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न्यूज क्लिपिंग्स् | जो कहा, उसका उल्टा कर रहे हैं- देविन्दर शर्मा

जो कहा, उसका उल्टा कर रहे हैं- देविन्दर शर्मा

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published Published on Sep 9, 2014   modified Modified on Sep 9, 2014
आपने इस पर जरूर ध्यान दिया होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के पहले सौ दिन का कामकाज एक बड़ी व्यावसायिक घटना में तब्दील हो गया। संभवतः यह पहला मौका है, जब बड़े मीडिया घरानों ने देशव्यापी सर्वे के लिए मार्केटिंग एजेंसियों को नियुक्त किया। सर्वे के परिणाम अखबारों के पहले पन्ने और टीवी चैनलों पर न केवल प्रकाशित-प्रसारित किए गए, बल्कि पूरे दिन सर्वे रिपोर्टों पर चर्चा भी होती रही।

सौ दिनों के कामकाज का आकलन वर्षों से पत्रकारीय काम रहा है, लेकिन अब यह काम बाजार ने शुरू कर दिया है। आश्चर्य नहीं कि फादर्स डे, मदर्स डे या वेलेंटाइन डे की तरह किसी भी सरकार का हंड्रेड डे भी पांच वर्षों में एक बार बाजारू परंपरा बन जाए। चूंकि सौवें दिन के आसपास शेयर बाजार भी चढ़ गया, लिहाजा बाजार के लिए मोदी सरकार को सराहने के साथ-साथ और ज्यादा निवेश के लिए दबाव बनाने एवं प्रोत्साहित करने का भी यह माकूल अवसर बन गया। मोदी सरकार के सौ दिनों के तमाम सर्वे में विभिन्न लिंग, आयु समूह एवं सामाजिक-आर्थिक स्तर के लोगों ने भाग लिया। लेकिन मैंने जितने सर्वे का अवलोकन किया, उन सबमें एक बात समान थी। वे सभी निवेश बढ़ाने की वकालत कर रहे थे। सभी सर्वे में सब्सिडी घटाने, उद्योग जगत को ज्यादा राहत देने और भूमि अधिग्रहण कानून को और ज्यादा आसान बनाने की बात कही गई। कोई और बात मायने रखती नहीं दिखी।

वास्तव में बाजार की इस पूरी कवायद का, और मुख्यधारा के अखबारों का भी, जोर मुख्यतः प्रधानमंत्री पर बड़े सुधारों के लिए दबाव बनाना था। नहीं मालूम कि मीडिया की मुहिम का भविष्य में नरेंद्र मोदी की सोच एवं कदमों पर कितना प्रभाव पड़ेगा, लेकिन इतना स्पष्ट है कि वह बहुत सोच-समझकर कदम उठाते हैं। शौचालय के निर्माण पर जोर देते हुए सांसदों एवं विधायकों से स्कूलों, सार्वजनिक जगहों एवं देश भर में लोगों के घरों में शौचालय निर्माण के लिए अपनी निधि का उपयोग करने के लिए कहना ऐसी बातें हैं, जो बाजार को प्रोत्साहित नहीं करतीं। इसी तरह जब तक भारत की खाद्य सुरक्षा संरक्षण का स्थायी समाधान नहीं निकलता, तब तक विश्व व्यापार संगठन के मंच से व्यापार सुगमता समझौते पर हस्ताक्षर करने से इन्कार करना बाजार समर्थकों को अच्छा नहीं लगता। पर मुझे यह बात अच्छी लगी, जब उन्होंने कहा कि इस फैसले की राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय मीडिया में आलोचना हो सकती है, लेकिन भारत अपने किसानों की आजीविका सुरक्षा के साथ समझौता नहीं करेगा। अंतरराष्ट्रीय व्यापार समुदाय के लिए यह एक सख्त संदेश है, जो इस देश के पूर्व प्रधानमंत्रियों द्वारा कभी नहीं दिया गया।

कुछ टीवी चैनलों पर चर्चा में भाग लेते हुए मैंने प्रधानमंत्री कार्यालय की निर्णायक भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि उसने अपना काम शुरू कर दिया है। कैबिनेट सदस्यों के अनुशासन एवं कार्यसंस्कृति का असर सरकारी मशीनरी पर भी दिख रहा है। यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं है कि नौकरशाह एवं अधिकारी समय पर ऑफिस आने लगे हैं और वे सरकारी खजाने को चूना नहीं लगा रहे। एक मजबूत कार्यसंस्कृति का राज्य सरकारों तक प्रसार होगा, तो इसका प्रभाव पड़ेगा ही।

स्पष्ट जनादेश का इस्तेमाल करते हुए बदलाव लाना असली जरूरत है, पर यह समाज और पर्यावरण की कीमत पर नहीं हो सकता। जैसे कि खाद्य मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाना सरकार की शीर्ष प्राथमिकता है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि अधिक उत्पादन करने वाले किसानों को दंडित किया जाए। यह आश्चर्यजनक है कि मुद्रास्फीति कम करने की कोशिश में खाद्य एवं कृषि मंत्रालय ने खरीद मूल्य में इस आधार पर कमी करने की बात कही है कि इससे खाद्यान्न की कीमत बढ़ती है। इस साल जब सरकारी कर्मचारी 107 फीसदी महंगाई भत्ता पा रहे हैं, तब खाद्यान्न की खरीद मूल्य को लगभग पिछले वर्ष के स्तर पर बनाए रखकर किसानों को दंडित किया जा रहा है। इससे भी बड़ी बात यह कि केंद्र ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि वे खरीद मूल्य पर बोनस न दें। यदि उन्होंने बोनस दिया, तो केंद्र अनाज की खरीद से हाथ खींच लेगा।
यह निर्देश मोदी सरकार के उस चुनावी वायदे के खिलाफ जाता है, जिसमें उन्‍होंने कहा था कि वे किसानों को उनके उत्पाद की ऊंची कीमत देंगे। जीएम फसलों को गुपचुप अनुमोदन देने एवं सार्वजनिक वितरण प्रणाली का पुनर्गठन करने के इरादों पर दोबारा गौर करने की जरूरत है। यह दोहरापन नहीं चलेगा कि एक तरफ सरकार किसानों की सुरक्षा के नाम पर विश्व व्यापार संगठन के कानूनों का विरोध करे, दूसरी तरफ बाजार द्वारा प्रस्तावित स्वायत्त उदारीकरण की तरफ बढ़े। सरकारी खरीद खत्म करना किसानों के लिए मौत के समान होगा। मगर सरकार ऐसा ही करती दिख रही है, क्योंकि कृषि के मोर्चे पर अब वही लोग मोदी सरकार को सलाह दे रहे हैं, जो कांग्रेस के दस वर्षों के कुशासन के दौरान आर्थिक सलाहकार थे।

लाल किले के प्राचीर से भारत को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने की बात करते हुए प्रधानमंत्री ने ‘जीरो डिफेक्ट, जीरो इफेक्ट'  पर जोर दिया था, जिसका मतलब है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने की इजाजत नहीं दी जाएगी। लेकिन वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने न केवल लंबित परियोजनाओं को मंजूरी दी, बल्कि पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील पश्चिमी घाट को खनन एवं अन्य नुकसानदेह उद्योगों से मुक्त रखने संबंधी माधव गाडगिल रिपोर्ट को भी खारिज कर दिया। राष्ट्रीय हरित पंचाट अधिनियम, वनाधिकार अधिनियम और भूमि अधिग्रहण अधिनियम को कमजोर करने की कोशिश बताती है कि जीरो इफेक्ट की खुलेआम अवहेलना की जा रही है।

यह तो तय है कि बाजार कभी ये मुद्दे नहीं उठाएगा, क्योंकि उसका मानना है कि पर्यावरणीय मानदंड त्वरित औद्योगिक विकास की राह में बाधक हैं। यही वजह है कि मुख्यधारा का मीडिया समाज एवं पर्यावरण पर पड़ते असर की बात नहीं करता। खामोशी से उसे गौण कर देता है। क्या उम्मीद करें कि खुद प्रधानमंत्री उस विकास के बारे में सोचेंगे, जो आम आदमी और पर्यावरण का हितैषी हो!

(लेखक कृषि नीति एवं व्यापार विशेषज्ञ हैं)


www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/doing-reverse-what-they-said-hindi/


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