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न्यूज क्लिपिंग्स् | जरूरी है किसानों की आय बढ़ाना --- देविन्दर शर्मा

जरूरी है किसानों की आय बढ़ाना --- देविन्दर शर्मा

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published Published on Mar 3, 2016   modified Modified on Mar 3, 2016

भारत के 17 राज्यों में खेती से एक किसान की औसत आय 20 हजार रुपये सालाना है. इसमें उत्पादन का वह अंश भी शामिल है जिसे वह पारिवारिक उपभोग के लिए रखता है. दूसरे शब्दों में, इन राज्यों में किसान की औसत मासिक आय महज 1,666 रुपये है. जी हां, आपने सही पढ़ा. महज 1,666 रुपये.



इस तस्वीर में आप खुद को रख कर देखें. अगर आप किसान होते और आप पूरे महीने में सिर्फ 1,666 रुपये कमा पाते, तो आप क्या करना पसंद करते? आप पांच साल और इंतजार करते? उम्मीद पर जीते रहते, और सोचते रहते- वो सुबह कभी तो आयेगी!

 


जब बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में यह कहा कि ‘हमें ‘खाद्य सुरक्षा' से परे सोचना होगा और किसानों में ‘आय सुरक्षा' का भरोसा देना होगा', मैं सांस थामे इंतजार कर रहा था. लेकिन जब उन्होंने 2022 तक किसानों की आय दुगुना करना का वादा किया, तो मेरी सारी उम्मीदें टूट गयीं.



वित्त मंत्री की इच्छा है कि किसान पांच सालों तक इंतजार करें. पांच साल के बाद, और अगर यह वादा पूरा भी हो जाता है, इन 17 राज्यों में किसानों की मासिक आय 3,332 रुपये हो जायेगी.



मैं कल्पना कर सकता हूं कि 2022 में पेश होनेवाली आर्थिक समीक्षा में गर्व से घोषणा की जायेगी कि लगातार प्रयासों से सरकार किसानों की आय दुगुनी करने में सफल रही है. अर्थशास्त्री निश्चित तौर पर इसे बड़ी उपलब्धि के रूप में चिन्हित करेंगे. अगर मुद्रास्फीति के हिसाब को जोड़ कर देखें, तो तब भी 3,332 रुपये की आय 1,666 रुपये के बराबर होगी जो आमदनी किसान की आज है. इस लिहाज से एक अर्थ में सरकार ने ‘आय सुरक्षा' का वादा किया है.



ऐसे समय में जब कृषि क्षेत्र गंभीर संकट से जूझ रहा है और पिछले कई सालों से जारी संकट का उल्लेख 2016 की आर्थिक समीक्षा में भी विस्तार से किया गया है, मुझे आशा थी कि सरकार इस दिशा में कोई त्वरित कदम उठायेगी. देश में किसानों की आत्महत्या का प्रति दिन औसत 42 से बढ़कर 2015 में 52 हो गया है. ऐसी स्थिति में कृषि पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है.



बजट भाषण में करीब 50 बार कृषि का उल्लेख कर देने भर से लापरवाही और उदासीनता झेल रहे इस क्षेत्र को राहत नहीं मिल सकती है.



खेती का मौजूदा संकट कम कृषि उत्पादन का परिणाम नहीं है. ऐसा नहीं है कि किसान ऊपज बढ़ाना नहीं जानते और इसी कारण उनकी आमदनी नहीं बढ़ रही है. उत्पादकता महत्वपूर्ण है, लेकिन इसके लाभकारी मूल्य नहीं मिलने के कारण किसान परेशान है. उदाहरण के लिए भारत के प्रमुख खेतिहर राज्य पंजाब को देखें. पंजाब के किसान 99 फीसदी निश्चित सिंचित क्षेत्र में प्रति हेक्टेयर 4,500 किलोग्राम गेहूं और 6,000 किलोग्राम धान उपजाते हैं.



यह निश्चित रूप से फसल उत्पादकता का बहुत उच्च स्तर है. बजट में सरकार द्वारा घोषित सिंचाई सुविधा के विस्तार समेत सभी विकास सूचियां पंजाब में पहले से ही उपलब्ध हैं. इसके बावजूद, जैसा कि कृषि व्यय एवं मूल्य आयोग के आंकड़ों में बताया गया है, राज्य में एक हेक्टेयर जमीन में धान और गेहूं की पैदावार से सालाना 36 हजार रुपये की कुल आमदनी होती है यानी हर महीने मात्र तीन हजार रुपये.



इस राशि की तुलना सातवें वेतन आयोग के बाद मिलनेवाले एक चपरासी के 18 हजार रुपये के मूल मासिक वेतन से करें. मुझे आश्चर्य नहीं होगा अगर नया भरती हुआ चपरासी भी आय करदाताओं की श्रेणी में आ जाये.



इसलिए इस वर्ष की आर्थिक समीक्षा की यह बात सही नहीं है कि भारतीय कृषि की मुख्य चुनौती निम्न उत्पादकता है. यह स्पष्ट करना होगा कि असली चुनौती वह है, जिसे वित्त मंत्री ने चिन्हित किया है- ‘आय सुरक्षा'.



किसानों की बात करने पर मुख्यधारा के अर्थशास्त्री और मीडिया तुरंत ही आपको वामपंथी करार दे देते हैं.



कई टेलीविजन चैनलों पर यह देख कर मुझे बहुत धक्का लगा कि पैनल में बैठे लोग बजट में ‘कृषि' शब्द पर जोर देने से स्पष्ट रूप से निराश थे. जो बात नहीं समझी जा रही है, वह यह है कि कृषि अनुत्पादकता या कम कमाई के कारण दुसाध्य नहीं हुई है, बल्कि इसे जान-बूझकर वर्षों से कुपोषित रखा गया है. वर्ष 1970 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 76 रुपये प्रति कुंतल था. वर्ष 2015 में, 45 सालों के बाद, इसमें 19 गुणा वद्धि हुई और इसकी दर 1,450 रुपये प्रति कुंतल हो गयी. इसी अवधि में सरकारी कर्मचारियों के मूल वेतन (महंगाई भत्ते के साथ) में 120 से 150 गुणा बढ़ोतरी हुई, कॉलेज शिक्षकों और विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों के वेतन 150 से 170 गुणा, स्कूली शिक्षकों के वेतन 280 से 320 गुणा, और उद्योग जगत के शीर्ष अधिकारियों के वेतन 1,000 गुणा तक बढ़े.



विगत 45 वर्षों में कर्मचारियों के वेतन में भारी वृद्धि होती रही, किसान अपने उचित बकाये के लिए तरसते रहे. अगर गेहूं की कीमतें कम-से-कम 100 गुणा भी बढ़ायी जातीं, तो न्यूनतम समर्थन मूल्य कम-से-कम 7,600 रुपये प्रति कुंतल होता. इस पर तर्क यह दिया जाता है कि अगर गेहूं की कीमतें बढ़ीं, तो खाद्य मुद्रास्फीति बहुत अधिक बढ़ जायेगी. इससे स्पष्ट है कि सिर्फ खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखने के लिए सालों से किसानों को दंडित किया जाता रहा है.



यही कारण है कि एनडीए सरकार कृषि लागत के ऊपर 50 फीसदी लाभ देने के अपने वादे से पीछे हट गयी है. न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिहाज से देखें, तो किसानों की आय में सिर्फ 3.2 से 3.6 फीसदी की मामूली वार्षिक वृद्धि हुई है. साफ है कि संगठित क्षेत्र में हर व्यक्ति के वेतन में भारी वृद्धि होती रही, और जान-बूझकर किसानों की अवहेलना की जाती रही.



मेरी राय में सरकार को अपनी ‘किसान-विरोधी' छवि में सुधार के लिए यह उचित समय था. कृषि में सार्वजनिक निवेश में बढ़ोतरी के साथ आय बढ़ाने के उपाय भी लाये जाने चाहिए थे.



यदि सरकार किसानों की मदद के लिए तीन लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज दे देती और किसानों की आय सुनिश्चित करने के लिए राष्ट्रीय आयोग गठित कर देती, तो समूची अर्थव्यवस्था का कायाकल्प हो सकता था.



देश के 60 करोड़ किसानों के हाथ में अधिक आय न सिर्फ उन्हें ‘आय सुरक्षा' प्रदान करती, बल्कि इससे घरेलू मांग में भारी वृद्धि होती जिससे औद्योगिक वृद्धि को तेज गति मिलती. वास्तव में, ‘सबका साथ-सबका विकास' का यही एकमात्र तरीका है.


http://www.prabhatkhabar.com/news/big-story/story/733495.html


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