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न्यूज क्लिपिंग्स् | छद्म नायकों के इस दौर में-- अनुपम त्रिवेदी

छद्म नायकों के इस दौर में-- अनुपम त्रिवेदी

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published Published on Mar 17, 2016   modified Modified on Mar 17, 2016
विगत दिनों दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई घटना ने न केवल एक बड़ी बहस को जन्म दिया, बल्कि कुछ छद्म नायकों का भी सृजन किया. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में देश-विरोध और विभाजन के स्वर उठे. बहस बजाय इस पर होने के कि ऐसी आवाजें क्यों उठीं और इनके पीछे क्या मंतव्य है, बहस का दायरा दोषी कौन है और कौन नहीं पर सिमट गया.

जिस आजादी को पाने में हमें सदियां लग गयीं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुलामी को मजबूर इस देश ने जिसे बड़े लंबे संघर्ष के बाद पाया, उस आजादी को सरेआम शर्मसार किया गया. पर देश को झकझोरनेवाली इस घटना को एक वर्ग द्वारा सरकार बनाम ‘कुछ बेचारे छात्र' का रूप दे दिया गया. नतीजतन देश को गाली देने और उसके टुकड़े होने की कामना करनेवाले रातोंरात नायक बन गये.

लगभग 30 वर्ष के ‘छात्र' कन्हैया कुमार- जिसके दोषी होने या न होने का निर्णय अभी बाकी है- को तथाकथित ‘प्रगतिशील' छात्र संघर्ष का अगुआ घोषित कर दिया गया. अवसरवादी राजनीति कैसे पीछे रहती. एक पार्टी ने उसे बंगाल में होनेवाले चुनावों में स्टार प्रचारक बना दिया, तो दूसरी पार्टी ने उसे आसाम में अपने पोस्टरों का प्रमुख चेहरा बना दिया. वहीं जेल से छूटने पर चार दिन के इस नायक ने बड़े ठसके से कहा- ‘बदनाम हुए तो क्या, नाम तो हुआ'. इस कथन ने बदनामी में नाम ढूंढ़ते हमारे समाज के नंगे सच को उजागर कर दिया है.

दरअसल, यह छद्म नायकों का दौर है. असल नायक विलुप्त हो गये हैं और उनकी जगह ले ली है सतही, लंपट, अज्ञानी, लोभी और अवसरवादी नायकों या नेताओं ने, जिनकी एक पूरी-की-पूरी जमात देश और समाज के हर हिस्से में अपनी पैठ बना चुकी है. इन्होंने नेतागीरी को एक व्यवसाय बना लिया है, एक ऐसा सफेदपोश व्यवसाय, जिसके लिए किसी औपचारिक योग्यता की आवशयकता नहीं होती. आज हर गली-मोहल्ले में ये नेता हमें बड़ी-बड़ी होर्डिंगों से होली-ईद-दिवाली की बधाई थोपते नजर आते हैं या हाइवे पर झंडा लगी गाड़ियों में कर्कश हूटर बजाते हुए आगे निकल कर अपने नेता होने का एहसास दिलाते हैं. इनके लिए ‘आगे बढ़ कर नेतृत्व करने' का मतलब शायद यही है!

नेता शब्द अब अपनी अर्थवत्ता खो चुका है. नेता शब्द का मूल अर्थ था- वह नायक जो किसी समूह या वर्ग को राह दिखाये, उसकी रहनुमाई व अगुवायी करे. नेता शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की ‘नी' धातु से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘ले जाना'. इसका निहितार्थ है कि नेता वह है जो ‘ले चलनेवाला' या ‘आगे बढ़ानेवाला है'. इस प्रकार नेता पर किसी समूह, समाज और देश के संचालन और उसे उसके अभीष्ट तक ले जाने का दायित्व होता है.

हमारे पुराने ग्रंथों में से एक, भरत मुनि रचित नाट्यशास्त्र में नायक की परिभाषा दी हुई है, जिसमें नायक को धीरोद्दात कहा गया है, अर्थात् नेता वह है जो योग्य, गंभीर, अभिमान-शून्य, स्थिर, ज्ञानी, विनयशील एवं दृढ़-निश्चयी हो.

हमारे देश में ऐसे अनेक महापुरुष हुए हैं, जो नायक की ऐसी परिभाषा की कसौटी पर खरे उतरे हैं. हमारा पूरा स्वातंत्र्य इतिहास ऐसे नेताओं से भरा हुआ है, जिन्होंने अपनी, विचारधारा, दर्शन व उत्तम गुणों से समाज को प्रभावित किया है. यह वह दौर था, जब देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की प्रवृत्ति विकसित हुई थी. लोगों की सोच थी कि सब कुछ देश के लिए है. आज स्थिति इसके ठीक उलटी है. आज के लोग सब कुछ पाना चाहते हैं, चाहे वह देश की कीमत पर ही क्यों न हो.

स्वतंत्रता मिलते ही वैचारिक, स्वच्छ, मूल्य-आधारित राजनीति जैसे कहीं अदृश्य हो गयी. चारों ओर धन, पद और प्रतिष्ठा की होड़ ऐसी बढ़ी कि सारी नैतिकता, नियम और मूल्य धरे रह गये. आजादी के बाद के नेताओं ने पहले के नेतृत्व के किये गये त्याग को जैसे ब्याज सहित वसूलना प्रारंभ कर दिया.

आज राजनीति के मानक बदल चुके हैं. पहले राजनीति समाज सेवा के लिए एक साधन थी, लेकिन अब यह अपनी इच्छाओं और स्वार्थ-पूर्ती का साधन-मात्र बन कर रह गयी है. लोकहित की भावना समाप्त हो गयी है. ऊपर से काबिलियत के मायने बदल गये हैं. उच्छ‍ृंखलता, उद्दंडता और दबंगई गुण बन गये हैं. चापूलसी, भाई-भतीजावाद सफलता की सीढ़ी बन गये हैं. हमेशा व्यस्त दिखनेवाले नेताओं के पास अध्ययन और स्वाध्याय का समय नहीं बचा है. ‘ज्ञानियों' की भरमार है, जो संसार के किसी भी विषय पर टिपण्णी करने या ज्ञान बांटने से गुरेज नहीं करते. कोई राजनीतिक दल इस बीमारी से अछूता नहीं है. हमाम में सब नंगे हैं.
अब नेता शब्द का अर्थ जबरदस्ती खुद को समूह पर थोपनेवाला, दबंग, बाहुबली आदि हो गया है. नेतागीरी गुंडागर्दी का पर्याय बन गयी है. उस पर भी विडंबना यह है कि समाज में अपनी स्वीकार्यता बनने के लिए लोग पहले खुद को ‘नेता जी' कहलवाते हैं और फिर नायक बनने की चाह पालने लग जाते हैं.

1957 में प्रसिद्ध लेखिका मन्नू भंडारी की एक कहानी प्रकाशित हुई थी- ‘मैं हार गयी'. यह कहानी स्वातंत्र्योत्तर भारत के राजनेताओं के चरित्र को आधार बना कर लिखी गयी थी. कहानी में एक कवि अपने बेटे का भविष्य जानने के लिए उसके कमरे में तीन चीजें रखता है- एक अभिनेत्री का चित्र, एक शराब की बोतल और एक धार्मिक पुस्तक. बेटा आता है, अभिनेत्री के चित्र को सराहता है, शराब के कुछ घूंट पीता है और फिर गंभीर मुद्रा में धार्मिक पुस्तक को बगल में दबा कर निकल जाता है. अपने बेटे के इस दोहरेपन को देख कर कवि घोषणा करता है, ‘यह नेता बनेगा'!

आज यह कहानी भले ही 60 वर्ष पुरानी हो, पर कथानक अभी भी वही है. अब सिर्फ किताब बदलती है- जो कभी गीता होती है, तो कभी कुरान और कभी मार्क्स की लिखी ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र', पर हमारे नायकों का चरित्र नहीं. आश्चर्य नहीं कि अब सिर्फ छद्म नायकों का दौर है.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/740357.html


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