Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | तुम बेड़ियां काट सको तो-- सुजाता

तुम बेड़ियां काट सको तो-- सुजाता

Share this article Share this article
published Published on Nov 10, 2016   modified Modified on Nov 10, 2016
जब शादी की बात हो, तो अक्सर सुनने में आता हैं- जोड़ियां ऊपर बनती हैं. तो क्या ऊपर ही टूटती भी होंगी? लेकिन ऐसा है नहीं. विवाह पवित्र बंधन है और विवाह का टूटना एक सामाजिक कलंक मान लिया गया है. जोड़ियां बनानेवाले ने उनमें चक्रव्यूह के अभिमन्यु की तरह जाने का आसान रास्ता तो बनाया है, निकलने का नहीं. जैसे शादी में दोनों को ‘कुबूल' होना जरूरी है, लेकिन तलाक के लिए ऐसा जरूरी नहीं है. तलाक कोई सीधा मामला नहीं है.

इसके लिए पर्याप्त अचार-पापड़ बेलने पड़ते हैं और उसके बाद भी सिर्फ फफूंद लगा ही जीवन मिलेगा, इसकी प्रबल संभावनाएं समाज ही सुनिश्चित करता है.

विवाहों के इस दैवी विधान के बारे में सोचते हुए मन होता है- क्यों न एक बार पीछे मुड़ कर देखा जाये. कमाल है कि पीछे मुड़ कर देखते ही सती प्रथा, बाल-विवाह और बहुविवाह जैसी कुप्रथाएं दिखाई देने लगती हैं. एक राजा ताकत के जुनून में या राजनीतिक मकसद से एक से ज्यादा शादियां करता था और वे शादियां निश्चित ही किसी स्वर्ग में तय नहीं होती थीं.

वे इहलोक में पुरुष के शक्ति, सामर्थ्य, दया के प्रदर्शन का प्रतीक रहीं और इसी दुनिया के आर्थिक समीकरणों से आज भी प्रभावित होती हैं. कृष्ण की सोलह हजार रानियां होने की कई कहानियां हैं और आंख बंद करके सोचने पर भी, एक राजा के भवन में सोलह हजार रानियों के होने की कोई कल्पना करना, कोई चित्र बना सकना संभव नहीं होता. आमेर के किले में राजा मानसिंह की रानियों के बिना खिड़की-झरोखे वाले सटे हुए टू-रूम अपार्टमेंट देखो, तो दम घुटने लगता है. ऐसा कहा-सुना जाता है कि कृष्ण एक रेस्क्यू मिशन के तहत इन राजकुमारियों को अपने भवन में ले आये थे और संरक्षण दे रहे थे. ऐसे ही इसलाम में भी कभी हुआ होगा कि युद्धों में पुरुषों के मारे जाने पर बची हुई स्त्रियों को संरक्षण देने को पुरुष के लिए चार शादियों का विधान किया गया होगा. वक्त और हालात के चलते यह जायज रहा होगा. अब भी है क्या? निश्चित ही यह ऐसा समय नहीं कि जब हम कानूनों में संशोधन न करने के लिए हमेशा धर्म और परंपरा का हवाला दें.

कश्मीर के इतिहास से भी एक वाकया याद आता है. तब वहां सुल्तान शम्सुद्दीन का शासन था और इसलाम के रीति-रिवाज इतने प्रचलित नहीं थे. उस वक्त सुल्तान ने सगी दो बहनों से शादी की थी. उसी दौर में शाह हमादान कश्मीर आये और सुल्तान उनसे बहुत प्रभावित हुए. शाह ने सुल्तान को पक्का मुसलमान बनाने की ठानी. इसके लिए पहला काम यह किया कि दो बहनों में से एक को तलाक दिलवा दिया, क्योंकि शरिया इसकी अनुमति नहीं देता था! जिस बहन को पक्का मुसलमान बनने के लिए तलाक मिला, उसकी भावनात्मक पीड़ा का अंदाजा किया जा सकता है न!

हमारी सबसे बड़ी दिक्कत है कि हम बदलना नहीं चाहते. हिंदू कानून संपत्ति के मामले में स्त्रियों के पक्ष में नहीं था. आगे कानून की बाजी हारते हुए संपत्ति में भाइयों की तरह अधिकार मांगनेवाली लड़की के लिए अपराध-बोध बचा और इसे परिवार की शान के खिलाफ ही समझा गया. कानून के होते हुए प्रतिष्ठा के चलते दहेज प्रताड़ना और घरेलू हिंसा के जाने कितने मामले रिपोर्ट तक नहीं होते. तीन तलाक के मामले में भी, पुरुषों के साफ तौर पर वर्चस्व वाले मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में साफ लिखा कि हमें शरिया कानून में एक हर्फ का बदलाव भी नामंजूर है. विधि आयोग के भेजे गये प्रश्नोत्तर और अपील को भी संदेह के घेरे में लेने में कोई हर्ज नहीं है. मुश्किल यह है कि बदलाव के लिए सवाल दोनों तरह से उठाये जाते हैं.

जब वक्त और हालात बदल चुके हों और कानून उनके हिसाब से बेकार साबित हो रहे हों, तो उस संबंध में जागरूकता और शिक्षा की पहल कभी राज्य की ओर से होती है, तो कभी राज्य और कानून संस्थाओं के कानों के आगे जनता को नगाड़े बजाने होते हैं कि नींद से जागिये और पहल कीजिये. ऐसे में गैर-सरकारी संस्थान अक्सर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. फिर भी, यह सच है कि शोषण के खिलाफ पहली आवाज उठाने का कर्तव्य उन्हीं का है, जिनका जीवन सीधे किसी कुप्रथा से प्रभावित होता है. आसान यह भी नहीं है, क्योंकि अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता स्त्रियों के बड़े तबके में नहीं है. यूं भी जब सवाल किसी समुदाय की सांस्कृतिक पहचान का हो, तो प्रश्न सिर्फ पर्सनल लॉ या यूनिफॉर्म लॉ का नहीं रह कर इससे और आगे जाता है. पीड़ित का पीड़ित की तरह आगे आना जरूरी है, ताकि मानव अधिकार अपने काम कर सकें.

बहुविवाह की प्रथा पर बात करते हुए याद आती है 1875 में लिखी एन एलिजा यंग की किताब ‘वाइफ नं 19', जिसमें उन्होंने बहुविवाह की प्रथा की खामियों की ओर इशारा किया है. अमेरिका के उटा शहर में प्रचलित मॉरमॉन धर्म के अनुसार जो बहुविवाह प्रथा मौजूद थी, उसमें स्त्रियों की अफ्रीकी दासों से भी बदतर दशा थी, उसका बयान एलिजा ने इस किताब में किया है.

56 पत्नियों में से एक एलिजा भागने में सफल हुई थीं और 1875 में लिखी उनकी यह किताब उटा की उन सभी पत्नियों को समर्पित है, जो बहुविवाह प्रथा के चलते उत्पीड़ित रहीं. यह किताब एक स्त्री की सीधी चुनौती थी धर्म को. आज भी जब मुसलिम स्त्री तीन तलाक का विरोध करती है, तो वह धर्म से ही सीधी टक्कर लेगी. मानो धर्म स्त्रियों के मान भंग पर ही टिकी व्यवस्था है. उस वक्त भी राज्य को हस्तक्षेप करना पड़ा था. आरंभ में एलिजा ने ब्रिघम की बाकी पत्नियों के नाम खत लिखा है. वह लिखती हैं- 'काश मैं तुम सब को प्रेरित कर पाती कि अपनी बेड़ियां काट सको. मैं अपने अकेले चुने रास्ते पर चलूंगी और तुम सब मिल कर दुख मनाओगी...' आखिर बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में यह प्रथा समाप्त हुई.

जब नजारा यह हो कि धर्म के चलते शादी के नियम-कायदे स्त्री के लिए अनुकूल नहीं बनाये जा सकते हों, तो राज्य का नागरिक होने के दावे के साथ स्त्री को अपने अधिकारों के लिए एकजुट होकर आगे आना होगा. उनकी शिक्षा और जागरूकता का भार फिर भी राज्य के जिम्मे रहेगा ही.

http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/888850.html


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close