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न्यूज क्लिपिंग्स् | तनाव के कगार पर असम-- योगेन्द्र यादव

तनाव के कगार पर असम-- योगेन्द्र यादव

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published Published on Jan 12, 2018   modified Modified on Jan 12, 2018
असम बारूद के ढेर पर बैठा है. वहां की पार्टियां इसमें आग सुलगाकर वोट की रोटी सेंक रही हैं. बाकी देश आंख मूंदे बैठा है या सोच रहा है कि जब विस्फोट होगा, तब देखा जायेगा. समस्या पुरानी है, लेकिन संदर्भ नया है. विदेशी अाप्रवासियों का सवाल कई दशकों से असम का नासूर बना रहा है. आजादी के बाद से ही राज्य में देश के भीतर और बाहर दोनों तरफ से ही भारी संख्या में आप्रवासी आये. इनमें हिंदीभाषी थे, बड़ी मात्रा में झारखंड के आदिवासी थे, पश्चिम बंगाल से आये बंगाली हिंदू थे, और कुछ नेपाली भी थे. लेकिन, सबसे बड़ी संख्या बांग्लादेशी हिंदू और मुस्लिम आप्रवासियों की थी. इनमें कुछ धार्मिक प्रताड़ना के कारण और कुछ रोजगार की तलाश में आये थे. विभाजन के समय बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) में 24 फीसदी हिंदू आबादी थी, जो आज नौ फीसदी रह गयी है. इनमें से अधिकतर लोग भारत में आकर बस गये.

आप्रवासन से असम के धार्मिक और भाषायी चरित्र पर गहरा असर पड़ा है. हालांकि, सरकार ने 2011 की भाषायी जनगणना के आंकड़े अभी तक जारी नहीं किये हैं, लेकिन 2001 की जनगणना में ही असमिया भाषा अपने ही प्रदेश में अल्पसंख्यक बन चुकी थी.

वर्ष 1991 से 2001 के बीच असमिया बोलनेवालों की जनसंख्या 58 फीसदी से घट कर 48 फीसदी हो गयी थी और बांग्लाभाषी आबादी 21 फीसदी से 28 फीसदी हो चुकी थी. अनुमान है कि अब प्रदेश में असमियाभाषी 40 फीसदी के करीब हैं, तो बांग्लाभाषी लगभग एक-तिहाई. विभाजन के बाद से असम में मुस्लिम आबादी 25 फीसदी से बढ़ कर 2011 तक 34 फीसदी हो गयी थी. हालांकि, असम के मुस्लिम बहुल हो जाने की बात बेतुका प्रोपेगैंडा है, फिर भी असम के मूल निवासी असमिया, बोडो और अन्य समुदायों की चिंता समझ आती है. वे घृणा और भड़काव की राजनीति के औजार बनते हैं. उधर आप्रवासी घबराहट और हिंसा का शिकार बनते हैं. यह पुराना ज्वालामुखी अब फिर फूटने की कगार पर है.

वर्ष 1985 के असम समझौते में ही यह फैसला हुआ था कि 25 मार्च, 1971 के बाद आये सभी विदेशी आप्रवासियों की पहचान की जायेगी. लेकिन व्यवहार में ऐसा हुआ नहीं. बीस साल बाद 2005 में एक नये समझौते से इसे दोहराया गया. इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि 1951 में बने नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस (एनआरसी) की नये सिरे से समीक्षा हो और नागरिकों और विदेशियों की शिनाख्त हो.

इस प्रक्रिया को पूरा करने की सीमा 31 दिसंबर, 2017 तय की गयी थी. काम पूरा नहीं हुआ, लेकिन सरकार की टालमटोल को नकारते हुए अदालत ने कम-से-कम पहली सूची जारी करने का आदेश दिया था. कुल 3.29 करोड़ लोगों ने आवेदन दिया था, जिनमें से अभी तक करीब दो करोड़ नामों की सूची ही जारी हो सकी है. कई नामों की जांच चल रही है.

लाखों लोगों के कागज अधूरे हैं, इनमें लगभग 27 लाख ऐसी मुस्लिम औरतें हैं, जिनके पास शादी का कोई कागजी सबूत नहीं है, सिवाय पंचायत द्वारा जारी किये प्रमाणपत्र के. बड़े-बड़े नाम सूची से गायब हैं. अल्पसंख्यक खौफजदा हैं. ऐसे नाजुक मोड़ पर राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. दुर्भाग्यवश ज्यादातर पार्टियां घिनौने खेल खेल रही हैं.

प्रदेश में सबसे लंबे समय तक राज करनेवाली कांग्रेस ने विदेशी आप्रवासियों को खुलकर आने दिया और उनका वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया. कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी बंगाली आप्रवासियों के बारे में चुप्पी बनाये रखी और इस सवाल को उठानेवालों को प्रतिक्रियावादी ठहराया. इसलिए स्थानीय जनता की चिंता की अभिव्यक्ति असम आंदोलन के रूप में हुई. उस आंदोलन से पैदा हुई पार्टी असम गण परिषद दो बार सत्ता में आयी, लेकिन इसका हल करने में नाकाम रही.

पिछले कुछ वर्षों से भाजपा इस मुद्दे का संप्रदायीकरण करने में सफल हुई है. असम में उसकी राजनीति हिंदू बंगाली वोट बैंक पर टिकी है. वह बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल से आये हिंदुओं को नागरिक का दर्जा देना चाहती है.

चूंकि, भाजपा केंद्र और राज्य दोनों जगह सत्ता में है, इसलिए एजेंडे को कानून और प्रशासन के जरिये लागू कर रही है. भाजपा की असम सरकार ने पंचायत द्वारा जारी प्रमाणपत्रों को अवैध घोषित कर दिया है, जिससे बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाएं नागरिकता से वंचित हो जायेंगी. उधर केंद्र सरकार देश के नागरिकता कानून में एक खतरनाक संशोधन ला रही है. इस विधेयक के अनुसार पड़ोसी देशों से आनेवाले तमाम गैर-मुस्लिम आप्रवासियों को आसानी से भारत की नागरिकता दे दी जायेगी. मतलब यह है कि बांग्लादेश से आये हिंदू तो नागरिक बन सकेंगे, लेकिन मुसलमान नहीं. हिंदू वोट के इस खेल में भाजपा जिन्ना के 'दो धर्म -दो राष्ट्र' सिद्धांत को स्वीकार करती दिखायी दे रही हैं.

आज असम में दो खेमे बन गये हैं. हिंदू संगठन एनआरसी की आड़ लेकर हिंदू आप्रवासियों को नागरिक बनाने और मुसलमानों को नागरिकता से वंचित करने में जुटे हैं. दूसरी ओर, तमाम मुस्लिम संगठन एनआरसी की प्रक्रिया का ही विरोध कर रहे हैं. इतना तनाव है कि कब कुछ अनहोनी घटना हो जाये, कह नहीं सकते. राष्ट्रीय एकता के इस खतरे पर कोई चिंतित नहीं है.

ऐसे में सच्चे देशप्रेमियों को असम को अपने एजेंडे पर लाकर इस सवाल पर एक राष्ट्रीय सहमति बनानी होगी. इस सहमति के तीन सूत्र हो सकते हैं. पहला, असम के मूल निवासियों की भाषायी, सांस्कृतिक और जातीय चिंता वाजिब है. इसलिए एनआरसी के प्रक्रिया को बेरोकटोक चलने देना चाहिए.

दूसरा, भारतीय नागरिकता का प्रमाण देने में किसी भी किस्म के धार्मिक भेदभाव की गुंजाइश को खत्म करना चाहिए. पंचायत द्वारा दिये गये प्रमाणपत्र को स्वीकार करना चाहिए. तीसरा, संसद में पेश भारतीय नागरिकताके कानून में संशोधन के विधेयक को वापस लिया जाना चाहिए, क्योंकि यह हमारे संविधान और राष्ट्रीय आंदोलन की भावना के विपरीत है.

असम का सौभाग्य है कि इस संकट की घड़ी में असम के कुछ अग्रणी बुद्धिजीवी, जैसे- हिरेन गोहाईं और अपूर्ब बरुआ, उपरोक्त प्रस्ताव के साथ खड़े हैं. आशा है, असम और देश उनकी आवाज सुनेगा.


https://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/1111140.html


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