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न्यूज क्लिपिंग्स् | तोते का पिंजरा और आकाश- शीतला सिंह

तोते का पिंजरा और आकाश- शीतला सिंह

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published Published on May 14, 2013   modified Modified on May 14, 2013
जनसत्ता 11 मई, 2013: हम जिसे केंद्रीय जांच ब्यूरो कहते हैं, सर्वोच्च न्यायालय की दृष्टि में वह और कुछ नहीं, बल्कि सरकारी ‘पिंजरे का तोता' है जिसके कई मालिक हैं। न्यायालय ने यह राय कोयला घोटाले की जांच की प्रगति-रिपोर्ट उसे सौंपे जाने से पहले सरकार से साझा किए जाने पर जाहिर की है। रिपोर्ट को कानून मंत्री के अलावा कोयला मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय के संयुक्त सचिवों ने भी देखा था। यही नहीं, उन्होंने रिपोर्ट में फेरबदल भी कराए, जैसा कि सीबीआइ के दूसरे हलफनामे में कहा गया है।

इससे सर्वोच्च न्यायालय का आहत होना स्वाभाविक है, क्योंकि उसने सीबीआइ को यह निर्देश दिया हुआ था कि स्थिति-रिपोर्ट सरकार से कतई साझा नहीं की जाएगी। इसके बावजूद न सिर्फ रिपोर्ट सरकार को दिखाई गई बल्कि उसमें इस ढंग से बदलाव भी किए गए कि किसी की जवाबदेही तय न हो पाए। इससे जाहिर हो जाता है कि सीबीआइ पर सरकार का अंकुश इस हद तक है कि वह किसी भी जांच को अर्थहीन बना सकती है।

यही कारण है कि सीबीआइ की स्वायत्तता का मसला सर्वोच्च अदालत की निगाह में खासा अहम हो उठा है। यों विनीत नारायण मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने सीबीआइ को ताकतवर बनाया था। पर अदालती फैसले से मिली उस शक्ति को सीबीआइ ने जल्दी ही खो दिया और सरकारी नियंत्रण फिर से उस पर हावी हो गया। सर्वोच्च अदालत ने यह भी पूछा है कि इस स्थिति में बदलाव के लिए सरकार क्या करने जा रही है। अगली पेशी (दस जुलाई) तक इस संबंध में सरकार की बयानहलफी भी मांगी गई है।

भारत की प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप क्या होगा, यह सब कुछ संविधान में वर्णित है। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे कुछ प्रश्नों को समवर्ती सूची में शामिल किया गया है। बाकी विषयों के अधिकार भी वर्णित और विभाजित हैं। कानून और व्यवस्था मुख्य रूप से राज्य का विषय है। केंद्र तो राज्यों का संघ है, इस नाते उसे कुछ विशेषाधिकार अवश्य दिए गए हैं। केंद्रीय जांच ब्यूरो केंद्र के अधीन कार्यरत संगठन है, लेकिन वह स्वत: न तो कोई प्रश्न जांच के लिए अपने हाथ में ले सकता है और न किसी मामले में अपनी ओर से दखल दे सकता है। केंद्र सरकार को भी यह अधिकार नहीं है कि कोई प्रसंग चाहे जितना महत्त्वपूर्ण हो, वह केंद्रीय जांच ब्यूरो से जांच का आग्रह कर सके। हां, राज्य अगर चाहें तो वे कुछ मामले विवेचना और जांच के लिए इस संस्थान को सौंप सकते हैं। यहीं से ब्यूरो के अधिकारों की सृष्टि होती है। अतिरिक्त व्यवस्था के रूप में उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार अवश्य प्राप्त है कि किसी मामले की सुनवाई के समय अगर उन्हें ऐसा लगे कि यह प्रसंग केंद्रीय जांच ब्यूरो को सौंपा जाना चाहिए तो वे आदेश पारित कर सकते हैं। यह उनके अधिकार क्षेत्र का विषय है। इस पर किसी को कोई आपत्ति भी नहीं है।

लेकिन केंद्र सरकार जब एनसीटीसी के रूप में आतंकवादी घटनाओं के मद््देनजर एक जांच एजेंसी बनाना चाहती थी, तो संसद में ऐसा करने की अनुमति राज्यों के विरोध के कारण नहीं दी जा सकी। आपत्ति इस बात पर है कि यह प्रश्न राज्य के अधिकारों को कम करने वाला होगा, इसलिए उन्हें स्वीकार नहीं है। ऐसा होने पर वे कानून के राजनीतिक दुरुपयोग की भी आशंका जताते हैं। इसलिए वह चाहे केंद्र का विषय हो या राज्य का, लेकिन जांच का अधिकार उसी के पास है जिसके पास कानून और व्यवस्था है। कोयला घोटाले की जांच सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्रीय जांच ब्यूरो के सुपुर्द की थी, उसकी समीक्षा के समय ये सारी टिप्पणियां की गई हैं।
अगर यह बुनियादी सवाल है, जिसे सर्वोच्च अदालत ने उठाया है तो उसे पुलिस के कामकाज पर भी लागू होना चाहिए, पुलिस की जांच भी राजनीतिक या प्रशासनिक दखलंदाजी से मुक्त होनी चाहिए। लेकिन चाहे केंद्रीय जांच ब्यूरो हो या राज्य की पुलिस का कोई स्वरूप, वह प्रशासनिक नियंत्रण से मुक्त नहीं है। इस संबंध में उसी विभाग के ऊपर के अधिकारी दखल देते हैं और उसमें परिवर्तन भी करते हैं। अगर देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सरकार की दखलंदाजी से मुक्त नहीं है और उसकी जांच की निष्पक्षता पर सवाल उठते रहते हैं, तो अन्य जांच एजेंसियां भेदभावपूर्ण होने से कैसे बचेंगी।

एक दूसरा सवाल यह है कि अगर संबद्ध विभाग के अधिकारी भी अपने कर्मचारियों का नियमन-नियंत्रण न कर सकें, तब क्या जांचकर्ताओं को तानाशाही प्रवृत्ति का होना चाहिए? और ऐसी प्रक्रिया आरंभ हो गई, तब तो यह अपराधों को रोकने के बजाय अधिकारों के दुरुपयोग को बढ़ाने वाली ही होगी।

लोकतंत्र के तीन अंग हैं, जिन्हें कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के रूप में जाना जाता है। इनके अधिकार और कार्यप्रणाली भी निर्धारित है। न्यायपालिका को यह अधिकार अवश्य है कि वह संविधान की भी व्याख्या करे, संसद या विधानमंडलों द्वारा जो कानून बनाए गए हैं उन्हें जांच ले कि वे संविधान में वर्णित मान्यताओं और प्रावधानों के अनुकूल हैं या नहीं।

इस कसौटी पर खरे न उतरने पर वह उन्हें असंवैधानिक बता कर निष्प्रयोज्य बना सकती है। लेकिन न्यायपालिका के पास विधायी शक्ति नहीं है। वह निर्मित कानूनों में हिज्जे का संशोधन भी नहीं कर सकती।
विधायी शक्ति से हीन उसे इसलिए रखा गया है, ताकि वह अपने दायित्वों का निर्वहन कर सके। इसी प्रकार, जब वह कार्यपालिका की शक्तियों का प्रयोग करना चाहती है तब उस पर भी आपत्तियां उठाई जाती हैं। अगर वह चाहे तो विधि-सम्मत निर्देश देने में सक्षम है और इसीलिए उसे न्यायालयी मानहानि तय करने के अधिकार दिए गए हैं जिसमें वह ऐसे सभी अधिकारियों को, जिन्हें उन्मुक्ति (इम्युनिटी) प्राप्त नहीं है, आदेश का परिपालन न करने के लिए दोषी ठहरा कर सजा दे सकती है।

लेकिन यह विशेषाधिकार राज्य के अन्य अंगों को भी है। कार्यपालिका को भी, अपने दायित्वों के निर्वहन के लिए किए गए कार्यों पर, संरक्षण के कारण, दंडित नहीं किया जा सकता। संसद और विधानमंडलों को भी विशेषाधिकार दिए गए हैं। विभिन्न संस्थाओं के बीच कभी-कभी ऐसे द्वंद्व भी होते हैं। यह द्वंद्व एक बार उत्तर प्रदेश विधानसभा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के बीच 1962 में सामने आ चुका है।

सर्वोच्च न्यायालय केंद्रीय जांच ब्यूरो का जिस प्रकार का स्वरूप चाहता है, उसका निर्धारण उसके हाथ में नहीं है, बल्कि यह कार्यपालिका को तय करना है। विधायिका को विधायी प्रावधान करना है। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका- इन तीनों को मिला कर ही राज्य की कल्पना पूर्ण होती है। इसलिए ये तीनों ही राज्य के उद्देश्यों की पूर्ति में सहायक हैं। दुनिया में जो विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाएं विद्यमान हैं, उनमें लोकतांत्रिक व्यवस्था के सिलसिले में अमेरिका और ब्रिटेन का नाम लिया जाता है।

लेकिन अमेरिका में भी जब एक बार सरकार को लगा कि न्यायपालिका में बहुमत अनुकूल नहीं है तो उसने आठ नए जजों की नियुक्ति करके इस उद्देश्य की पूर्ति की। ब्रिटेन में तो सर्वोच्च न्यायालय, जिसे ‘प्रिवी काउंसिल' कहा जाता है, का न्यायाधीश ब्रिटिश मंत्रिपरिषद का न्यायमंत्री होता है। इस प्रकार वहां न्यायपालिका सरकार का सक्रिय अंग है, द्रष्टा और साक्षी नहीं।

जहां तक कम्युनिस्ट व्यवस्था वाले राज्यों का संबंध है, लोग उनका उदाहरण इसलिए नहीं देते क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था के संदर्भ में वह मायने नहीं रखता। वे तर्क यह देते हैं कि जब वहां विरोधी दलों को संगठन बनाने और चुनाव लड़ने की स्वतंत्रता ही नहीं है तो कैसा लोकतंत्र! ऐसे देशों में न्यायपालिका राज्य के एक अंग के रूप में ही काम करती है। भारत में क्या कोई नया प्रयोग करने की स्वीकृति संविधान ने प्रदान की है? अगर नहीं तो इस संविधान में परिवर्तन का अधिकार, जब तक दूसरी संविधान सभा न बने, संसद को है। एक सौ से ऊपर संशोधन हो भी चुके हैं।

लोकतंत्र में सर्वोच्च निर्णायक शक्ति मतदाता के पास है। मगर भारत का संविधान ब्रिटेन के अनुसार परंपराओं पर आधारित नहीं है, बल्कि लिखित रूप में साक्षात है। इसलिए परिवर्तन भी उसी में करने पडेÞंगे। इसलिए मूल प्रश्न यह है कि क्या भारतीय संविधान में केंद्रीय जांच ब्यूरो को निर्णायक शक्ति देना उचित होगा या नहीं! राज्य को कानून और व्यवस्था के नाम पर जो नियमन और नियंत्रण के अधिकार दिए गए हैं, उसमें क्या किसी नई व्याख्या और प्रावधान की आवश्यकता है, जिसे संसद भी स्वीकार करे?

सर्वोच्च न्यायालय ने जनप्रतिनिधित्व कानून में ऐसे परिवर्तन का सुझाव दिया था, जिससे दोषियों को चुनाव लड़ने के अयोग्य करार दिया जा सके। लेकिन देश की सभी राजनीतिक पार्टियों ने इसे अस्वीकार करके वर्तमान विधि को ही चलते रहने की बात कही। इसी तरह का एक और उदाहरण पुलिस सुधार के बारे में सोराबजी समिति की रिपोर्ट का है। उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकारों से इस रिपोर्ट में दी गई सिफारिशें लागू करने को कहा। मगर राज्य सरकारें इन सिफारिशों को अपने अधिकार-क्षेत्र में अतिक्रमण कह कर लागू करने से बचती आ रही हैं। लिहाजा, सर्वोच्च न्यायालय के सुझाव निरर्थक हो गए, क्योंकि शासन और व्यवस्था की शक्ति उसे प्राप्त नहीं है। वह अपने आदेशों के पालन के लिए कार्यपालिका पर ही निर्भर है।

इसलिए ये सब ऐसे प्रश्न हैं जो एकांगी या किसी आंशिक परिवर्तन से सुलझाए नहीं जा सकते, बल्कि इन्हें सर्वांगीण व्यवस्था के अंग के रूप में ही स्वीकार करना पड़ेगा। अण्णा हजारे और उनके साथियों ने एक ऐसा लोकपाल बनाने की मांग की गई थी जो सभी पर नियंत्रण रख सके। लेकिन इस संबंध में उनके प्रस्ताव को पूर्ण रूप से स्वीकार करने के लिए कोई राजनीतिक दल आगे नहीं आया। सीबीआइ को स्वतंत्र करने के लिए सर्वोच्च अदालत ने सरकार से कानून बनाने को कहा है। पर सरकार सिर्फ कानून का मसविदा बना सकती है, पारित उसे संसद में ही होना है। क्या तमाम राजनीतिक दल सीबीआइ की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने वाले कानून के पक्ष में होंगे? सवाल यह भी है कि सरकार से स्वतंत्र सीबीआइ किसके प्रति जवाबदेह होगी।

 


http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/44382-2013-05-11-05-13-02


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