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न्यूज क्लिपिंग्स् | जड़ों से उखड़ते लोग-- डा. सैय्यद मोबीन जेहरा

जड़ों से उखड़ते लोग-- डा. सैय्यद मोबीन जेहरा

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published Published on Jun 23, 2017   modified Modified on Jun 23, 2017
कहते हैं कि सब कुछ टूट जाये तो कुछ नहीं होता, लेकिन अगर आपके सपने टूट गये, तो आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता है. इसलिए सपने देखना बहुत जरूरी है. अपना देश, अपनी जमीन, अपने लोग, अपनी भाषा, अपना माहौल हमारे जीवन में विशेष महत्त्व रखते हैं.

लोग अपने भविष्य को लेकर हसीन सपने बुनते हैं और उनको हासिल करने के लिए कोशिश भी करते हैं. लेकिन, क्या आपने कभी सोचा है कि उन सपनों का क्या होता होगा, जिनसे उनकी जमीन और आसमान छीन कर उन्हें दरबदर फिरने पर मजबूर कर दिया जाता है. अभी 20 जून को विश्व शरणार्थी दिवस बीता है, जो हमें इस ओर सोचने पर मजबूर करता है. विशेष कर के उन राष्ट्रों को तो जरूर इस बारे में सोचना चाहिए, जहां ऐसी शक्तियां भी सिर उठाती रहती हैं, जो शांति को भंग करके समाज में एक-दूसरे के विरुद्ध आपसी नफरत और द्वेष का बीजारोपण करना चाहती हैं. जिस का अंत में नतीजा पलायन ही निकलना है. कभी अपने ही देश में एक जगह से दूसरी जगह और कभी एक देश से दूसरे देश में पलायन.

शरणार्थी वह होता है, जिसे राजनीतिक-सामाजिक-नस्ली या किसी अन्य कारण से सताया गया हो और उसे अपने देश से भागना पड़ा हो. शरणार्थी अपनी जमीन से विस्थापित होकर सिर पर साया ढूंढता फिरता है. विश्व भर में अपने देश से दूर रह रहे शरणार्थियों को सम्मान और उन्हें एक पहचान देने के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रतिवर्ष 20 जून को विश्व शरणार्थी दिवस मनाता है.

संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े यह बताते हैं कि हर बीस मिनट पर विश्व में कुछ लोग अपने आपको आतंक, युद्ध या उत्पीड़न से बचाने के लिए अपने देश को छोड़ कर एक शरणार्थी की जिंदगी गुजारने पर मजबूर हो जाते हैं. इन विस्थापित समूहों में अनेकों प्रकार के शरणार्थी होते हैं. कुछ विस्थापित होने के कारण शरणार्थी बन जाते हैं और शरण चाहनेवालों में गिने जाते हैं. इनमें कुछ 'स्टेट लेस' यानी राज्यविहीन लोग होते हैं, जिनका कोई राष्ट्र नहीं होता. कुछ इनमें अपने देश लौटने की चाह रखनेवाले भी होते हैं. शायद इसीलिए यह माना जाता है कि शरणार्थी अपने आप में ही एक ऐसी दुनिया है, जो हर समय गतिशील रहती है.

शरणार्थियों का विश्वव्यापी आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है. वर्ष 2000 में यह संख्या 15.9 मिलियन थी और वर्ष 2015 में यह बढ़ कर 243.7 मिलियन हो गयी. इन शरणार्थियों का जत्था विश्व के एक प्रमुख कोने से अधिक आ रहा है. शरणार्थियों के विस्थापन में उन्हें अपनी जान तक गंवानी पड़ती है. वर्ष 2015 में इनकी तादाद 1,638 आंकी गयी है और यह संख्या बढ़ ही रही है. कुछ राष्ट्र शरणार्थियों को आसरा दे रहे हैं, इनमें तुर्की जैसा मुल्क सबसे आगे है और कई राष्ट्र इनके लिए अपनी सरहदें बंद कर रहे हैं, जिन में अमेरिका सहित यूरोप के कई देश शामिल हैं.
विस्थापित बच्चों की हालत बहुत खराब है. आखिर कोई इस पर बात क्यों नहीं करता कि छोटे-छोटे बच्चे आतंक का शिकार हो रहे हैं और अपने देश से दूर बिखरी हुई जिंदगी बसर कर रहे हैं और उनका भविष्य अंधकार में है. शरणार्थी समस्या के साथ इनके साथ होनेवाले अपराधों और हिंसा का भी एक अलग आंकड़ा है, जिसके बारे में हमें गहराई से सोचना चाहिए.

शरणार्थियों की समस्याओं को लेकर जरूरत है एक मजबूत और सहयोगी अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया की. आज जरूरत है विश्व के उन इलाकों का निस्वार्थ विश्लेषण करने की, जहां मासूम बच्चे अपने सिर पर छत नहीं केवल शरणार्थी कैंप देख रहे हैं. जरूरत है कि बड़े देश अपनी स्वार्थपूर्ण व्यक्तिगत राजनीति से ऊपर उठ कर काम करें और आगे आकर इंसानियत के नाते इनका साथ दें. हमने पिछले कुछ वर्षों में शरणार्थी मसले को सुलझाने हेतु कई वैश्विक घटनाओं की शृंखला देखी है, जिसमें वर्ष 2016 में हुए विश्व मानवतावादी शिखर सम्मलेन और 2016 के फरवरी में लंदन में सीरिया के समर्थन में हुआ सम्मलेन भी है. मार्च 2017 में शरणार्थी समस्या पर विश्व्यापी नजर रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र की एक जांच समिति भी गठित की गयी.

जिन देशों में भी शरणार्थी विस्थापन का मसला है, वहां के हुक्मरान शायद अपने देश के भविष्य से किये हुए वादे को पूरा करने में असमर्थ रहे हैं. अगर आप केवल अरब दुनिया की ओर देखें, तो रमजान के पाक महीने में भी इन्होंने एक-दूसरे पर जुल्म करना नहीं छोड़ा है.

इन देशों के हुक्मरानों को साथ आकर इस मसले को सुलझाने के लिए काम करना चाहिए. छोटे-छोटे स्वार्थ से ऊपर उठने की जरूरत है. इन्हें अपने देश के उन बच्चों को जवाब देना होगा, जिनके ख्वाब अधूरे रह गये हैं और शायद उनकी आंखों में कोई ख्वाब बुने ही नहीं गये. तारीख हर जुल्म का हिसाब मांगेगी और जब शरणार्थी अपनी तारीख लिखेगा, तो वह केवल विश्व समुदाय से सवाल नहीं करेगा, बल्कि अपने मुल्क के हुक्मरानों का दामन भी थाम कर पूछेगा कि तुमने कोई उपाय क्यों नहीं किया. क्या बातचीत से मसला हल नहीं हो सकता. कब तक स्वयं पर उत्पीड़न वाली नीति पर ही हम निर्भर रहेंगे और अपने भविष्य के सपनों को धूमिल होता देखेंगे. हमें अपने हुक्मरानों से सवाल करना होगा और उनकी नीतियों पर सवाल भी उठाने होंगे. केवल शरणार्थी जमात में इजाफा करना और विश्व से सहानुभूति मांगना इसका निवारण नहीं है. जरूरत है अच्छे नेतृत्व का चुनाव करना, जो आनेवाली नस्लों के लिए सकारात्मक और विकासशील नीतियां बनायें और ओछी राजनीति से ऊपर उठ कर काम करें.

जब आप खुशियों से भरे माहौल में लजीज पकवानों से अपने दस्तरख्वान सजाते हैं, तो उन बच्चों के बारे में जरूर सोचें, जिन्हें अक्सर भूखा सोना पड़ता है. जो दरबदर हैं, जिनकी न अपनी जमीन है और न ही अपना आसमान है. जब अपना ही देश, अपनी ही जमीन किसी पर तंग हो जाये, तो फिर दूसरे देशों से सिर्फ भीख की ही उम्मीद की जा सकती है. क्या जिनके पास जमीन और आसमान दोनों हैं, वे इन बेघरों के बारे में सोचने को तैयार हैं? जब सभी एक-दूसरे के बारे में ऐसा सोचेंगे, तभी सही अर्थों में विश्व में शांति स्थापित हो सकती है.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1010089.html


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