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न्यूज क्लिपिंग्स् | झारखंड में विकास की राशि भी खर्च नहीं होती- मनोज प्रसाद

झारखंड में विकास की राशि भी खर्च नहीं होती- मनोज प्रसाद

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published Published on Dec 8, 2014   modified Modified on Dec 8, 2014
प्रभात खबर,राज्य गठन के बाद से ही यहां विकास कार्य के लिए मिली राशि की चौथाई भी सरकारी महकमे खर्च नहीं कर पा रहे. सरकारी अफसरों की अकर्मण्यता से हर साल करोड़ों रुपये लैप्स कर जाते हैं. राज्य की जनता को उनके हक से वंचित कर दिया जाता है, जबकि इसी काम के लिए लाखों रुपये का वेतन सरकारी अधिकारी उठाते हैं.

राज्य में विधानसभा चुनाव हो रहा है. चुनाव लड़ रहे किसी भी राजनीतिक दल ने राज्य में खर्च हुई राशि तथा इससे हुए बदलाव पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया है.

क्यों इतने खर्च के बावजूद राज्य की सड़कें, नालियां, अस्पताल व स्कूल, यहां तक कि नदियां व तालाब तक बरबाद हो रहे हैं? भाजपा, कांग्रेस व झामुमो जैसे किसी भी दल ने, जिन्होंने झारखंड में शासन किया, अपने घोषणा पत्र में इस मुद्दे पर एक शब्द नहीं लिखा है. जनहित में बेहतर खर्च व विकास के प्रति अपनी योजना बताने में भी ये दल नाकाम रहे हैं.

रांची : 15 साल पहले नौ फरवरी 1999 के दिन एक भीड़ राजभवन को घेरे खड़ी थी. तत्कालीन बिहार सरकार ऊर्जा विभाग का फंड उपलब्ध नहीं करा पायी थी, जिसकी वजह से गरीबी रेखा से नीचे के किसानों को विद्युत कनेक्शन नहीं दिया जा सका था.
लोग इसी का विरोध कर रहे थे. इधर, 14 अप्रैल 2014 को तत्कालीन मुख्य सचिव आरएस शर्मा ने ऊर्जा विभाग के प्रधान सचिव को एक पीत पत्र लिखा. इसमें यह जिक्र था कि विभाग ने गत वित्तीय वर्ष 2013-14 के दौरान उसे मिले कुल बजट 750 करोड़ रुपये में से सिर्फ 198.81 करोड़ रुपये (सिर्फ 27 फीसदी) खर्च किये थे. मुख्य सचिव ने इस कम खर्च पर गंभीर चिंता जतायी थी तथा प्रधान सचिव से जवाब-तलब किया था. वहीं वित्तीय वर्ष 2013-14 के दौरान विभागीय बजट के पूर्ण इस्तेमाल के लिए सचिव से कारगर पहल करने को कहा गया था. विभागीय सचिव ने मुख्य सचिव को कोई जवाब ही नहीं दिया.

चालू वित्तीय वर्ष 2014-15 में भी विभाग का खर्च संतोषजनक नहीं है. यही नहीं ट्रांसमिशन लाइन के लिए मिले 345 करोड़ रुपये के प्रावधान से संबंधित एक बिल करीब पांच महीने तक लंबित रहा. इससे संचरण लाइन निर्माण का कार्य भी नौ माह प्रभावित हुआ. इस बार भी विभाग के 750 करोड़ रुपये में से अक्तूबर माह तक सिर्फ 26 फीसदी राशि खर्च हुई है. यानी एक बड़ी रकम फिर लैप्स होने के कगार पर है.

एक कहावत है आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपैया. पर 14 साल पुराने इस राज्य में आमदनी रुपैया व खर्चा अठन्नीवाली बात लागू होती है. इससे विकास कार्य व खर्च के मामले में राज्य की ब्यूरोक्रेसी की पूरी तरह फेल हो जाने की बात भी पुष्ट होती है. हालांकि बजट के कम खर्च संबंधी कारणों पर कोई शोध नहीं हुआ है, लेकिन कुछ ऐसे अधिकारियों के अनुसार, जिनके विभाग का खर्च तुलनात्मक रूप से बेहतर होता है, इस समस्या की जड़ में ब्यूरोक्रेसी के स्तर पर आयी गिरावट है.

इममें पहला कारण वह भ्रष्ट आचरण है, जिसमें बगैर घूस के संबंधित अधिकारी काम नहीं करते. दूसरा कारण-अधिकारियों का खर्च संबंधी कोई लघु या दीर्घ कार्य योजना नहीं बनाना है. कम खर्च की तीसरी वजह एक स्थापित हो चुकी परंपरा है कि ज्यादातर खर्च नये वर्ष में जनवरी से मार्च तक किये जाते हैं. दूसरे कई राज्यों में ऐसा नहीं होता. वहां सरकार वर्ष भर समान अनुपात में खर्च करती है.

कम खर्च का चौथा कारण किसी प्रोजेक्ट के अनुमोदन के बाद इसके डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) व निविदा (टेंडर) प्रक्रिया में लगनेवाला लंबा समय है. कई बार अधिकारियों के तबादले से भी प्रोजेक्ट शुरू होने में अनावश्यक विलंब होता है. वहीं मंत्रियों की शह पर बार-बार होनेवाले ट्रांसफर-पोस्टिंग से अधिकारियों में टीम वर्क की कमी तथा नये अधिकारी द्वारा रिश्वत के लिए अपने पूर्व के अधिकारी के कार्यकाल में तैयार डीपीआर व टेंडर को अमान्य करना भी विकास कार्यो की चाल धीमी करने का पांचवां कारण है. झारखंड में विकास कार्यो की धीमी रफ्तार की एक और वजह है. लेवी के कारण नक्सली इलाके में किसी प्रोजेक्ट के लिए बने डीपीआर व टेंडर रद्द हो जाते हैं. गत चार वर्षो से यह समस्या बनी हुई है, पर सरकार अब तक इसका समाधान नहीं निकाल सकी है.
इस स्थिति से निबटने के लिए केंद्र सरकार ने एक अलग प्रावधान किया कि निर्माण कार्य से जुड़े विभागों (पब्लिक वर्क्‍स डिपार्टमेंट) के विकास कार्य नक्सल प्रभावित जिले के उपायुक्तों के माध्यम से बगैर टेंडर के कराये जा सकते हैं. जून 2013 की अपनी झारखंड यात्रा के दौरान योजना आयोग के सदस्य डॉ कस्तूरीरंगन ने विभिन्न वर्क्‍स डिपार्टमेंट से इस नियम को प्रभावी बनाने का आग्रह किया था.

इधर, अब तक किसी विभागीय सचिव ने इस पर पहल नहीं की है. ज्यादातर अधिकारी बजट व खर्च की ससमय समीक्षा तक नहीं करते. इसका कोई लक्ष्य तैयार नहीं करते. फिर राज्य सरकार ने केंद्र की तर्ज पर अपने विभागीय सचिवों-प्रधान सचिवों को 2.5 करोड़ तक खर्च कर सकने के लिए अब तक अधिकृत नहीं किया है.

(लेखक झारखंड स्टेट न्यूज डॉट कॉम के संपादक हैं)

कई विभागों का प्रदर्शन बेहतर नहीं

दरअसल ऊर्जा सचिव जैसे आइएएस अधिकारी अकेले नहीं हैं. ऐसे कई और सचिव भी हैं, जिनके विभाग का खर्च संबंधी प्रदर्शन बेहतर नहीं है. उदाहरण के लिए वित्तीय वर्ष 2013-14 में ग्रामीण विकास विभाग को मिले 700.50 करोड़ रुपये में से सिर्फ 526 करोड़ रुपये ही खर्च कर सका. वहीं कल्याण विभाग ने 621.08 करोड़ रुपये में से 561.31 करोड़ तथा खाद्य आपूर्ति विभाग ने 725 करोड़ रुपये के फंड के विरुद्ध सिर्फ 544.63 करोड़ रुपये ही खर्च किये.

http://www.prabhatkhabar.com/news/jharkhand/jharkhand-development-amount-spent/217341.html


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