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न्यूज क्लिपिंग्स् | तिल का ताड़ बना रहे अमर्त्य सेन- पुष्पेश पंत

तिल का ताड़ बना रहे अमर्त्य सेन- पुष्पेश पंत

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published Published on Feb 23, 2015   modified Modified on Feb 23, 2015
नो बेल पुरस्कार विजेता भारत रत्न अमर्त्य सेन विश्वविख्यात हस्ती हैं. जब से उन्होंने इस खुलासे के साथ नालंदा अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कुलाधिपति से इस्तीफा दिया है कि मौजूदा सरकार उन्हें इस पद पर नहीं देखना चाहती, तब से एक नयी बहस गरमाने लगी है. सेन ने यह तोहमत भी लगाई है कि देश में शिक्षा का स्तर गिर रहा है और मोदी सरकार शैक्षिक संस्थाओं की स्वायत्तता नष्ट कर रही है.

कांग्रेस भला यह मौका कैसे चूक सकती थी! उसने शोर मचाना शुरू कर दिया है कि सेन भारत के अनमोल रतन हैं- वैश्विक सार्वजनिक बौद्धिक- उनका यह अपमान कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता. अमर्त्य बाबू के समर्थन में नारे बुलंद करने वालों में हार्वर्ड में पढ़ाने वाले सुगाता बोस तथा न्यूयॉर्क के तानसेन सेन के सिवा हर मौके पर मुखर लॉर्ड मेघनाद देसाई प्रमुख हैं. बात आगे बढ़ाने से पहले कुछ तथ्य पेश करना बहुत जरूरी है.

नोबेल पुस्कार विजेता या भारत रत्न से सम्मानित व्यक्ति सर्वगुण संपन्न और किसी भी तरह की पक्षधरता या पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं समझा जा सकता. नोबेल पुरस्कारों की राजनीति जगजाहिर है और भारत रत्न भी निर्विवाद नहीं रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय वैचारिक शक्ति संघर्ष तथा देशी सत्ता समीकरण इन खिताबों को प्रभावित करते रहे हैं. इसका अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि अमर्त्य सेन इनके योग्य पात्र नहीं या उनकी असंदिग्ध प्रतिभा के हम कायल नहीं. हम मात्र यह रेखांकित करना चाहते हैं कि इनके ‘वजन' से बहस में सवाल उठाने वाले को दबाया नहीं जाना चाहिए! जिन परिस्थितियों में सेन कुलाधिपति नामजद हुए या तदुपरांत उन्होंने अपने प्रिय पात्र का चयन कुलपति पद के लिए किया, वह निर्विवाद नहीं.

प्रक्रिया कतई पारदर्शी नहीं थी. औपनिवेशिक मानसिकता की बेड़ियों में जकड़े लोगों के लिए नालंदा का पुनर्जन्म तभी हो सकता था, जब दाई की भूमिका विदेश में मान्यता प्राप्त प्रवर-विद्वत मंडली निभा रही हो. तब शैक्षिक संस्थानों की स्वायत्तता की चिंता किसी को नहीं थी! पुरानी कहावत है कि पोप अपने सलाहकार कार्डिनल चुनते हैं और फिर यही कार्डिनल पोप को नामजद करने वाले बन जाते हैं.

सुना जा रहा है कि नालंदा विश्वविद्यालय के बोर्ड ने सर्व-सहमति से अमर्त्य सेन को दुबारा कुलाधिपति नियुक्त करने की सिफारिश की है. यह मित्र मंडली तटस्थ कैसे समझी जाय? एक बात और, क्या इस सवा अरब आबादी वाले देश में सिर्फ एक अनमोल रतन है इस जिम्मेवारी के निर्वाह के लिए? अस्सी की दहलीज पर पहुंचे सेन कितना समय या ऊर्जा इस काम के लिए दे सकते हैं, यह सोचना कठिन नहीं. क्या यह हकीकत नहीं कि उपकृत व्यक्ति उनके नाम को मुहर की तरह इस्तेमाल करने को व्याकुल हैं?

सेन ने खुद को प्रशस्ति पत्र देने में विलंब नहीं किया है- वह पूछ रहे हैं, ‘क्या लोगों को पता है कि नालंदा को नया जीवन देने में उनकी उपलब्धियां क्या हैं?' पांच साल बीत जाने के बाद भी आधा दर्जन प्राचार्य नियुक्त नहीं किये जा सके हैं, न ही तकरीबन बीससे ज्यादा छात्रों को दाखिला दिया गया है. दो या तीन विषयों के पाठ्यक्रम निश्चित किए जा सके हैं.

ये कैसे तय किये गये, इसकी जानकारी दुर्लभ है. यह भी भुलाना कठिन है कि 21वीं सदी की नालंदा की धीमी रफ्तार से आजिज आ कर पूर्व राष्ट्रपति एपीजे कलाम ने इस संस्था से अपना संबंध विच्छेद किया था. सेन की यूपीए के प्रति सहानुभूति छिपी नहीं- लोकसभा चुनाव अभियान में मोदी की कड़ी आलोचना करनेवालों में वे रहे हैं. परंतु यहां ये सभी बातें गौण हैं. जो सवाल सेन ने उठाये हैं, वह हमारे सार्वजनिक जीवन के बुनियादी सरोकारों से जुड़े हैं. यह बहस टाली नहीं जानी चाहिए. पर ईमानदारी का तकाजा है कि सेन की अद्वितीय प्रतिभा और प्रभामंडल की चकाचौध में सच को हाशिये पर न धकेलने दिया जाये.

क्या भारत में शिक्षा की दुर्गति पिछले नौ महीनों की सरकार के कारनामों का ही नतीजा है? क्या नालंदा हो या दक्षिण एशिया विश्वविद्यालय इनको असाधारण प्राथमिकता देने से देसी, केंद्रीय ही सही, विश्वविद्यालयों के साथ सौतेली संतान जैसा बर्ताव नहीं हुआ है? विश्वविद्यालय अनुदान आयोग हो, दिल्ली विश्वविद्यालय या आइआइटी अथवा आइआइएम, इन पर चाबुक फटकारने में कपिल सिब्बल कम थे क्या? अपने चहेतों को एनसीइआरटी या भारतीय समाजशास्त्र अनुसंधान परिषद् की जागीरें सौंपने और अपने आदेशानुसार पाठ्य पुस्तकें छपवाने-लगवाने के काम में खासी सरकारी महारत इंदिरा गांधी के शासन काल से ही देखने को मिलती रही है.

विदेशी विश्वविद्यालयों को आमंत्रित करने और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण को बाजार के तर्क के अनुसार प्रोत्साहन देने वाले यज्ञ में खुलेआम आहुति भले ही सेन ने नहीं दी हो, परंतु मौनम सम्मति लक्ष्णम का लाभ यूपीए को निश्चय ही पहुंचाया था. यों अपने अर्थशास्त्रीय शोध में सेन प्राथमिक शिक्षा और पोषण के मुद्दे उठाते रहे हैं, पर लाडली संतान तो नालंदा ही रही है.

सेन हों, सुगाता बोस, तानसेन या मेघनाद देसाई, लॉर्ड भिक्खु पारेख या जगदीश भगवती, रघुरामन या पानागरिया, आशुतोष वाष्ण्रेय हों, इसी बिरादरी के कोई और- हमारी परेशानी यह है कि ये सब जो दशकों से भारत की समसामयिक असलियत या ‘आइडिया ऑफइंडिया' विदेशी आकाओं और समानधर्मा बौद्धिक सहोदरों को समझाते रहें हैं, इस घड़ी मुल्क की तरक्की के नुस्खे सुझाने के लिए उतावले नजर आ रहे हैं.

इस बात की अनदेखी कठिन है कि इस नयी नालंदा का नाता भारत में शिक्षा या संस्थाओ की स्वायत्तता से लेशमात्र का भी नहीं लेना-देना नहीं, यह तो भारत के कोमल राजनय का एक ब्रrास्त्र समझा गया था. इस पर पहले दिन से मानव संसाधन मंत्रलय का नहीं, बल्कि विदेश मंत्रलय का नियंत्रण रहा है. यह भी अमर्त्य सेन की टीम एवं, इसमें दो राय नहीं, इस मंत्रलय के बीच रस्साकशी करवाता रहा है. नंबर 10 जनपथ के करीबी सेन अपनी पहुंच और रुतबे से अब तक बहुत कुछ करवा सके हैं और अब यह संभव नहीं रहा. पर, इसका यह अर्थ नहीं किनिवर्तमान कुलाधिपति पदत्याग के पहले तिल का ताड़ बनाते जायें.

यह सवाल उठाना नाजायज नहीं कि क्यों सेन ने दिल्ली चुनावों में भाजपा के ध्वस्त होने के पहले इस विषय में बोलने की जरूरत महसूस नहीं की? और क्या यदि सरकार उन्हें दूसरा कार्यकाल दे देती, तो सब ठीक हो जाता- शिक्षा का स्तर भी और संस्थाओं की स्वायत्तता भी!

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/332059.html


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