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न्यूज क्लिपिंग्स् | जीएम खाद्य थोपने पर तुली सरकार-रविंद्र गिन्नौरे

जीएम खाद्य थोपने पर तुली सरकार-रविंद्र गिन्नौरे

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published Published on Sep 1, 2010   modified Modified on Sep 1, 2010
1.दुनिया के किसी देश की सरकार ने ऐसी पहल नहीं की, जो हमारी सरकार करने जा रही है.

2.केंद्र सरकार ने स्पष्ट कह दिया है कि जीएम खाद्य स्वास्थ्य को किसी प्रकार से नुकसान नहीं पहुंचाते.

3.दूसरी ओर, भारत में जेनेटिक मोडिफ़ाइड फ़सलों के अपशिष्ट को खाकर कई स्थानों पर पशु मारे जा चुके हैं.


भारत सरकार जिस तरह जीएम खाद्य फ़सलों को हम पर थोपने पर तुली है वह शंका का कारण बनता जा रहा है. बीआरएइ के माध्यम से स्वतंत्र भारत पर ऐसा कानून थोपा जा रहा है, जिसे लागू करने में संभवत हमारे पूर्व औपनिवेशिक शासक भी हिचकिचाते. लेकिन आज हमारा अपने भोजन पर ही  अधिकार समाप्त किया जा रहा है. यही नहीं इसकी  आलोचना करने पर दो लाख का जुर्माना और एक साल की सजा भी हो सकती है. फ़िर भी सवाल उठता है कि क्या देश की जनता इस कानून को स्वीकार करेगी.  

ऐसी संभावना है कि जल्द ही भारतीय जेनेटिक मोडिफ़ाइड जीएम फ़सल (जीएम) के खाद्य खाने के लिए कानूनन बाध्य होंगे. ऐसा इसलिए क्योंकि जीएम खाद्य के खिलाफ़ अब कोई आवाज नहीं उठा सकेगा. बीटी बैंगन के खिलाफ़ पूरे देश में जो बवाल उठा, उसे देखते हुए सरकार ने इस बार पहले से तैयारी कर ली है.  दुनिया के किसी देश की सरकार ने ऐसी पहल नहीं की, जो हमारी सरकार करने जा रही हैं.

जीएम फ़सलों को सुरक्षा प्रदान करने और उसे बाजार में लाने के लिए विधेयक पेश होनेवाली है. कानून पारित होने के बाद जीएम फ़सल के खिलाफ़ कोई कदम अपराध माना जायेगा. बायोटेक्नोलॉजी रेगुलेटरी अथॉरिटी बिल का मसौदा इनमें से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित संवर्धन करेगा. भारत में 58 खाद्यान्नों, सब्जियों, एवं फ़लों पर जीएम परीक्षण चल रहा है. ।41 खाद्यान्न एवं सब्जियां ऐसी हैं, जो पूरे देश में सामान्य तौर पर उपयोग में आती हैं.

बहुराष्ट्रीय कंपनियां खाद्यान्न, सब्जियां एवं फ़लों को जीएम तकनीक से तैयार करेंगी. और इन उत्पादों को स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह बताना भी अपराध होगा. बीआरएइ के अनुच्छेद 62(13)के  अनुसार जो व्यक्ति  बिना साक्ष्यों के या वैज्ञानिक रिकार्ड के जनता को गुमराह करेगा, उसे कम से कम छह माह और अधिक से अधिक एक साल की सजा या दो लाख रुपये तक के अर्थदंड या दोनो सजाएं सुनायी जा सकती हैं.

बीटी बैगन के व्यवसायिक उत्पादन की अनुमति जेनेटिक इंजीनियिरग एप्रूवल कमेटी (जीइएसी) ने 2009 में दी थी. राज्य सरकारों के साथ अनेक संस्थाओं के विरोध से केंद्र सरकार ने चुप्पी साध ली थी. मगर अब केंद्र सरकार ने स्पष्ट कह दिया है कि जीएम खाद्य स्वास्थ्य को किसी प्रकार से नुकसान नहीं पहुंचाते. इस कवायद के साथ जीएम फ़सलों को भारत में स्थापित करने  के  लिए (बीआरएइ)कोनून लागू होने जा रहा है.

कानून बन जाने के बाद राज्य सरकारें विरोध नहीं कर सकेंगी. संस्थाएं और लोग जो जीएम के खिलाफ़ आवाज उठायेंगे, वे कानून के तहत अपराधी होंगे. समाचार पत्रों में भी जीएम फ़सल के बारे में कोई टीका-टिप्पणी करना भी इस कानून का उल्लंघन होगा.  जीएम उत्पाद के  शोध, अनुसंधान की जानकारी सूचना के अधिकार के तहत नहीं ली जा सकती है. स्पष्ट है कि जीएम फ़सल का पर्यावरण, जैव विविधता पर प्रभाव, खाद्य का उपभोग करनेवालों के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव को कोई अखबार या इलेक्ट्रोनिक मीडिया या प्रकाशन जिक्र नहीं कर सकेगा.

भारत में जेनेटिक मोडिफ़ाइड फ़सलों के अपशिष्ट को खाकर कई स्थानों पर पशु मारे जा चुके हैं. कानून पारित हो जाने के बाद भी जीएम फ़सल से ऐसी घटनाएं होती हैं, तो उन्हें प्रकाश में लाना कानूनन अपराध होगा. बायोटेक्नोलॉजी रेगुलेटरी बिल के तहत पुनर्विचार संबंधी ट्ब्यिूनल गठित होगा, जो बायो प्राद्योगिकी  संबंधी मामले की सुनवाई करेगा. ट्रिब्यूनल के  खिलाफ़ केवल सुप्रीम कोर्ट में हीं सुनवाई होगी. भारत के बीज बाजार को बीआरएइ कानून बना कर बहुराष्ट्रीय  कंपनियों को परोसा जाने वाला है.

जीएम फ़सलों से पर्यावरण, जैव विविधता, मानव सहित फ़सल अपशिष्ट को खानेवाले पशुओं को नुकसान पहुंचा है. इस संदर्भ में अनेक अनुसंधान पश्चिमी देशो में भी हो चुके हैं.  यूरोपीय देशों में जीएम फ़सलों का विरोध हो रहा है. मगर वहां  जीएम फ़सलों के संवर्धन के लिए कोई  कानून नहीं बना है. पश्चिमी देशों के खाद्य पदाथरे में जीएम खाद्य पर लेबल लगाना अनिवार्य है.

जनता अगर चाहे तो वह जीएम खाद्य का उपभोग कर सकती है या नहीं. भारत के अनेक कृषि विश्वविद्यालयों में जीएम फ़सलों पर परीक्षण चल रहा है. इसकी जानकारी उन राज्य सरकारों को नहीं है, जिन राज्य सरकारों में ऐसे जीएम फ़सलों पर परीक्षण चल रहे हैं. 2007 में देश के छह राज्यों के  कृषि विश्वविद्यालयों में जीएम धान का परीक्षण किया गया था. इन परीक्षणों के परिणाम आज तक सामने नहीं आये हैं.

जानकारी आम होने तक जीएम धान की फ़सलें खेतों से गायब हो चुकी थीं.उल्लेखनीय है कि सन् 2006 में संसद में बहस के दौरान भारत-अमेरिका कृषि समझौते का जिक्र आया था. समझौते के अंतर्गत भारत सरकार 300 करोड़  रुपये जेनेटिक इंजीनियरिंग के शोध पर खर्च करेगी. बोर्ड में अमेरिकी मूल की दो बहुराष्ट्रीय कंपनियों- मानसेंटो एवं वालमार्ट को शामिल किया गया है.

यह बोर्ड ही तय करेगा कि भारत की कृषि प्रयोगशाला और कृषि विश्वविद्यालय कैसे काम करेंगे?दरअसल जैव संवधिर्त तकनीक से परिवर्तित फ़सलें स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए घातक सिद्ध हुई हैं. अब तक के वैज्ञानिक परीक्षणों से यही तथ्य सामने आये हैं. अगर जीएम फ़सलें स्वास्थ्य के लिए माकूल हैं, तो उस पर हो रहे शोध व परीक्षणों को आज जनता से क्यों छिपाया जा रहा है. इसकी जानकारी को गोपनीय रखने के लिए बीआरएइ क्यों बनाया जा रहा है? जीएम फ़सलों को लाकर भारत की खेती-किसानी पर कौन ओधपत्य जमाना चाहता है? बहुत सारे सवाल हैं, सारे सवाल संसद में उठाये जाते हैं.

अगर संसद में बायोटेक्नोलॉजी रेगुलेटरी अथारिटी बिल पास हो जाये तो शायद ही कोई सवाल करने की हिम्मत जुटा पायेगा. जीएम फ़सलों की घुसपैठ बनाने के लिए लंबे समय से कवायद चल रही है. अगर कानून बन गया तो भारतीय जनता जीएम खाद्य खाने को बाध्य होगी. देखना होगा कि  देश की संसद में बायोटेक्नोलॉजी रेगुलेटरी अथारिटी बिल पर कोई सवाल उठाता है या नहीं? देश के कई हिस्सों से इसके खिलाफ़ आवाज उठी है.

कई गैर सरकारी संस्थाओं ने इस विधेयक और खाद्य के खिलाफ़ आवाज उठाना आरंभ कर दिया है. ऐसे समय में जरूरत है कि देश की तमाम जनवादी ताकतें एक मंच पर आयें और इस विधेयक के खिलाफ़ जागरूकता अभियाने चलायें.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं


http://www.prabhatkhabar.com/news/46366.aspx


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