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न्यूज क्लिपिंग्स् | तेल का काला खेल- अरविन्द सेन

तेल का काला खेल- अरविन्द सेन

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published Published on Feb 5, 2013   modified Modified on Feb 5, 2013
जनसत्ता 31 जनवरी, 2013: ममता बनर्जी के गति अवरोधक से आजाद कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार अब निवेशकों की दिखाई राह पर दौड़ रही है। रेल किरायों में बढ़ोतरी के बाद अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के नाम पर डीजल सुधारों का जुमला छोड़ा गया है। डीजल के दाम में पचास पैसे का इजाफा करते हुए सरकार ने कहा है कि अब से हर महीने डीजल की कीमत एक रुपए बढ़ाई जाएगी। जब तक डीजल के दाम बाजार भाव के बराबर नहीं आ जाते, तब तक कीमतों में इजाफे का यह सिलसिला चलता रहेगा। सरकार का कहना है कि कीमतों में इजाफे की यह ‘छोटी-छोटी खुराक’ जनता सहन कर सकती है और इस तरह से तेल कंपनियों की आर्थिक सेहत भी सुधर जाएगी। डीजल कीमतों में इजाफे की इस छोटी खुराक से सार्वजनिक परिवहन के किराए में बढ़ोतरी और खाद्य मुद्रास्फीति को हवा मिलने जैसी सीधी जुड़ी साधारण बातें अलग रखें तो अगला सवाल उठता है कि आखिर पेट्रोलियम क्षेत्र में मुनाफे और घाटे की भगदड़ का असली जिम्मेदार कौन है।
हर दफा सरकार तेल कंपनियों की बढ़ती ‘अंडररिकवरी’ (पेट्रोलियम उत्पादों को बाजार भाव से कम दाम पर बेचने से होने वाला नुकसान) की ओट लेकर पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में इजाफा करती है और तुर्रा यह छोड़ा जाता है कि कीमतों में बढ़ोतरी के बाद भी तेल कंपनियों को घाटा होता रहेगा। तेल कंपनियों की अंडररिकवरी की ढाल लेकर पूरे देश में जनता से पेट्रोलियम उत्पादों की लागत से ज्यादा कीमत वसूली जाती है और कोई पार्टी इस लूट को रोकने के लिए तैयार नहीं है। सबसे पहली बात तो यह है कि अगर तेल कंपनियों को घाटा हो भी रहा है तो इसकी भरपाई के लिए दिया जाने वाला पैसा कहां से आता है। करों के रूप में वसूला गया यह जनता का ही पैसा है और सबसिडी के जरिए गरीब लोगों की सहायता करना दरअसल देश के कीमती मानव संसाधन के भविष्य में निवेश करना है।
हालांकि सच्चाई यह है कि सरकारी तेल कंपनियों का घाटा महज आंकड़ों का छलावा है। सरकार, तेल कंपनियां, कारोबारी दलाल और कुछ अर्थशास्त्री एक स्वर में चीख रहे हैं कि भारतीय उपभोक्ताओं को अंतरराष्ट्रीय बाजार के आधार पर तेल की कीमतों का भुगतान करना चाहिए, क्योंकि तेल सबसिडी पूरी अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर सकती है। कड़वी सच्चाई यह है कि भारतीय उपभोक्ता पूरी दुनिया में तेल की सबसे ऊंची कीमत चुका रहे हैं। पेट्रोल का उदाहरण लीजिए। बीते एक साल में भारत में पेट्रोल की कीमत अड़सठ रुपए प्रति लीटर से ऊपर रही है। भारत की तर्ज पर पाकिस्तान भी पूरी तरह तेल के आयात पर टिका हुआ है लेकिन वहां पेट्रोल तिरपनरुपए प्रति लीटर के हिसाब से बिक रहा है। अमेरिका में तेल पर कोई सबसिडी नहीं है और वहां पेट्रोल की कीमत पचास रुपए प्रति लीटर के बराबर है। नेपाल से लेकर फिलीपींस तक तेल के आयात पर टिका हर देश भारत से सस्ता पेट्रोल बेच रहा है।
कोई पूछ सकता है कि भारतीय उपभोक्ता दुनिया में तेल की सबसे ज्यादा कीमत चुकाने को क्यों मजबूर हैं। वजह यह है कि तेल कंपनियों, केंद्र और राज्य सरकारों को पेट्रोलियम उत्पादों के रूप में मुनाफे की हड््डी चाटने का रोग लग चुका है। तेल कंपनियों से मिला महंगा तेल केंद्र सरकार अपनी कर प्रणाली से और महंगा कर देती है। चूंकि राज्य सरकारों के पास राजस्व का दूसरा कोई खास जरिया नहीं है, लिहाजा सारी कसर तेल से ही निकाली जाती है।
भारत कच्चा तेल आयात करके अपने कारखानों में शोधित करके जनता को मुहैया करवाता है और इस तरह हमारे देश में तेल की कीमत कम होनी चाहिए। पर ऐसा नहीं हो रहा है। याद रहे, कच्चा तेल आयात करने के बाद रिफाइनरी से शोधित करके जनता तक पहुंचने में लंबा समय लगता है और इस बीच अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें ऊपर-नीचे हो जाती हैं।
भारत की तेल कंपनियां कच्चा तेल पुराने अंतरराष्ट्रीय भाव पर खरीदती हैं लेकिन अंडररिकवरी की गणना मौजूदा दरों पर करती हैं। एक उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है। जैसे भारत की तेल कंपनी इंडियन आॅयल कच्चा तेल सौ डॉलर प्रति बैरल (159 लीटर) पर खरीदती है और इस तेल को भारत लाकर अपनी रिफाइनरी में शोधित करती है।
कच्चे तेल के शोधन में समय लगता है और इस दरम्यान अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें ऊपर (100 डॉलर प्रति बैरल से 112 डॉलर प्रति बैरल) चढ़ जाती हैं। विडंबना यह है कि इंडियन आॅयल अपने रिफाइनरी से निकले शोधित तेल को पुरानी कीमत पर बेचने के बजाय बढ़ी हुई नई कीमतों पर बेचती है। ऐसे में तेल की कीमतों में भी इजाफा हो जाता है। और यही कारण है कि मौजूदा कीमतों पर अंडररिकवरी की गणना करने का तरीका ही गलत है। पुरानी कीमतों पर कच्चा तेल आयात करके शोधित तेल को नई कीमतों से जोड़ कर, अंडररिकवरी बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने का यह तरीका देश की सरकारी और निजी क्षेत्र की सारी कंपनियां अपनाती हैं।
सकल शोधन मार्जिन (जीआरएम) तेल कंपनियों के कथित घाटे की पोल खोलने वाला दूसरा सबूत है। कुओं से निकले कच्चे तेल की कीमत और रिफाइनरी से शोधन के बाद बाजार में बिक्री के लिए जारी तेल की कीमत के फर्क को जीआरएम कहा जाता है। अगर किसी कंपनी का जीआरएम ज्यादा है तो इसका मतलब है कि वह कंपनी कच्चे तेल के शोधन से लागत से भी अधिक मुनाफा कमा रही है।
भारतीय तेल कंपनियों का जीआरएम दुनिया में सबसे ज्यादा है। देश के पचानबे फीसद तेल कारोबार का नियंत्रण करने वाली तीन बड़ी सरकारी कंपनियों (इंडियन आॅयल, भारत पेट्रोलियम और हिंदुस्तान पेट्रोलियम) का जीआरम सात डॉलर प्रति बैरल के भारी-भरकम आंकड़े को छू रहा है। दूसरी ओर, भारत की तरह तेल के आयात पर टिके चीन में जीआरएम महज एक डॉलर प्रति बैरल है। यकीन मानिए, दुनिया के सबसे बड़े तेल उपभोक्ताओं में शुमार अमेरिका और यूरोप का जीआरएम केवल 0.8 सेंट प्रति बैरल है।
ये सारे आंकड़े इस बात की गवाह दे रहे हैं कि तेल ज्यादा महंगा नहीं है लेकिन भारतीय तेल कंपनियों के मुनाफे की हवस ने तेल हद से ज्यादा महंगा कर दिया है। तेल कंपनियों और सरकार के अंडररिकवरी के दावे की कलई खोलने वाला एक तीसरा सबूत शेयर पर मिलने वाला प्रतिफल (रिटर्न आॅन इक्विटी, आरओइ) है। आरओइ से यह मालूम होता है कि किसी कंपनी में लगाई गई रकम पर शेयरधारकों को मुनाफे के रूप में कितना प्रतिफल मिला है। भारतीय तेल कंपनियों का आरओइ तेरह फीसद है। मुनाफे पर प्रतिफल की यह दर दुनिया की तेल कंपनियों में सबसे ज्यादा है। अगर वास्तव में तेल कंपनियों को अंडररिकवरी या कोई घाटा हो रहा होता तो आरओइ शून्य पर होता या नकारात्मक (माइनस में) होता।
गुजरे कुछ वक्त में भारतीय तेल कंपनियों ने अपनी शोधन क्षमताओं में निवेश किया है और कहा है कि अब सोलह फीसद का आरओइ बरकरार रखा जाएगा। सोलह फीसद आरओइ का मतलब है कि तेल की कीमतें मुनाफे के नए मानक के हिसाब से तय की जाएंगी। मुनाफे की इस अंधी दौड़ की झलक तेल कंपनियों की ओर से सरकार को दिए जाने वाले डिवीडेंड में भी दिखाई देती है। कोई कंपनी जब अपना मुनाफा शेयरधारकों में बांटती है तो उसे डिवीडेंड कहा जाता है और सरकारी तेल कंपनियों की शेयरधारक भारत सरकार है।
साल 2010-11 में तीनों तेल कंपनियों ने सरकार को 3,287 करोड़ रुपए का डिवीडेंड दिया है, जबकि इसी साल कंपनियों ने 78,190 करोड़ रुपए की अंडररिकवरी होने का दावा भी किया है। जाहिर है, अंडररिकवरी वह भेड़िया है जिसका खौफ दिखा कर जनता को लूटा जा रहा है और तेल कंपनियों का मुनाफा साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है। मशहूर बिजनेस पत्रिका ‘फोर्च्यून’ हर साल दुनिया की आला पांच सौ कंपनियों की सूची जारी करती है और हर साल भारत से केवल तेल और गैस कारोबार से जुड़ी पांच कंपनियां (इंडियन आॅयल, रिलायंस, भारत पेट्रोलियम, हिंदुस्तान पेट्रोलियम और ओएनजीसी) ही इस सूची में जगह पाती हैं।
तेल कंपनियों से जुड़े कुछ लोग अक्सर छाती पीटते हैं कि तेल क्षेत्र में सुधार होने चाहिए और सरकार समय-समय पर तेल क्षेत्र में सुधार (या कहें ज्यादा कमाने के तरीके खोजने) के उपाय सुझाने के लिए समितियां का गठन करती है। मगर सुंदरराजन, रंगराजन, चतुर्वेदी, किरीट पारिख और हालिया विजय केलकर समिति में से एक ने भी तेल कंपनियों के जीआरएम या आरओइ पर कोई सवाल नहीं उठाया। यही नहीं, तेल को केंद्र और राज्य सरकारों ने राजस्व वसूली का औजार बना रखा है, इस पहलू पर भी किसी समिति का कोई सुझाव नहीं है। सीमा शुल्क, विशेष सीमा शुल्क, काउंटरवेलिंग शुल्क, सेनवेट, शिक्षा उप-कर, आबकारी शुल्क, विशेष आबकारी शुल्क, वैट, सरचार्ज और प्रवेश शुल्क जैसे अनगिनत कर लाद कर हमारे देश में तेल को आयातित मूल्य से दुगुनी कीमत पर बेचा जाता है। राज्य सरकारें अपनी आमदनी का पैंतीस से चालीस फीसद हिस्सा तेल पर कर लगा कर हासिल करती हैं। अगर केंद्र और राज्य सरकारें जनता को बढ़ती कीमतों से राहत देना चाहती हैं तो तेल पर लगे करों के इस जखीरे को कम क्यों नहीं करती हैं? केंद्र सरकार ने 2010-11 में तेल कंपनियों से करों के रूप में 1,80,000 करोड़ रुपए वसूल किए।
असल में तेल महंगा नहीं है लेकिन हमारी सरकार की दिशाहीन नीतियों के कारण दुनिया में सबसे महंगे दामों पर बिकता है। कुछ लोग सीना चौड़ा करके कहते हैं कि डीजल पर दी जाने वाली सबसिडी से किसानों को फायदा होता है। अठहत्तर फीसद गरीब आबादी वाले जिस देश के किसानों में पचासी फीसद छोटे किसान हों, वहां यह समझने के लिए एडम स्मिथ को पढ़ना जरूरी नहीं है कि कितने किसान डीजल के ट्रैक्टर चला रहे हैं।
डीजल पर किसानों के नाम पर चल रही लूट का असली फायदा वाहन कंपनियों ने उठाया है और कम कीमतों के लालच में पूरी अर्थव्यवस्था का डीजलीकरण हो चुका है। डीजल से चलने वाले वाहन पर्यावरण के लिए घातक हैं। लेकिन जहां टोयोटा, होंडा, निसान, रेनॉल्ट और डेमलर जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां गाड़ी बेच रही हों वहां इन नीतिगत खामियों को दूर करने का सवाल ही नहीं उठता। भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश है जहां सरकार की भ्रामक नीतियों के कारण विमान में इस्तेमाल होने वाला र्इंधन एअर टरबाइन फ्यूल यानी एटीएफ, पेट्रोल से सस्ता है।
अगर कोई इस भ्रम में है कि देश की नीतियां जनता के हितों को सामने रख कर बनाई जाती हैं तो वह भारत में पेट्रोलियम उत्पादों के नाम पर मची इस खुली लूट को देख कर अपनी आंखों का जाला साफ कर सकता है। बहरहाल, यूपीए सरकार अपनी नई तेल नीति की कथित छोटी-छोटी खुराक से हर माह डीजल के दाम में तब तक लगातार इजाफा करती है रहेगी, जब तक कि रिलायंस को मुनाफा नहीं होने लगे, क्योंकि डीजल की मौजूदा कीमतों के कारण इस कंपनी को घाटा हो रहा है और यह लंबे समय से सरकार पर कीमतों में बढ़ोतरी का दबाव बनाए हुए है।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/37884-2013-01-31-06-02-00
 

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