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न्यूज क्लिपिंग्स् | तू क्यों पिछड़ी लाडो!- प्रियंका कौशल

तू क्यों पिछड़ी लाडो!- प्रियंका कौशल

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published Published on Aug 23, 2013   modified Modified on Aug 23, 2013

छत्तीसगढ़ के सुदूर अंचलों में आज भी महिलाओं को पुरुषों से ऊंचा दर्जा दिया जाता है और इसकी शुरुआत होती है परिवार में बेटियों को तवज्जो देने से. लेकिन राज्य की राजनीति में यह तस्वीर बिल्कुल उल्टी है. प्रियंका कौशल की रिपोर्ट.

राजनीति में परिवारवाद ऐसी बुराई हो चली है जिसके खिलाफ कोई मुहिम नहीं छेड़ी जा सकती. अब यदि ऐसा है तो क्या इसमें कुछ सकारात्मक पक्ष खोजा जा सकता है? बेशक ऐसा हो सकता है यदि नेताओं की राजनीतिक विरासत उनकी बेटियों को मिलने लगे. कम से कम इस बहाने ही सही राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी तो बढ़ेगी. इस लिहाज से जब हम राष्ट्रीय परिदृश्य पर नजर डालें तो मीरा कुमार, प्रिया दत्त, सुप्रिया सुले, अगाथा संगमा जैसे कुछ उदाहरण जरूर दिखते हैं जो न सिर्फ अपने परिवार की राजनीतिक विरासत संभाल रही हैं बल्कि अपने-अपने क्षेत्रों में इन्होंने अच्छा काम भी किया है.  

इस मामले में जब  हम छत्तीसगढ़ की तरफ रुख करते हैं तो यहां तस्वीर बेहद निराशाजनक है. बाकी राज्यों के मुकाबले छत्तीसगढ़ इसलिए महत्वपूर्ण है कि यह राज्य आदिवासी अस्मिता और उनकी संस्कृति के विकास के नाम पर बना था. इस संस्कृति का ही असर है कि आज भी राज्य के सुदूरवर्ती अंचलों में महिलाओं का दर्जा पुरुषों से ऊंचा है. फिर एक उम्मीद जगाने वाला तथ्य यह भी है कि देश में दक्षिण से उत्तर की तरफ बढ़ते हुए छत्तीसगढ़ ही एक ऐसा राज्य है जो स्त्री पुरुष जनसंख्या अनुपात में दक्षिण के राज्यों को टक्कर देता हुआ नजर आता है. इस मामले में केरल, पुडुचेरी, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु के बाद छत्तीसगढ़ का ही नंबर आता है. यहां प्रति हजार पुरुषों पर 991 स्त्रियां हैं. आदिवासी समुदायों में तो यह अनुपात शत-प्रतिशत है. लेकिन छत्तीसगढ़ की यह उपलब्धि भी राजनीति के कपाट बेटियों के लिए नहीं खोल पाई. छत्तीसगढ़ के राजनेता अपनी राजनीतिक विरासत अपने बेटों, भाइयों, भतीजों और अगर बहुत मजबूरी हुई तो पत्नियों को सौंपना चाहते हैं. बेटियों का नंबर इनके बाद आता है या कभी आता ही नहीं. वैसे तो छत्तीसगढ़ का इतिहास महज तेरह साल पुराना है. लेकिन कभी अविभाजित मध्य प्रदेश का हिस्सा रहे धान के कटोरे की राजनीति भी हमेशा पुरुषों के इर्द-गिर्द ही सिमटी रही है. 

बात सूबे के मुखिया से शुरू करते हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के परिवार में एक बेटा अभिषेक और एक बेटी अस्मिता है. मुख्यमंत्री अभी अपना ध्यान  बेटे अभिषेक सिंह पर लगा रहे हैं. अभिषेक इस विधानसभा चुनाव में पिता के लिए मैदान संभालेंगे. भाजपा सूत्रों की मानें तो वे खुद अपनी किस्मत लोकसभा चुनाव में आजमाएंगे. इस बार मुख्यमंत्री रमन सिंह एक बार फिर राजनांदगांव से विधानसभा चुनाव लड़ने का एलान कर चुके हैं (पिछला विधानसभा चुनाव भी रमन सिंह ने इसी सीट से जीता था). कांग्रेस राजनांदगांव से जीरम घाटी नक्सल हमले में मारे गए उदय मुदलियार की पत्नी को टिकट देने का मन बना रही है. ऐसे में रमन सिंह के लिए यह सीट चुनौतीपूर्ण हो जाएगी. रमन सिंह चूंकि छत्तीसगढ़ के चुनाव में स्टार प्रचारक की भूमिका निभाते हुए पूरे प्रदेश का दौरा कर रहे होंगे तो ऐसे में स्वाभाविक रूप से अभिषेक राजनांदगांव में अपने पिता की अनुपस्थिति में चुनाव की कमान संभाल रहे होंगे. लेकिन इसके उलट उनकी बहन अस्मिता सिंह ने कभी चुनाव प्रचार तक में रुचि नहीं दिखाई. पेशे से डेंटिस्ट अस्मिता शादी करके अपना घर बसा चुकी हैं. राजनीति में आने के बारे में ना तो कभी उनके परिवार ने सोचा ना ही उन्होंने कभी इसकी इच्छा जताई. मुख्यमंत्री के एक करीबी भाजपा नेता कहते हैं, ' रमन सिंह ने कभी अपने बच्चों पर दबाव नहीं बनाया कि वे किस फील्ड में अपना करियर बनाएं. अभिषेक ने इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई करने के बाद खुद ही तय किया था कि वे राजनीति में आएंगे. अस्मिता ने दंत चिकित्सा की पढ़ाई की है. अब वे डेंटिस्ट हैं और रायपुर में ही अपने पति के साथ खुश हैं.' 

छत्तीसगढ़ के कृषि मंत्री चद्रशेखर साहू भी अपने बेटे उत्पल को आगे बढ़ा रहे हैं. उत्पल ने भारतीय जनता युवा मोर्चा के तहत अपनी सक्रियता बढ़ा दी है. उनका दूसरा बेटा नीलेश पुश्तैनी खेती-बाड़ी संभाल रहा है. उनकी बेटी श्रीमा ने हाल ही में अपनी मैनेजमेंट की पढ़ाई खत्म की है. लेकिन उनके राजनीति में आने के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं. तहलका से बात करते हुए साहू कहते हैं, 'यह तो खुद की इच्छा पर निर्भर है कि कौन राजनीति में आना चाहता है कौन नहीं.' वहीं श्रीमा कहती हैं,  ' मैं पापा के चुनाव अभियान में हिस्सा ले लेती हूं. लेकिन राजनीति में मेरी कोई रुचि नहीं है. हां, अगर जरूरत पड़ी, परिजनों ने दबाव बनाया तो सोचूंगी.'

अविभाजित मध्य प्रदेश के पूर्व वन मंत्री और कांग्रेस के आदिवासी नेता शिव नेताम की मानें तो,  ' बच्चे जो करियर चुनना चाहें वे स्वतंत्र हैं. लेकिन लड़कियों का राजनीति में आगे आना सामाजिक व्यवस्था पर निर्भर करता है. दूसरा एक कारण यह भी है कि भले ही आम आदमी हो या नेता, सभी को अपनी बेटियों की शादी की चिंता पहले होती है,  करियर की बाद में. वैसे भी जब तक ससुराल से सहमति और सहयोग ना मिले, लड़कियां राजनीति कर भी नहीं सकतीं. सामाजिक परिवर्तन होने में पीढ़ियां लग जाती हैं. अभी इसमें और वक्त लगेगा.' नेताम की भी तीन बेटियां हैं. सबसे बड़ी बेटी पुष्पा की शादी अभी कुछ ही समय पहले हुई है. कृतिका चिकित्सीय पेशे से जुड़ी हुई हैं. वहीं अनामिका अभी पढ़ाई में व्यस्त हैं. नेताम कांग्रेस का आदिवासी चेहरा हैं. प्रदेश में आदिवासियों का प्रतिशत भी सबसे अधिक यानी 32 फीसदी है. फिर भी उनकी बेटियां राजनीति में नहीं आईं. अपने बेटे संग्राम के लिए नेताम कहते हैं, 'संग्राम को भी कभी राजनीति में आने के लिए फोर्स नहीं किया है. वे चाहें तो बिजनेस करें या राजनीति.' 

पूर्व सांसद करुणा शुक्ला (पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी) कहती हैं, 'निश्चित तौर पर राजनीति में बेटियों की भी भूमिका होनी चाहिए, लेकिन बेटियां ही रुचि नहीं लेतीं. राजनीति संघर्ष से भरा क्षेत्र है. इसके लिए खुद को तैयार करना पड़ता है'  शुक्ला खुद का उदाहरण देते हुए कहती हैं, ' भले ही मुझे राजनीति विरासत में नहीं मिली, लेकिन बचपन से ही मैं काफी सक्रिय थी. स्कूल में हमेशा मॉनीटर रही. कॉलेज में चुनाव नहीं लड़ा लेकिन कइयों को लड़वाया जरूर. शादी के बाद सास के प्रोत्साहन में राजनीति की विधिवत शुरुआत हुई और फिर पति और बच्चों का सहयोग भी मिलने लगा. लेकिन इसके पीछे मेरी ही इच्छाशक्ति काम कर रही थी.'  

देश के दोनों ही बड़े राजनीतिक दल महिलाओं को संगठन और सीटों पर आरक्षण देने की बात करते हैं. भाजपा ने जहां संगठन में 33 फीसदी आरक्षण लागू किया है. वहीं छत्तीसगढ़ सरकार ने पंचायतों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दिया है. कांग्रेस भी संगठन में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण देने की बात करती है. लेकिन दोनों ही पार्टियां न तो संगठन में, न ही टिकटों के बंटवारे में इस आरक्षण को कायम रख पाती हैं. जो सीट महिलाओं के लिए आरक्षित होती है, वहां भी बेटियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाता. ज्यादातर नेता अपनी पत्नियों या बहुओं को चुनाव मैदान में उतारते हैं.

छत्तीसगढ़ की बात हो तो यहां एक समय काफी प्रभावशाली रहे शुक्ल परिवार की चर्चा जरूर होगी. अविभाजित मध्य प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री रहे पंडित रविशंकर शुक्ल की तीन बेटियां और छह बेटे थे. लेकिन राजनीति में उनकी एक भी बेटी नहीं आई. उनके बेटे पंडित अंबिकाचरण शुक्ल, श्यामाचरण शुक्ल (अविभाजित मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री) और विद्याचरण शुक्ल आजीवन सक्रिय राजनीति में रहे. लेकिन उनकी बेटियां रामप्यारी बाई, रामवति बाई और क्रांति त्रिवेदी ने शादी के बाद अपनी गृहस्थी संभालने में ही रुचि दिखाई. अविभाजित मध्य प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रहे श्यामाचरण शुक्ल की भी तीन बेटियां हैं. उमा, नीता और सोनू, लेकिन तीनों ही बेटियों ने राजनीति का ककहरा नहीं पढ़ा. जबकि श्यामाचरण शुक्ल के बेटे अमितेश शुक्ल राजिम विधानसभा सीट से कांग्रेस के विधायक हैं. अमितेश अजीत जोगी की सरकार में पंचायत मंत्री भी रहे. दिवंगत विद्याचरण शुक्ल की भी तीन बेटियां हैं. सबसे बड़ी बेटी प्रतिभा पांडे इन दिनों रायपुर में ही कांग्रेस में सक्रियता बढ़ा रही हैं. वहीं दूसरी बेटी पद्मा दुबे मुंबई और सबसे छोटी बेटी प्रगति दीक्षित अमेरिका में रहती हैं. वीसी शुक्ल के अंतिम दिनों में उनकी बेटी प्रतिभा ने राजनीति में पदार्पण किया, जबकि यदि वे अपने शुरुआती दिनों में राजनीति में आतीं तो आज किसी बड़ी जिम्मेदारी का निर्वहन कर रही होतीं. वीसी शुक्ल का कोई बेटा नहीं था बावजूद इसके उन्होंने अपनी बेटियों को राजनीति में आगे लाने की कोशिश कभी नहीं की. 

छत्तीसगढ़ की महिला और बाल विकास मंत्री लता उसेंडी इसका एक अपवाद हैं. उनके पिता मंगलराम उसेंडी कोंडागांव सीट से भाजपा के विधायक रहे हैं. जब उन्होंने सक्रिय राजनीति से दूर रहने का मन बनाया तो उन्होंने अपने बेटों के बजाय बेटी लता उसेंडी को अपनी विधानसभा सीट सौंप दी. आदिवासी समुदाय से नाता रखने वाली लता उसेंडी दो बार से छत्तीसगढ़ की महिला और बाल विकास मंत्री हैं. लेकिन यहां इस बात का उल्लेख करना फिर जरूरी है कि आदिवासी समुदायों में आज भी बेटियों और बेटों में कोई फर्क नहीं किया जाता. शायद यही कारण है कि लता उसेंडी ने अपने पिता की विधानसभा सीट से अपने राजनीतिक करियर को आगे बढ़ाया. 

प्रदेश महिला आयोग की अध्यक्ष आर विभा राव कहती हैं, 'छत्तीसगढ़ के लोगों में मन में आज भी यह अवधारणा है कि बेटियों को दूसरे घर जाना है. जबकि पत्नियां और बहुएं अपने ही घर की हैं. ये सही है कि चाहे व्यापार हो या राजनीति, लोग बेटों को ही प्राथमिकता देते हैं.'  

छत्तीसगढ़ के ऐसे नेताओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है जिन्होंने बेटियों को ससुराल विदा करके अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली. इनमें विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रविंद्र चौबे भी शामिल हैं. चौबे की सुपुत्री डॉ अदिति की शादी अभी कुछ महीनों पहले ही हुई है. हालांकि उनके बेटे अविनाश ने भी अभी तक राजनीति का रुख नहीं किया है. बल्कि वे अपनी पढ़ाई जारी रखे हुए हैं. विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक की बेटी भी चार माह पूर्व ही शादी कर अपने ससुराल जा चुकी हैं. वहीं उनके बेटे अभी अध्ययन में व्यस्त हैं. स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल ने भी पिछले साल अपनी डॉक्टर बिटिया को ससुराल विदा कर दिया है. वहीं प्रदेश के पीडब्ल्यूडी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष चरणदास महंत ने अब तक अपने बच्चों को अभी तक राजनीति से दूर रखा है.

अतीत की राजनीति देखते हुए एक बात भरोसे से कही जा सकती है कि इन नेताओं के बेटे भी  पढ़ाई पूरी करने के बाद राजनीति में आने या ना आने के लिए स्वतंत्र होंगे. लेकिन बेटियां संभव है कि दूसरों की तरह ससुराल ही चली जाएं.


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