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न्यूज क्लिपिंग्स् | तीस साल पहले और अब!-- नसीरुद्दीन

तीस साल पहले और अब!-- नसीरुद्दीन

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published Published on Nov 7, 2016   modified Modified on Nov 7, 2016
एक दानिश्वर की मशहूर लाइन है- जो इतिहास भूल जाते हैं, वे इसे दोहराने की गलती करते हैं. इतिहास में तीस साल, लंबा वक्त नहीं होता है. फिर भी लगता है कि हम बहुत जल्दी भूलने के आदी हो गये हैं. नतीजतन, बुरे वक्त को दोहराने की गलती करते रहते हैं. फिर वैसा ही माहौल बनाने की कोशिश हो रही है, जैसा तीस साल पहले बनाया गया था. वैसा ही उन्माद पैदा करने की कोशिश हो रही है. समाज को वैसे ही बांटने की कोशिश हो रही है, जैसा तब बांटा गया था.

तीस साल पहले यानी बात 1985-86 की हो रही है. सुप्रीम कोर्ट ने एक मुसलमान तलाकशुदा बुजुर्ग महिला शाहबानो को गुजारा देने के हक में फैसला दिया. इस पर हंगामा बरपा हो गया.

मुसलमानों की दकियानूस और मर्दाना हितों की हिफाजत करनेवाली मजहबी लीडरशिप सड़क पर आ गयी. उस वक्त की कांग्रेस सरकार इस लीडरशिप को खुश करने के लिए झुक गयी. उसने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बरअक्स तलाकशुदा मुसलिम महिलाओं के लिए एक अलग कानून बना दिया. वैसा ही इस बार भी हुआ. मुसलमानों के कट्टर मजहबी लीडरशिप को खुश करने की इस कवायद को आम मुसलमानों का तुष्टीकरण मान लिया गया. इसका फायदा उठाते हुए एक वैचारिक गिरोह ने यह कह कर हंगामा शुरू किया- मुसलमानों का तुष्टीकरण हो रहा है.
(हमें नहीं पता कि मुसलमान स्त्रियों की हकमारी भी तुष्टीकरण के दायरे में आती है.) इस दूसरे मर्दाना, मजहबी दकियानूस और कट्टर समूह के तुष्टीकरण के शोरगुल को खामोश करने के वास्ते सालों से बंद पड़ी बाबरी मसजिद का ताला खुलवा दिया गया. मंदिर आंदोलन शुरू हुआ, तो बाबरी मसजिद को बचाने के नाम पर एक्शन और कोआॅर्डिनेशन कमेटियां बनीं. रथयात्राएं हुईं. फिर 1992 में बाबरी मसजिद ढहा दी गयी. इस दौरान देश में कई जगह भयानक सांप्रदायिक हिंसा हुई.

मुसलमानों की नौजवान पीढ़ी अचानक कई सालों पीछे धकेल दी गयी. स्त्री की हकमारी के लिए सड़क पर मुसलमानों के कट्टरपंथी नुमाइंदे उतरे थे, लेकिन फायदा हिंदुत्ववादी ब्रिगेड ने उठाया.

सबसे ज्यादा चोट देश की धर्मनिरपेक्ष नींव को पहुंची. समाजी स्तर पर सबसे ज्यादा खामियाजा मुसलमानों को भुगतना पड़ा और वे आज तक भुगत रहे हैं. खासतौर पर मुसलमानों की नौजवान पीढ़ी ने इसी बोझ के साथ जवानी की दहलीज पर कदम रखा है. देश की मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक तसवीर में इस 1985-86 की बहुत बड़ी भूमिका है. इन सबके अहम किरदार थे- सुप्रीम कोर्ट, ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड के नेतृत्व में मुसलिम संगठनों का समूह, कांग्रेस, कमजोर सी भारतीय जनता पार्टी और उसके हमख्याल संगठन.

तीस साल बाद, एक मजलिस में इकतरफा जुबानी तीन तलाक और इसके बाद अचानक यूनिफाॅर्म सिविल कोड (यूसीसी) की बहस ने इन सभी किरदारों को दोबारा हमारे सामने ला खड़ा किया है. जाहिर है, तीस साल में चेहरे बदले हैं. तरीके भी बदले हैं. हां, कुछ की भूमिकाएं बदल गयी हैं. उस वक्त की कमजोर भाजपा की राजनीतिक ताकत अब मजबूत है और वह सत्ता में है. कांग्रेस, भाजपा सरीखी कमजोर है. लेकिन, वह किसी भी तरह का माहौल बना पाने की हालत में नहीं है.

हालांकि, 1986 का सबसे ज्यादा फायदा अगर किसी को हुआ, तो वह भाजपा और उसके हिमायती संगठन हैं. उसके विचार के फैलने की जमीन को खाद-पानी इस दौरान सबसे बेहतर तरीके से मिला. उसकी सियासी ताकत और इज्जत कई गुना बढ़ गयी. अर्द्धसत्य की बिना पर नफरत की दीवार इसी दौरान सबसे ज्यादा बुलंद हुई. इसका सबसे ज्यादा खामियाजा मुल्क की सेक्युलर बुनियाद को उठाना पड़ा और उस खामियाजा का असर मुसलमानों पर सबसे ज्यादा दिखा.

मगर, किसी के लिए 1986 सबसे बड़े सबक के रूप में होना चाहिए था, तो वह ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उसके हमख्याल संगठनों के लिए होना चाहिए था. अगर वे जिंदा मुसलमानों की जिंदगियों के हिमायती हैं, तो वे 1986 के बाद जो हुआ उस पर गौर-ओ-फिक्र करते.

इस मुल्क के मुसलमानों की जिंदगी अगर बार-बार दोराहे पर खड़ी कर दी जाती है, तो बोर्ड जैसे संगठन भी इसकी जिम्मेवारी से बच नहीं सकते हैं. एक सेंकेंड के तलाक पर बोर्ड का रुख कहीं से भी और किसी भी पैमाने पर इंसानी नहीं कहा जा सकता है.

इसलिए इसकी हिमायत करके उसने खुद को ठीक उसी मुकाम पर खड़ा कर दिया, जिस पर वह बूढ़ी शाहबानो के चंद रुपये के गुजारे की मुखालफत कर खड़ा हो गया था. जहां तक यूसीसी का मामला है, यह सिर्फ मुसलमानों का मसला नहीं है. इसलिए बेहतर होता, वे अपनी बात कहने और अपने संघर्ष की रणनीति जिंदा जिंदगियों को ध्यान में रख कर बनाते.

मुमकिन है, बोर्ड के नुमाइंदे मजहबी जानकार हों, लेकिन वे समाजी और सियासी जानकार नहीं लगते हैं. अगर वे होते, तो आसानी से समझ सकते हैं कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के पहले ये सरगर्मी क्यों बढ़ रही है. वे समझ सकते थे कि मुसलमानों को ‘देश के खिलाफ' एक गिरोह की शक्ल देकर किस तरह एक समाजी मुद्दे को महज मजहबी मुद्दे में तब्दील करने की कोशिश की जा रही है. आज के वक्त में जब कोई भी मुद्दा मजहबी चोला ओढ़ लेता है, तो उसका सियासी फायदा उठाना ज्यादा आसान होता है. यही इस वक्त हो रहा है.

ऑल इंडिया मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड और उसके हिमायती तंजीम, इस सियासत में एक धुरी बनने का काम कर रहे हैं. यह मुसलमानों की सेहत के लिए तो निहायत ही खराब है.

इससे मुल्क की सेक्युलर सेहत भी खराब होगी. वे इस सियासत के मोहरे बन रहे हैं या मुसलमानों को मोहरा बना रहे हैं, यह तो आनेवाला वक्त ही बतायेगा. हालांकि, इतना तो साफ दिख रहा है कि उनके कदम अच्छे दिनों का इशारा नहीं कर रहे हैं.

हालांकि, इस तीस साल में दो नयी पीढ़ियां तैयार हो गयी हैं. अब मुसलमानों की इस नयी पीढ़ी को तय करना है कि वह अपने भविष्य की बागडोर अपने हाथ में रखना चाहती है या किन्हीं और को तय करने की इजाजत देती है.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/887047.html


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