Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | जातीय संरचना, अहिंसा और अंबेडकर-- अजमेर सिंह काजल

जातीय संरचना, अहिंसा और अंबेडकर-- अजमेर सिंह काजल

Share this article Share this article
published Published on Aug 11, 2016   modified Modified on Aug 11, 2016
आधुनिक काल में ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब आंबेडकर ने शासन, सत्ता और संस्कृति के विभिन्न केंद्रों में मौजूद जातीय सैद्धांतिकी को चुनौती देकर ऐतिहासिक कार्य किया। सामाजिक समानता का जो अहसास बाबा साहेब आंबेडकर को संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन में पढ़ते हुए हुआ, वह हमारे लोकजीवन में कहीं नहीं था। इसलिए शिक्षा प्राप्ति के बाद भारत वापस आने पर उन्होंने इसी लोक जीवन में व्याप्त सदियों पुरानी बीमारियों को चुनौती दे डाली, जिनमें जाति-व्यवस्था प्रमुख थी। स्थिति यह बन गई थी कि तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था के लिए आंबेडकर द्वारा उठाए गए प्रश्नों को अनदेखा करना असंभव हो गया था। आंबेडकर ने आर्य समाज लाहौर के जात-पांत तोड़क मंडल के निमंत्रण पर सितंबर 1935 के वार्षिक सम्मेलन की अध्यक्षता स्वीकार की थी, लेकिन बाद में इसे इसलिए ठुकरा दिया कि आयोजक जाति समाप्ति के शास्त्रीय आधारों पर बाबा साहेब द्वारा उठाए गए प्रश्नों से सहमत नहीं थे और जाति-व्यवस्था की समाप्ति पर लिखे उनके भाषण में संशोधन की मांग कर रहे थे। इसलिए उन्होंने सामाजिक असमानता पर आधारित जाति-व्यवस्था की सैद्धांतिकी के विरुद्ध मजबूती से खड़े होने का निर्णय किया। उनका यह ऐतिहासिक निर्णय आज हाशिए के समाज के संपूर्ण आंदोलनों और खासकर दलित आंदोलन की जीवनी शक्ति है। आंबेडकर कहते हैं कि जातिप्रथा तोड़ने का वास्तविक तरीका अंतरजातीय भोज और अंतरजातीय विवाह नहीं, बल्कि वे धार्मिक धारणाएं हैं, जिन पर जातिप्रथा की नींव टिकी है। ऐसे कठोर संबंधों वाले समाज से जाति-व्यवस्था तोड़ने की आशा करने की अपेक्षा उससे लड़ना होगा।

बौद्धिक दलित समाज शास्त्रों की पवित्रता पर सवाल उठाता है तो इसका पक्षधर एक छोटा समाज, जिसे सवर्ण समाज भी कहते हैं, इनको प्रतिष्ठित करने की हर संभव कोशिश करता है। हालांकि लोकतांत्रिक मूल्यों ने इनके बीच से भी जाति-व्यवस्था के विरोध में सीमित विरोध के स्वर पैदा किए हैं। इसके बावजूद दोनों दृष्टियों में दिन-रात जैसा अंतर है। सवाल है कि करोड़ों नागरिकों से शिक्षा, संस्कृति, भोजन और रोजगार के मामलों में भेदभाव का बर्ताव करने वाले लोग क्या राजनीतिक सत्ता के योग्य हैं? बाबा साहेब का मानना था कि राजनीतिक आजादी के लिए तैयार होने से पहले हमें सामाजिक एकता और बंधुता बनानी चाहिए, अन्यथा राजनीतिक आजादी हमारे काम नहीं आएगी।

समाजवादी क्रांति से पहले जातिप्रथा की समाप्ति आवश्यक है, क्योंकि जाति के ध्वंस पर ही वर्ग का निर्माण हो सकता है। जब तक आप जाति रूपी दैत्य को नहीं मारेंगे, तब तक कोई राजनीतिक और आर्थिक सुधार नहीं हो सकता। राष्ट्रवाद को परिभाषित करते हुए आंबेडकर कहते हैं- ‘‘सही राष्ट्रवाद है, जाति भावना का परित्याग और जाति-भावना गहन सांप्रदायिकता का ही रूप है। जाति-व्यवस्था की गुलामी को मानते हुए स्वराज्य प्राप्ति केवल छलावा सिद्ध होगा।''

इतिहासकार रामचंद्र गुहा आंबेडकर और गांधी के मतभेद को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि 1929 में जब दलितों ने मंदिर प्रवेश, कुओं-तालाबों से पानी लेने जैसे नागरिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए सत्याग्रह किया और गांधीजी से समर्थन मांगा तो उन्होंने समर्थन देना तो दूर, उलटे एक बयान जारी करके सत्याग्रह करने पर अछूतों की निंदा कर डाली। गेल ओमवेट की दृष्टि में आंबेडकर ने गांधीजी को समाज सुधारक के बजाय जाति को बढ़ावा देने वाला और यथास्थितिवाद के गढ़ भारतीय गांवों का समर्थक माना है। इन्हीं गांवों में आज भी जातिवादी कार्यों के आधार पर दलितों से बेगार कराने के बावजूद जातीय प्रतिबंधों से दंडित किया जाता है।

आंबेडकर ने वर्णाश्रम और जाति संरचना पर लोकतांत्रिक भारत के निर्माण को गोबर के ढेर पर महल का निर्माण करने जैसा कह कर नई पीढ़ी को इसके संभावित खतरों के प्रति आगाह किया था। वे समाज के आर्थिक संबंधों को बदलना चाहते थे। आंबेडकर की बुनियादी लड़ाई समाज के सर्वाधिक संतप्त वर्ग की सामाजिक-आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मुक्ति की लड़ाई थी। उतर प्रदेश और पंजाब में स्वामी अछूतानंद और मंगूराम मगोवालिया के संघर्ष भी जाति-व्यवस्था द्वारा निर्धारित किए गए इन्हीं दायरों के विरुद्ध थे। अगर जाति-व्यवस्था द्वारा निर्धारित मृत पशुओं की खाल उतारना, सफाई आदि कार्य निकृष्ट हैं तो दूसरी जातियों के कार्य श्रेष्ठ और सम्मानजनक कैसे हैं? यह कामों का नहीं, कामगारों का विभाजन और शोषण करने वाली व्यवस्था है। आर्थिक संगठन के रूप में जातिप्रथा एक हानिकारक व्यवस्था है।

1991 से प्रारंभ हुई उदारवादी नीतियों के बाद विकास की बातें बहुत हो रही हैं, लेकिन जाति-व्यवस्था ज्यों की त्यों खड़ी है। अगर उदारीकरण से सभी को विकास के समान अवसर नहीं मिल रहे हैं तो यह विकास किसके लिए किया जा रहा है। आर्थिक उदारीकरण की नीतियां लागू होने के पचीस वर्षों में हुए तथाकथित आर्थिक विकास के बावजूद जाति की हिंसक और शोषणकारी मानसिकता किसी भी तरह से बदली नहीं है। भारतीय संविधान लोक कल्याण के लिए राज्य को अधिकृत करता है, लेकिन यह महत्त्वपूर्ण कार्य राज्य के हाथों से खिसक कर उदारवादी हाथों में जा रहा है। इस नई आर्थिक सैद्धांतिकी की मौजूदगी में ही पहले की भांति गोकशी के नाम पर गलतफहमी पैदा करने के बाद हाशिए के लोगों पर हमले और उनकी हत्याएं कर दी जाती हैं। संपन्न और धनी समाज ने इन नीतियों से लाभ तो उठाया, लेकिन उसकी जातीय भेद और हिंसा केंद्रित सोच बरकरार है। यह विकास किसके काम आएगा?

जाति दासता विरोधी आंबेडकर के महान संघर्ष की तुलना मार्टिन लूथर किंग के नस्ल दासता-विरोधी संघर्ष से की जा सकती है। अभी जुलाई 2016 में अमेरिका के कई नगरों में अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों ने अश्वेत लोगों पर पुलिस हिंसा के विरोध में कई पुलिस कर्मियों को मार डाला। आंबेडकर लोकतांत्रिक मूल्यों के जरिए व्यक्ति की सोच बदल कर सामाजिक परिवर्तन चाहते थे।

11 जुलाई 2016 को गुजरात के उना में मृत मवेशी उठाने वाले चार दलितों की बर्बर पिटाई और इसके प्रतिरोध में युवाओं द्वारा आत्महत्या के प्रयास में एक युवा की मौत और अनेक के उपचाराधीन होने संबंधी मामले से देशव्यापी सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक हलचल है। इस घटना ने गाय की रक्षा के नाम पर बने तथाकथित गोरक्षकों द्वारा कानून हाथ में लेकर सरेआम जातीय हिंसा की सभी हदें पार कर दी हैं। इन तथाकथित रक्षकों को यह अधिकार किसने दिया कि वे देश के कानूनों और मानवाधिकारों को धता बताते हुए देश के लिए चमड़ा उत्पादन करने वाले लोगों से बर्बर व्यवहार करें?

इससे भी बड़ी हैरानी की बात है कि घटना के बाद आरोपियों पर कार्रवाई करने के बजाय पुलिस, प्रशासनिक अमला और नागरिक समाज चुप रहता है। ऐसे मामलों में केंद्र सरकार को चाहिए कि भय, हिंसा और समाज में अराजकता पैदा करने वाले गैर-कानूनी संगठनों के खिलाफ सख्ती से कानून लागू करने के आदेश राज्यों को दे, ताकि नागरिकों को भय और हिंसामुक्त कार्यस्थल मिल सकें। जिसके बारे में प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में कहा भी। यानी सत्ता और समाज में इन घटनाओं के प्रति व्यापक प्रतिक्रिया न होने से ज्ञात होता है कि दलितों के प्रति हिंसा को परंपरा मान लिया है। राज्य का प्राथमिक दायित्व कानून के शासन की स्थापना है, लेकिन देखना है कि जब तक कोई प्रतिरोध दर्ज नहीं किया जाता, सता प्रतिष्ठान चुप रह कर आदेश का इंतजार करते रहते हैं। मीडिया ने ऐसे मामलों में सामाजिक संवेदना का विस्तार करने हेतु सकारात्मक भूमिका निभाने का प्रयास किया है।

भारत का संविधान किसी भी नागरिक को अपनी इच्छा से काम का चुनाव करने की इजाजत देता है, लेकिन विडंबना है कि चमड़े और सफाई संबंधी कार्य अब भी जातिगत ही बना हुआ है। इससे मुक्ति कौन देगा? क्या राज्य, समाज या स्वयं दलित समुदाय। तथाकथित श्रेष्ठ समाज में जिस तरह की मानसिकता कायम है, उससे तो नहीं लगता कि वे इन कार्यों को सम्मान देंगे या इनमें अपनी हिस्सेदारी करेंगे। फिर जो चाहे यह काम करे, दलित समाज ही इन्हें क्यों करे? इस समाज को संकल्प लेना होगा कि भूखों मर जाएंगे, पर सफाई और मृत मवेशी उठाने के घृणित कार्य नहीं करेंगे। गुजरात के दलित समुदाय द्वारा इस जातिगत धंधे को छोड़ने के निर्णय से दूरगामी सकारात्मक परिणाम आएंगे।

जाति-व्यवस्था ऐसा जहर है, जिसे पी-पी या जबरदस्ती पिला-पिला कर संपूर्ण समाज को लकवाग्रस्त बना दिया गया है। इसकी समाप्ति के बिना किसी भी तरह के सामाजिक-आर्थिक सुधार लाभकारी नहीं हो पाएंगे। लोकतांत्रिक भारत में जाति के नाम पर किसी की श्रेष्ठता और किसी की हीनता को किसी भी रूप में सहन नहीं किया जा सकता। आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था को सम्यक दृष्टि से लागू करने की अपेक्षा इसे ही सभी बुराइयों की जड़ बताना मानसिक दिवालिएपन का सूचक है। चंूकि जाति-व्यवस्था इंसानी गरिमा के प्रतिकूल है इसलिए राजसता, धर्मसत्ता, अर्थसत्ता और बौद्धिक सत्ता को चाहिए कि दलितों के ऐतिहासिक संघर्ष को दरकिनार करने की प्रवृत्ति छोड़ कर इन्हें समुचित न्याय प्रदान करने का तंत्र और तरीकों पर गंभीरता से विचार करें और ऐसी पहल करें, जिससे संवैधानिक मूल्यों पर आधारित लोकतंत्र विकसित हो और भेदभाव की जननी संहिताओं की जड़ें कट जाएं। इसके लिए सभी भारतीयों को भय, शोषण और हिंसा के विरुद्ध एकजुट होकर नागरिक संवेदना का निर्माण करना होगा।


जातीय संरचना, अहिंसा और अंबेडकरhttp://www.jansatta.com/politics/casteism-system-dr-ambedkar-violence-constitution-of-india/129737/


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close