले. एसपीओ की सुरक्षा की पूरी जिम्मेदारी भी राज्य पर डाली गई है. तथाकथित कोया कमांडो या सलवा जुडूम के कार्यकर्ताओं द्वारा किसी भी रूप में कानून के अपने हाथों में लेने को भी सुप्रीम कोर्ट ने निषेधित कर दिया है. ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ पुलिस में दर्ज प्राथमिकी के आधार पर त्वरित अदालती कार्यवाही के निर्देश भी दिए गए हैं. कोर्ट ने अलबत्ता यह कहा है कि यदि सरकार चाहे तो एसपीओ से यातायात नियंत्रण और गोपनीय सूचनाएं एकत्रित करने के काम लेना जारी रख सकती है.

उसने स्वामी अग्निवेश और उनके साथियों पर हुए हमले की शिकायतों के अतिरिक्त मोरपल्ली, ताड़मेटला और तिम्मापुरम गांव में आगजनी और हिंसा की घटनाओं की जांच करने के लिए सीधे सी. बी. आई. को अधिकृत कर दिया है. उसे छह सप्ताह में अपनी प्रारम्भिक जांच रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत करनी होगी. यह बस्तरिहा हिंसा पुराण अभी खत्म नहीं हुआ है. न्यायालय उसे सितंबर माह में फिर सुनेगा. सरकारों के पास भी विकल्प उपलब्ध हैं. सुप्रीम कोर्ट में या तो पुनरीक्षण याचिका दायर हो या किन्हीं स्थितियों में बड़ी पीठों में मामले ले जाए जाने के प्रावधान भी होते हैं. संसद भी असुविधाजनक निर्णयों से निपटने के लिए नए विधायन करने के पूर्वादाहरणों से परिचित तो है ही.


http://raviwar.com/news/565_salwa-judum-spo-and-chhattisgarh-kanak-tiwari.shtml


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