Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | जहां ‘मिस्टर’ से ‘महात्मा’ बने गांधी

जहां ‘मिस्टर’ से ‘महात्मा’ बने गांधी

Share this article Share this article
published Published on May 8, 2017   modified Modified on May 8, 2017
जिस समय मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद, नस्लभेद और उपनिवेशवादी शोषण के विरुद्ध सामाजिक आंदोलन चला रहे थे, उसी समयावधि में भारत में एक समाज सुधारक अपना सर्वस्व त्याग कर विदेशी शिक्षा, अस्पृश्यता, असमानता, जातिवाद, अशिक्षा, राजनीतिक पराधीनता, अंधविश्वास, पाखंड आदि के विरुद्ध सामाजिक क्रांति कर रहा था। उनका नाम था- महात्मा मुंशीराम (संन्यास नाम स्वामी श्रद्धानन्द), जो हरिद्वार के निकट कांगड़ी नामक गांव में 1902 में गंगा तट पर स्वस्थापित ‘गुरुकुल कांगड़ी' नामक शिक्षा संस्था के माध्यम से अपने उद्देश्यों की पूर्ति में संलग्न थे। दक्षिण अफ्रीका में गांधी का नाम और काम सुर्खियों में था तो भारत में महात्मा मुंशीराम का। दोनों अपने-अपने देश में सामाजिक सेवा और सुधार में संलग्न थे; लेकिन एक का दूसरे से न तो आमना-सामना था और न कभी मेल-मिलाप हुआ था। दोनों महापुरुषों का परस्पर परिचय और मेल-मिलाप कराने में सेतु का कार्य किया गांधी के मित्र प्रोफेसर सीएफ एंड्रूज ने। प्रोफेसर एंड्रूज सेंट स्टीफेंस कॉलेज, दिल्ली में शिक्षक थे और दोनों के सुधार-कार्य से प्रभावित थे। उन्होंने गांधी को लिखे एक पत्र में परामर्श दिया था, ‘आप जब भी दक्षिण अफ्रीका से भारत आएं तो भारत के तीन सपूतों से अवश्य मिलें।' वे तीन व्यक्ति थे- महात्मा मुंशीराम, कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर और सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली के प्रचार्य सुशील रुद्र।

 

 

गांधीजी महात्मा मुंशीराम के सामाजिक कार्यों को जानने के बाद उनसे अत्यधिक प्रभावित हुए थे। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका स्थित अपने ‘फोनिक्स आश्रम, नेटाल' से 21 अक्तूबर, 1914 को महात्मा मुंशीराम को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने उनके कार्यों की प्रसंशा की और उनके प्रति श्रद्धाभाव से आत्मीयता व्यक्त करते हुए उनको ‘महात्मा' और ‘भारत का एक सपूत' लिखा तथा उनसे मिलने की अधीरता व्यक्त की। गांधीजी द्वारा अंगे्रजी में लिखे उक्त पत्र की कुछ पंक्तियों का हिंदी अनुवाद यों है-

 


‘प्रिय महात्मा जी,
...मैं यह पत्र लिखते हुए अपने को गुरुकुल में बैठा हुआ समझता हूं। निस्संदेह उन्होंने मुझे इन संस्थाओं (गुरुकुल कांगड़ी, शांति निकेतन, सेंट स्टीफेंस कॉलेज) को देखने के लिए अधीर बना दिया है और मैं उनके संचालकों भारत के तीनों सपूतों के प्रति अपना आदर व्यक्त करना चाहता हूं। आपका-मोहनदास गांधी'।
इसके बाद 8 फरवरी, 1915 को पूना से हिंदी में गांधी का एक और पत्र आया-

 

 


‘महात्मा जी,
...आपके चरणों में सिर झुकाने की मेरी उमेद है। इसलिए बिन आमंत्रण आने की भी मेरी फरज समझता हूं। मैं बोलपुर से पीछे फिरूं उस बाबत आपकी ऐवा में हाजिर होने की मुराद रखता हूं। आपका सेवक- मोहनदास गांधी । (उक्त दोनों पत्रों की मूल प्रतियां गांधी संग्रहालय, दिल्ली में उपलब्ध हैं।)

 

 


कुंभपर्व के अवसर पर अपनी पत्नी कस्तूर बा के साथ यात्रा-कार्यक्रम बनाकर गांधी एक सामान्य कार्यकर्ता की तरह 5 अप्रैल, 1915 को हरिद्वार पहुंचे। छह अप्रैल को उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी में पहुंचकर महात्मा मुंशीराम से भेंट कर उनके चरणों को स्पर्श कर प्रणाम किया। यह दोनों की प्रथम भेंट थी।

 

 


आठ अप्रैल को गुरुकुल कांगड़ी की कनखल स्थित- ‘मायापुर वाटिका' में गांधीजी का सम्मान समारोह हुआ और उन्हें एक अभिनंदन पत्र भेंट किया गया। इसमें पहली बार लिखित में उन्हें ‘महात्मा' की उपाधि से विभूषित किया गया। वक्ताओं ने भी स्वागत करते हुए कहा, ‘आज दो महात्मा हमारे मध्य विराजमान हैं।' महात्मा मुंशीराम ने अपने संबोधन में आशा व्यक्त की कि अब महात्मा गांधी भारत में रहेंगे और ‘भारत के लिए ज्योति-स्तंभ बन जाएंगे।' महात्मा गांधी ने आभार व्यक्त करते हुए कहा था, ‘मैं महात्मा मुंशीराम से मिलने के उद्देश्य से ही हरिद्वार आया हूं।

 

 


उन्होंने पत्रों में मुझे ‘भाई' संबोधित किया है, इसका मुझे गर्व है। कृपया आप लोग यही प्रार्थना करें कि मैं उनका भाई बनने के योग्य हो सकूं। अब मैं विदेश नहीं जाऊंगा। मेरे एक भाई (लक्ष्मीदास गांधी) चल बसे हैं। मैं चाहता हूं कोई मेरा मार्गदर्शन करे। मुझे आशा है कि महात्मा मुंशीरामजी उनका स्थान ले लेंगे और मुझे ‘भाई' मानेंगे।''
इस भेंट ने दो समाज सुधारकों को ‘घनिष्ठ मित्र' और ‘एक-दूसरे का भाई' बना दिया। गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार में इस अवसर पर दोनों महात्माओं के मेल से भारत में सामाजिक सुधार और राजनीतिक स्वाधीनता का एक नया अध्याय आरंभ हुआ, जिसका सुखद परिणाम भारत की स्वतंत्रता और शैक्षिक जागरूकता के रूप में सामने आया। गुरुकुल कांगड़ी के उस सार्वजनिक अभिनंदन में गांधी को ‘महात्मा' की उपाधि प्रदान करने के बाद महात्मा मुंशीराम ने अपने पत्रों और लेखों में सर्वत्र उनको ‘महात्मा गांधी' के नाम से संबोधित किया।

 

 


नतीजतन, जन समुदाय में उनके लिए ‘महात्मा' प्रयोग प्रचलित हो गया जो सदा-सर्वदा के लिए गांधीजी की विश्वविख्यात पहचान बन गया। उससे पूर्व दक्षिण अफ्रीका में अंगे्रजी सभ्यता के अनुसार उनको ‘मिस्टर गांधी' कहा जाता था। इस प्रकार ‘मिस्टर गांधी' गुरुकुल कांगड़ी आकर ‘महात्मा गांधी' बनकर निकले। परस्पर दोनों का पत्रव्यवहार गुरुकुल कांगड़ी के पुरातत्त्व संग्रहालय में प्रदर्शित है।इस भेंट के बाद गांधीजी और महात्मा मुंशीराम के संबंधों में निकटता बढ़ती गई। इसके बाद गांधीजी तीन बार और गुरुकुल कांगड़ी में आए। 18- 20 मार्च 1916 , 18-20 मार्च 1927 और 21 जून, 1947 को गांधीजी ने गुरुकुल में आकर कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। यह एक कीर्तिमान था। इतनी बार वे भारत की किसी अन्य शिक्षा संस्था में नहीं गए। उन्होंने कहा था, ‘गुरुकुल कांगड़ी तो गुरुकुलों का पिता है। मैं वहां कई बार गया हूं। स्वामीजी के साथ मेरा संबंध बहुत पुराना है।'

 

 


ऐतिहासिक तथ्यों की जानकारी के अभाव में या अन्य कारणों से कुछ लेखकों ने यह धारणा फैला दी है कि रवींद्रनाथ ठाकुर ने पहली बार गांधी को ‘महात्मा' कहकर पुकारा था। यह विचार बाद में प्रचलित किया गया है जो अनुमान पर आधारित कल्पना मात्र है। इसका कोई लिखित ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। इस संबंध में कुछ तथ्यों पर चिंतन किया जाना आवश्यक है...

1. ‘महात्मा' शब्द का प्रयोग गांधीजी और महात्मा मुंशीराम के पारस्परिक लेखन और व्यवहार में प्रचलित था, ठाकुर के साथ नहीं। गांधीजी मुंशीरामजी को महात्मा लिखते और कहते थे, प्रत्युत्तर में गांधीजी से प्रभावित मुंशीराम ने भी सम्मान देने के लिए गांधी जी को महात्मा कहा। परस्पर के व्यवहार में यह स्वाभाविक ही है।

 

 


2. थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाए कि रवीद्रनाथ ठाकुर ने ही सर्वप्रथम श्री गांधी के लिए महात्मा शब्द का प्रयोग किया। अगर ऐसा हुआ भी होगा तो वह व्यक्तिगत और एकांतिक रहा होगा, सार्वजनिक रूप में प्रयोग और लेखन ठाकुर की ओर से नहीं कहा गया और न वह सार्वजनिक हुआ और न उनकी भेंट के बाद वह जनसामान्य में प्रचलित हुआ। यह प्रयोग सर्वप्रथम सार्वजनिक रूप में महात्मा मुंशीराम की ओर से गुरुकुल कांगड़ी से आरंभ हुआ, जिसे अपने अनेक पत्रों और लेखों के माध्यम से महात्मा मुंशीराम ने सुप्रसिद्ध किया। उसके बाद ही जन-सामान्य में गांधीजी के लिए ‘महात्मा' प्रयोग का प्रचलन हुआ।

 

 


3. सरकार के अभिलेखों में इसी तथ्य को स्वीकार किया गया है कि गांधी को सर्वप्रथम गुरुकुल कांगड़ी में महात्मा की उपाधि से विभूषित किया गया। 30 मार्च, 1970 को स्वामी श्रद्धानंद (पूर्वनाम महात्मा मुंशीराम) की स्मृति में भारतीय डाक तार विभाग द्वारा डाक टिकट जारी किया गया था। विभाग द्वारा प्रकाशित डाक टिकट के परिचय-विवरण में निम्नलिखित उल्लेख मिलता है- ‘‘उन्होंने (स्वामी श्रद्धानंद ने) कांगड़ी हरिद्वार में वैदिक ऋषियों के आदर्शों के अनुरूप एक बेजोड़ विद्या केंद्र गुरुकुल की स्थापना की।... महात्मा गांधी जब दक्षिण अफ्रीका में थे तो सर्वप्रथम इसी संस्थान ने उन्हें अपनी ओर आकृष्ट किया और भारत लौटने पर वे सबसे पहले वहीं जाकर रहे। यहीं गांधीजी को ‘महात्मा' की पदवी से विभूषित किया गया।''

 

 


4. उत्तर प्रदेश सरकार के सूचना विभाग द्वारा 1985 में प्रकाशित और गांधीवादी लेखक रामनाथ सुमन द्वारा लिखित ‘उत्तर प्रदेश में गांधी' नामक पुस्तक के ‘सहारनपुर संदर्भ' शीर्षक में उल्लेख है, ‘हरिद्वार आगमन के समय गांधीजी को गुरुकुल कांगड़ी में महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानंद) ने ‘महात्मा' विशेषण से संबोधित किया था, तब से गांधीजी ‘महात्मा गांधी' कहलाने लगे।

 

 


5. गांधीजी के गुरुकुल कांगड़ी आगमन के समय वहां पढ़ने वाले विद्यार्थियों ने अपने संस्मरणों में, गुरुकुल के स्नातक इतिहासकारों ने अपने लेखों और पुस्तकों में गांधी के सम्मान-समारोह का और उस अवसर पर उन्हें ‘महात्मा' पदवी दिए जाने का वृत्तांत दिया है।
पत्रकार सत्यदेव विद्यालंकार ने लिखा है, ‘‘आज गांधीजी जिस महात्मा शब्द से जगद्विख्यात हैं, उसका सर्वप्रथम प्रयोग आपके लिए गुरुकुल की ओर से दिए गए इस मानपत्र में ही किया गया था।'' इस वृत्तांत को लिखने वाले अन्य स्नातक लेखक हैं- डॉ विनोदचंद्र विद्यालंकार, इतिहासकार सत्यकेतु विद्यालंकार, दीनानाथ विद्यालंकार, जयदेव शर्मा विद्यालंकार और विष्णुदत्त राकेश आदि। कोई कारण नहीं कि विद्यार्थी अपने संस्मरणों को तथ्यहीन रूप में प्रस्तुत करेंगे।

 

 


6. गांधीजी और महात्मा मुंशीराम दोनों एक-दूसरे के महात्मापन के कार्यों से पहले से ही सुपरिचित थे, इसलिए दोनों के व्यवहार में आत्मीयता और सहयोगिता का खुलापन था। कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर के साथ गांधी का वैसा खुला अनौपचारिक संबंध नहीं था। दोनों के निकट संबंधों की पुष्टि तीन विशेष घटनाओं से होती है। पहली घटना वह है जब 1913-14 में दक्षिण अफ्रीका में चल रहे गांधी के सामाजिक आंदोलन के लिए 1500/- की आर्थिक सहयोग राशि राष्ट्रनेता गोपालकृष्ण गोखले के माध्यम से गुरुकुल कांगड़ी के द्वारा भेजी गई थी। यह राशि गुरुकुल के विद्यार्थियों ने, सरकार द्वारा 1914 में गंगा पर बनाये जा रहे दूधिया बांध पर दैनिक मजदूरी करके और एक मास तक अपना दूध-घी त्याग पर उसके मूल्य से एकत्रित करके भेजी थी। इस मार्मिक घटना को सुनकर गांधीजी का हृदय द्रवित हो गया था। उन्होंने अनेक लेखों में इस सहयोग की चर्चा की है। दूसरी घटना यह थी कि 1915 में जब गांधीजी दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर भारत आ रहे थे तो उन्होंने वहां स्वस्थापित ‘फोनिक्स आश्रम, नेटाल' के विद्यार्थियों को पहले ही भारत में रवींद्रनाथ ठाकुर के आश्रम में भेज दिया था। ठाकुर के आश्रम शांति निकेतन (पूर्वनाम ब्रह्मचर्याश्रम) में उनके निवास और खान-पान का प्रबंध सुचारु रूप से नहीं हो सका। तब गांधीजी ने उन विद्यार्थियों को महात्मा मुंशीराम के पास गुरुकुल कांगड़ी में भेज दिया। वहां वे अच्छे प्रबंध के साथ दो महीनों तक रहे। जब गांधीजी गुरुकुल में प्रथम बार पधारे थे तो उन्होंने अपने वकतव्य में दोनों सहयोगों के लिए महात्मा मुंशीराम और विद्यार्थियों के प्रति आभार व्यक्त किया था। तीसरी घटना यह है कि एक मुस्लिम हत्यारे के हाथों स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के बाद 9 जनवरी, 1927 को गांधीजी बनारस गए। वहां गांधीजी और मदनमोहन मालवीय ने, स्वामी श्रद्धानंद के सिद्धांतों के अनुकूल न होते हुए भी, अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि व्यक्त करने के लिए उनके लिए गंगा में जलांजलि प्रदान की और गंगा-स्नान किया।

 


http://www.jansatta.com/sunday-magazine/where-gandhi-become-mahatma-to-mister/316944/


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close