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न्यूज क्लिपिंग्स् | दंडकारण्य का दावानल- कनक तिवारी

दंडकारण्य का दावानल- कनक तिवारी

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published Published on May 29, 2013   modified Modified on May 29, 2013
जनसत्ता 29 मई, 2013: सुकमा से राष्ट्रीय शोक का एक मर्मांतक ज्वालामुखी पैदा हुआ है। कांग्रेस के काफिले पर नक्सलियों ने घात लगाकर अंधाधुंध फायरिंग की। उसमें पार्टी के दो वरिष्ठ नेताओं समेत करीब तीस लोग मारे गए। बस्तरिहा घाटियों में माओवादियों द्वारा यह पहला नरसंहार नहीं था। माओवादी वर्षों से अपनी क्रूरता के घिनौने कारनामे अंजाम दे रहे हैं। ताजा हमला विशेष मायने रखता है। कांग्रेसी राजनीतिकों का काफिला दक्षिण बस्तर की दुर्गम घाटियों के बीच बिना आवश्यक सुरक्षा बल के निश्चिंत होकर मुख्यालय जगदलपुर की ओर बढ़ रहा था। इनमें ऐसे नेता भी थे जिन्हें उच्चस्तरीय सरकारी सुरक्षा मुहैया थी।
कांग्रेस पार्टी, छत्तीसगढ़ सरकार, जिला प्रशासन और पुलिस बल, सब में यह अनावश्यक आत्मविश्वास उग आया कि सैकड़ों व्यक्तियों के हुजूम पर नक्सली आक्रमण की कोई आशंका नहीं है। खुफिया एजेंसियों, स्थानीय स्रोतों, सरकारी मुखबिरों और केंद्रीय घटकों वगैरह ने ऐसी कोई चेतावनी नहीं बिखेरी थी कि अहिंसक राजनीतिक काफिले पर भी अधकचरी समझ के युवा नक्सली ऐसा कहर ढा सकते हैं। ऐसा तो अंतररष्ट्रीय जाति-युद्धों में भी नहीं होता।
बस्तर का नक्सली नेतृत्व घुसपैठिया है। वह पड़ोसी राज्यों मुख्यत: आंध्र और ओड़िशा से भगाया गया है। बस्तर में आदिवासी राज्य सरकार और जिला प्रशासन की बेरुखी और उपेक्षा के शिकार रहे हैं। घने जंगल और शोषित आदिवासी अंधे के हाथ वे बटेर बने जिससे नक्सली आंदोलन धीरे-धीरे गुब्बारे की तरह फूलने लगा। अब बस्तर के बीहड़ों में उसका समांतर साम्राज्य है। वह राजनीतिक कार्यकर्ताओं, उद्योगपतियों, पत्रकारों, सरकारी कर्मचारियों और खुद आदिवासियों को आतंकित करता रहता है। सुकमा की घटना इस सिलसिले की अब तक की सबसे भयावह कड़ी है।
पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री की संयुक्त दमन-नीति को लागू करने के पहले ही नक्सलियों से निपटने की सरकारी नीति में परिवर्तन हो गया। इसके पीछे मानव अधिकार कार्यकर्ताओं का वैचारिक और एक कांग्रेसी महासचिव का सियासी दबाव रहा है। ऐसा आरोप उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह ने लगाया है। सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक राममोहन राव का तर्क है कि बस्तर के उन संवेदनशील इलाकों को असुरक्षित और खुला नहीं छोड़ना चाहिए जहां ऊंची-नीची घाटियों और घुमावदार मोड़ के कारण घात लगा कर पहाड़ियों और टीलों से हमला करने की रणनीतिक सुविधा नक्सलियों को मिल जाती है। सुकमा हत्याकांड इस तर्क का समर्थन करता है।
कांग्रेसियों में आक्रोश स्वाभाविक है। सलवा जुडूम की विवादग्रस्तता के बावजूद वरिष्ठ आदिवासी नेता महेंद्र कर्मा वनैले पशुओं की तरह नक्सलियों द्वारा भून दिए जाने का प्रारब्ध लेकर नहीं आए थे। वरिष्ठ कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल पर कायराना हमला करने वालों को यह नहीं मालूम होगा कि बस्तर की आदिवासी सियासत और परिवेश को लेकर उन्होंने कई केंद्रीय निर्णयों में सार्थक भूमिका निभाई है। कांग्रेस के उन नेताओं को भी माओवादियों ने नहीं छोड़ा जो आदिवासियों के हक में लगातार सक्रिय रहे हैं।
नक्सलवाद लोकतंत्र की धमनियों में कैंसर जैसा वायरस है। तथाकथित माओवाद चीन में गायब होता गया है। वहां पूंजीवाद के अमेरिकी जंगल उग रहे हैं। माओ ने नेतृत्व को उस मछली की तरह बताया था जो जनता नामक जल के बिना जीवित नहीं रह सकती। बस्तरिहा नक्सलवाद वह मगरमच्छ है जो आदिवासी को भी मछली समझ कर चबा रहा है। वस्तुत: बस्तर के माओवाद का वर्ग-चरित्र साम्यवाद के सिद्धांतों का ही निषेध है। अधिकतर नेता आंध्र प्रदेश के उच्चकुलीन और ब्राह्मण हैं। वे छत्तीसगढ़ी अनुयायियों से रियाया की तरह सलूक करते हैं।
मौजूदा कथित माओवाद कोई सैद्धांतिकी का जन-दर्शन नहीं है। वह डाकुओं के गिरोह जैसा हिंसक साम्राज्य है जिसके साधारण सदस्य मधुकर खरे की कविता की तरह ‘लगता है जीते तो हैं, पर मनुष्य ही नहीं रहे'; उन्हें माओवादी कैद में संविधान में दिए गए नागरिक अधिकार मुहैया नहीं हैं। सरकारों ने इस वर्गीय तिलिस्म को भेदने के बदले नौकरशाही के विवेक और अत्याचार, सलवा जुडूम और अकूत पुलिस बल के दुरुपयोग पर सामंती भरोसा किया।
जंगल आदिवासी का परिवेश, नक्सलियों का गोपनीय ठौर और ठेकेदारों की ऐशगाह है। सरकारी अधिकारी, राजनेता और मंत्री लूट की प्रक्रिया में अपनी चौथ वसूलते रहे। संसद को अलबत्ता बीच-बीच में नींद से जगा कर कुछ कल्याणकारी विधायी काम कराए गए। लेकिन उनका अनुपालन सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद आज तक नहीं हो पाया। केंद्रीय योजना आयोग के विशेषज्ञ दल की 2007 की रिपोर्ट को पढ़ा तक नहीं गया जिसमें महत्त्वपूर्ण सुझाव थे। स्वयंभू स्वयंसेवी संगठन और मानव अधिकार कार्यकर्ता अपने आर्थिक स्रोतों के आधार पर सैद्धांतिकी की धींगामस्ती करते रहे। जिन्हें विदेशों से सहायता मिलती है उन्हें माओवादियों के मानव अधिकारों की अंतराष्ट्रीय नस्ल की चिंता होती रही। देशी सरकारों से मदद पाने वाले छोटे संगठन अनुदानदाताओं और सलवा जुडूम वगैरह की समझ को समर्थन देते रहे।
ऐसा कोई साहित्य, मांगपत्र या परचा तक जारी नहीं हुआ जिससे सुनिश्चित हो कि आदिवासी को दिए गए संवैधानिक अधिकार मैदानी स्तर पर किस तरह मिल जाएं। राज्यपालों ने पांचवीं अनुसूची का छोटा-सा परिच्छेद पढ़ने तक की जहमत तक नहीं उठाई। वे सेवानिवृत्ति या राजनीतिक वनवास के बावजूद सातसितारा सुख भोगते रहे। विरोधी दलों की राज्य सरकारों को दोष देने वाली केंद्र सरकार ने राज्यपालों से क्यों नहीं कहा कि वे पांचवीं अनुसूची के प्रावधानों पर अमल करें। केंद्रीय राज्यमंत्री किशोरचंद्र देव संभवत: पहले राजनीतिक हैं जिन्होंने पांचवीं अनुसूची के संवैधानिक प्रावधानों के लागू न होने पर असंतोष व्यक्त किया है। थोड़ी फिक्र मणिशंकर अय्यर और जयराम रमेश को भी रही है।
सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री और राहुल गांधी की रायपुर में उपस्थिति के मद््देनजर एक सुविचारित मांगपत्र आदिवासी हितों के अमल के लिए क्यों नहीं दिया जा सकता था? माओवादी तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के खलनायक हैं। आदिवासी लेकिन नायकों की भूमिका में क्यों नहीं समझे जा सकते?
जब तक नक्सलियों की गिरफ्त से निर्दोष आदिवासियों को राजनीतिक कार्यक्रमों और अधिकार संपन्नता के आधार पर छुड़ाया नहीं जाएगा, बस्तर में माओवाद का कैंसर जंगल की अंतड़ियों में रिसता रहेगा। बस्तर के खलनायकों में कॉरपोरेट जगत, व्यापारी, दलाल और बाहरी अस्थायी उच्चवर्गीय लुटेरे भी रहे हैं। उन्होंने जंगलों, आदिवासी बालाओं, संस्कृति और सामाजिक जीवन की अस्मत को लूटा है। दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों में महत्त्वपूर्ण ओहदों पर गैर-आदिवासी काबिज रहे हैं। आरक्षित पदों को छोड़ कर, शोषितों और दलितों के गुणात्मक विकास पर दोनों पार्टियां कोई श्वेतपत्र जारी नहीं कर सकतीं। उनका पूरा दृष्टिकोण बूर्जुआ-गंध से अनुप्राणित है। कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी मनीष कुंजाम जैसे अपवाद को छोड़ कर अपनी वांछित भूमिका का निर्वाह नहीं किया। धीरे-धीरे दक्षिण बस्तर आंध्र और आंशिक रूप से ओड़िशा के माओवादियों का ‘एक्सटेंशन काउंटर' बनाया जा रहा है। दोनों पड़ोसी राज्यों की सरकारें इसी बात से संतुष्ट हैं कि छत्तीसगढ़ की नाकामी और सहनशीलता के कारण उनके प्रदेश तो सुरक्षित हैं।
दरभा घाटी का हत्याकांड एक राजनीतिक चुनौती है। सुरक्षा बलों की तैनाती में बढ़ोतरी के बाद नक्सलियों पर रक्षात्मक होने का दबाव, भले ही अस्थायी तौर पर, बनाया जा सकता है। इससे उनकी आक्रामकता मुकम्मल तौर पर पस्तहिम्मत या भोथरी नहीं की जा सकती। अरुंधति राय, स्वामी अग्निवेश, गौतम नवलखा, पीयूसीएल, वरवरा राव, कवि गदर जैसे बहुत-से सामाजिक कार्यकर्ता हैं जो नक्सलियों के प्रति अनुराग रखने के आरोप के कारण तटस्थ भूमिका का निर्वाह करते नहीं समझे जाते हैं। माओवादी समर्थन-योग्य नहीं हैं।
बस्तर के माओवादी जनवादी प्रकृति के सिद्धांतकार भी नहीं बचे। उन्हें इंसानी खून का चस्का लग गया है। वे किशोर उम्र के युवक-युवतियों को हिंसक खतरनाक खेल खेलने के लिए अपने गिरोह में शामिल कर अपनी ढाल बनाते जा रहे हैं। बस्तर के आदिवासियों का पुश्तैनी चरित्र एक बड़े षड्यंत्र के द्वारा हिंसा के सांचे में ढाला जा रहा है। एक-दो पीढ़ी के बाद ऐसी आदिवासी हिंसा पर सरकार का नियंत्रण ढीला होता जाएगा। केंद्र और राज्य सरकारें नक्सलियों को नेस्तनाबूद करने को लेकर केवल गाल बजाती हैं। समस्या है कि बद से बदतर होती जा रही है।
नक्सलवाद घने जंगलों, संवैधानिक नकार, आदिवासी दब्बूपन, प्रशासनिक नादिरशाही, कॉरपोरेट जगत की लूट, राजनीतिक दृष्टिदोष और सुरक्षा बलों की नासमझ बर्बरता का संयुक्त प्रतिफल है। राजनीतिक पार्टियों की सत्ता में अदला-बदली कोई समाधान नहीं है। लोकतांत्रिक शक्तियां एकजुट होकर पहले आत्मावलोकन करें कि उन्हें अनुसूचित इलाकों के आदिवासियों के लिए संविधान की प्रतिज्ञाओं का पालन करना है। उसके बाद ही एक सर्वसम्मत राजनीतिक एजेंडा बना कर समस्या से जूझना संभव होगा।
जब कॉरपोरेट घराने यहां नहीं आए थे तो यह पूछा जाए कि नक्सली क्यों आ गए थे? राष्ट्रीय खनिज विकास निगम को छोड़ कर टाटा और एस्सार स्टील जैसे कारखाने तो बहुत बाद के उपक्रम हैं। नक्सली बस्तर के वनोत्पादों को लेकर आदिवासियों की सहकारी समितियां बना कर उनका एकाधिकार कर देने के पक्ष में आंदोलन क्यों नहीं चलाते? बस्तर से ज्यादा लूट तो कोरबा के कोयले की हो रही है। वहां कुछ परिवार अरबपति हो गए हैं, लेकिन स्थानीय नौजवानों को नौकरी नसीब नहीं है। रायगढ़ का विनाश तो एक प्रमुख राजनीतिक कर ही रहा है। वहां से लेकर जशपुर और कोरबा तक आदिवासी इलाका है। वहां नक्सली क्यों नहीं गए?
बस्तर में पूंजीवादी व्यवस्था का भी अपना एक उग्रवाद है। वह बस्तर से बस्तरिहा आदिवासियों को बेदखल कर अपने कारखाने लगाना चाहता है। वह प्रत्यक्ष रूप से दम भरता है कि लौह अयस्क को इस्पात में तब्दील कर देश-प्रदेश का विकास करेगा। अप्रत्यक्ष रूप से दावा करता है कि मनुष्यों को मशीनी मानव इकाइयों में तब्दील कर देगा। इसी बिंदु पर नक्सली आदिवासियों को अपने शिकंजे में लेते हैं। बस्तर को चूस लेने वाले कुछ पूंजीपति समाज-प्रवक्ता और बस्तर-रक्षक की भूमिका से खुद को लैस किए हुए हैं। वे लोकतंत्र की हर आवाज को कुचलने का दुस्साहस भी करते हैं। यहां तक कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों और पत्रकारों को भी।
आदिवासी नेताओं ने औसत आदिवासी का जीवन सुधारने के बदले खुद अपना मलाईदार तबका तैयार कर लिया है। कोई आदिवासी मंत्री या नेता बस्तर के अवाम पर हो रहे पूंजीवादी हमले, नौकरशाही के जुल्म, ठेकेदारों द्वारा होने वालेशोषण, पुलिसिया अत्याचार और नक्सली कत्लेआम के खिलाफ सार्थक-संगठित आवाज कहां उठा रहा है? आरक्षण का प्रतिशत, मंत्रिपरिषद में स्थान, पार्टी संगठन के पद, राज्यसभा में मनोनयन आदि ही उनकी चिंताएं हैं। सेवानिवृत्त आदिवासी नौकरशाहों का भी कोई संगठन नहीं है जो भविष्य की पीढ़ियों के लिए सरोकार दिखाए।
आज नहीं तो कल नक्सली जाएंगे ही, क्योंकि बस्तर की इंच-इंच जमीन के लिए कारखानों और खनन के लाइसेंस जो दिए जा रहे हैं। जब जंगल ही मरुस्थल बन जाएंगे तो न रहेंगे आदिवासी और न ही नक्सली। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी! मौजूदा अर्थव्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों का इतना अधिक दोहन कर रही है कि अगली पीढ़ी इकबाल को अन्योक्ति अलंकार में कहेगी ‘खाक-ए-वतन की मुझको हर जर्रा देवता है'।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/45733-2013-05-29-04-40-23


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