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न्यूज क्लिपिंग्स् | जो बन गए गरीब और बेसहारों के मसीहा

जो बन गए गरीब और बेसहारों के मसीहा

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published Published on Mar 28, 2016   modified Modified on Mar 28, 2016
मनीष पाराशर, इंदौर। ज्यादातर लोग या तो अपने लिए काम करते हैं या परिवार के लिए। इस भाग-दौड़ भरी जिंदगी में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिन्होंने दूसरों की जिंदगी भी संवारने का जिम्मा उठा रखा है। ये कोई धनवान नहीं, बल्कि दिनभर रोड पर चलने वाले ऑटो ड्राइवर हैं। कोई बच्चों के लिए चलती-फिरती संस्कार की पाठशाला चलाता है तो कोई बेसहारा बुजुर्गों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहता है। ये शहर के ऐसे मसीहा हैं, जो अपने काम से कई लोगों की मदद कर रहे हैं। ऐसी ही शख्सियतों से मुखातिब कराती नईदुनिया की एक रिपोर्ट।

कमजोर तबकों के बच्चों से नहीं लेते पैसा

तुलसी नगर शिमला पार्क निवासी श्याम कुमार शर्मा ऑटो ड्राइवर हैं। उनके दो बेटे हैं। मनीष नाम का एक बेटा चार्टर्ड अकाउंटेंट है तो दूसरा बेटा राहुल एमबीए कर चुका है। दोनों ने कंपनी खोल रखी है। इसके बावजूद शर्मा आज भी कॉलोनी के बच्चों के लिए ऑटो चलाते हैं। वे 1980 से ये काम कर रहे हैं। आज भी वे ड्राइवर की यूनिफॉर्म पहनकर बच्चों को स्कूल छोड़ने और लाने का काम करते हैं। इसके लिए वे पैसे भी लेते हैं, लेकिन कमजोर तबके के बच्चों को मुफ्त में सेवा देते हैं। शर्मा के मुताबिक, जीवन के शुरुआती दिनों में मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी।

बच्चों को जैसे-तैसे पढ़ाया। आज वे अच्छे मुकाम पर हैं। मैं गरीब माता-पिता की उम्मीदों को समझता हूं। कई बच्चों के पेरेंट्स ऐसे हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। मैं उनसे बिना पैसे लिए उनके बच्चों को स्कूल छोड़ता और लाता हूं। मुझे बच्चों में मुझे भगवान नजर आता है। परिवार को लगता है कि बच्चे मेरे साथ जा रहे हैं, यानी सुरक्षित हैं। जब कोई बच्चा टिफिन भूल जाता है तो मैं दुकान से टिफिन पैक कराकर स्कूल देकर आता हूं।

चलती-फिरती पाठशाला, बच्चों को कंठस्थ करा दिए श्लोक

वल्लभ नगर दुबे का बगीचा निवासी सुभाष पवार भी स्कूल ऑटो चलाते हैं। पहली से 10वीं तक के बच्चों को घर से स्कूल और स्कूल से घर छोड़ने का काम करते हैं। घर से स्कूल के बीच करीब ढाई किलोमीटर का फासला है। इस दौरान वे बच्चों को कठिन से कठिन संस्कृत के श्लोक कंठस्थ करा देते हैं। कठिन माने जाने वाले राम रक्षा स्त्रोतम को भी उन्होंने बच्चों को याद करा दिया है। इसके अलावा गणपति के 108 नाम, हनुमान, राधा और सूर्य के 12 नाम बच्चों को कंठस्थ करा दिए।

इनसे प्रेरित होकर 56 दुकान निवासी दसवीं में पढ़ने वाले संगम नेरकर ने इंटरनेट पर मोबाइल पाठशाला नामक वेबसाइट और फेसबुक पर संस्कार ऑटो रिक्शा नाम से वेबपेज भी बनाया है, जिससे स्कूल के सैकड़ों छात्र जुड़े हैं। पेरेंट्स की मानें तो दौड़-भाग की जिंदगी में वह खुद के लिए समय नहीं निकाल पाते। ऐसी स्थिति में पवार ऑटो ड्राइवर नहीं, बच्चांे के संस्कार के लिए खुद एक शिक्षक बनकर आए हैं। हम जो नहीं कर पाते वह पवार कर रहे हैं। उनकी इसी सेवा के कारण पेरेंट्स इनसे जुड़े हैं और कई लोग जुड़ना चाहते हैं।

पवार ने बताया कि एक दिन मुझे लगा कि बच्चों के लिए कुछ काम करना चाहिए। यह सोचकर मैंने इतिहास के वीर महापुस्र्षों की जानकारी उन्हें देना शुरू की। संस्कृत नहीं आती थी। इसलिए रात में खुद श्लोक पढ़ता। उसके बाद रास्ते में बच्चों को एक-एक लाइन दोहराने को कहता। इस तरह उन्हंे हर श्लोक कंठस्थ हो गया।

बहन मानकर करते हैं सेवा, 24 घंटे मदद को तैयार

जूना रिसाला के मोहम्मद रफी चौहान भी ऑटो ड्राइवर हैं। उनके दो भाई व एक बहन अफरोज है। अफरोज की हैदराबाद में शादी हो चुकी है। बहन की सूरत घर के पास रहने वाली साधना व्यास से मिलती है। व्यास की दो बेटियां हैं। शहर में बढ़ते अपराध को देखते हुए उन्हें असुरक्षा का भय था। ऐसी स्थिति में जब भी दोनों कहीं आती-जातीं तो रफी उनकी मदद के लिए बिना पैसे लिए लाते ले जाते हैं। जब बेटी एक्सीडेंट में घायल हुई तो वह घंटों सेवा के लिए अस्पताल में खड़े रहते थे। रफी ने बताया कि वह साधना में ही अपनी बहन को देखते हैं।

हैदराबाद में होने के कारण बहन से मिलने में सालों लग जाते हैं, लेकिन साधना को देखने के बाद बहन की कमी दूर हो जाती है। साधना का कहना है कि रफी को वह जानती भी नहीं थी, लेकिन बार-बार सेवा भाव से खड़े रहने का कारण उनसे पूछा तो उन्होंने अफरोज का फोटो दिखाकर बताया कि यह मेरी बहन है। वह हू-ब-हू मेरी तरह ही दिखती है।

डिलिवरी के समय नहीं लेते रुपए, बेटी होने पर बांटते हैं मिठाई

रफी की ही तरह उनके कुछ ऑटो चलाने वाले साथी भी हैं। रफी ने बताया कि वह और उनके कुछ ड्राइवर साथी जब भी किसी गर्भवती को डिलिवरी के समय अस्पताल छोड़ने जाते हैं तो किराया नहीं लेते। बेटी होने पर मिठाई का पैकेट ले जाकर अस्पताल में उन्हें देते हैं। इसके पीछे का मकसद लड़का-लड़की का भेदभाव दूर करना है। ये लोग बेसहारा बुजुर्गों की मदद के लिए भी हमेशा तैयार रहते हैं।

 


http://naidunia.jagran.com/madhya-pradesh/indore-became-champion-of-poor-and-helpless-697085


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