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न्यूज क्लिपिंग्स् | दलितों की नहीं, वोट बैंक की फिक्र - प्रदीप सिंह

दलितों की नहीं, वोट बैंक की फिक्र - प्रदीप सिंह

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published Published on Apr 6, 2018   modified Modified on Apr 6, 2018
जहां व्यक्तियों के निजी स्वार्थ बहुत महत्वपूर्ण हों और समाज का कोई स्वार्थ न हो, वहां अंतर्कलह होना कोई अनहोनी बात नहीं है। यह बात आज की राजनीतिक परिस्थिति पर सटीक बैठती है। राजनीतिक दलों के स्वार्थ समाज और देश के हित पर भारी पड़ रहे हैं। राजनीतिक दलों की आपसी प्रतिद्वंद्विता/प्रतिस्पर्द्धा स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अच्छी भी है और जरूरी भी। संसदीय जनतंत्र में विपक्ष की भूमिका बड़ी अहम होती है। उससे अपेक्षा रहती है कि वह सरकार को निरंकुश होने से रोकेगा और जनहित, देशहित के मुद्दों पर सरकार का सहयोग करेगा। दुर्भाग्य से ऐसा हो नहीं रहा। हाल यह है कि बाड़ ही खेत खाने लगी है। देश की राजनीति एक विचित्र दिशा की ओर मुड़ गई है। इस दिशा में जनहित और राष्ट्रहित पीछे छूट गए हैं। सत्तारूढ़ दल का विरोध करते-करते विपक्षी दल जनतंत्र के ही विरोध में खड़े नजर आ रहे हैं। संख्या बल में विपक्ष और भी कमजोर हो चुका है, लेकिन संख्या बल में कमी देश की राजनीति को प्रभावित करने की उसकी क्षमता के आड़े कभी नहीं आई। यह कहना गलत नहीं होगा कि आजादी के बाद से विपक्ष इतना निष्प्रभावी कभी नहीं रहा। सबसे बड़ी समस्या यह लग रही है कि विपक्ष को पता ही नहीं है कि वह चाहता क्या है!

सत्ता में आने की विपक्ष की इच्छा और प्रयास जायज हैं, किंतु इसके लिए तो उसे लोगों के बीच जाना होगा और समझना होगा कि वे क्या चाहते हैं? पिछले चार साल में विपक्ष एक दो नहीं 15 राज्यों में चुनाव हार चुका है, लेकिन विपक्षी नेताओं की एक ही रट है कि देश के लोगों का मोदी से मोहभंग हो चुका है। नोटबंदी हुई तो कहा गया कि बस अब मोदी युग खत्म, फिर जब जीएसटी लागू हुआ तो कहा गया कि अब लोग भाजपा को उखाड़ फेकेंगे। मतदाताओं ने किसे उखाड़ फेंका, यह बताने की जरूरत नहीं है। आज हालत यह है कि संसद ठप है, विपक्ष सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की बात कर रहा है, पर खुद ही सदन में व्यवस्था कायम नहीं होने दे रहा। समझना कठिन है कि वह अविश्वास प्रस्ताव लाना चाहता है कि रोकना?

देश के सर्वोच्च न्यायालय को सत्तापक्ष और विपक्ष की राजनीति में घसीटा जा रहा है। अपने राजनीतिक लाभ के लिए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की तैयारी हो रही है। इस सबमें सबसे आगे खड़ी है देश की सबसे पुरानी और सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस पार्टी। विपक्ष संसद क्यों नहीं चलने दे रहा, इसका उसके पास कोई भी वाजिब तर्क नहीं है। अक्सर देखा गया है कि बड़े मुद्दों पर बहस से सरकार भागती है, लेकिन यहां तो विपक्ष तुला हुआ है कि बहस न होने पाए। राजनीति की दशा या कहें दुर्दशा का सबसे ताजा उदाहरण अनुसूचित जाति-जनजाति (अत्याचार निरोधक) कानून पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर आयोजित बंद और हिंसा है। समाज के किसी भी वर्ग की कोई भी तकलीफ या शिकायत उसकी हिंसा के औचित्य को सही साबित नहीं कर सकती, पर दो अप्रैल की हिंसा की राजनीतिक दलों द्वारा आलोचना न किया जाना बताता है कि देश की राजनीति किस खाई में पहुंच गई है। आरक्षण, दलित, वनवासियों के हित और सुरक्षा का मुद्दा राजनीतिक दलों के लिए राजनीतिक फुटबॉल बन गया है। इस संबंध में सरकारों द्वारा उठाए गए ज्यादातर कदम इस वर्ग से ज्यादा अपने राजनीतिक हित को ध्यान में रखकर किए गए हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने जनवरी 1990 में इस कानून में संशोधन किया। इसी के जरिए व्यवस्था की गई कि शिकायत दर्ज कराते ही गिरफ्तारी हो जाएगी। विश्वनाथ प्रताप सिंह की नजर दलित वोटों पर थी। वे कांग्रेस और भाजपा के जनाधार को तोड़कर जनता दल के लिए एक नया सामाजिक समीकरण बनाना चाहते थे। इसीलिए संसद के सेंट्रल हॉल में बाबासाहब भीमराव आंबेडकर का चित्र लगाया और उन्हें मरणोपरांत 'भारत रत्न दिया गया। जो काम कांग्रेस ने आजादी के बाद के 43 वर्षों में नहीं होने दिया।

वीपी सिंह ने जो किया, उसका विरोध किसी ने नहीं किया। उसकी वजह यह नहीं थी कि सब इससे सहमत थे, लेकिन इसके विरोध से होने वाले राजनीतिक नुकसान का जोखिम कोई मोल नहीं लेना चाहता था। इसके बाद इस प्रकरण में नया अध्याय जुड़ा। 2007 में मायावती पूर्ण बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। उन्होंने कहा कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने इस कानून में संशोधन करवाया। कहा कि हत्या और बलात्कार के मामलों के अलावा किसी भी दलित उत्पीड़न की शिकायत पर एससी- एसटी कानून के बजाय भारतीय दंड विधान की धाराओं के तहत मुकदमा चलेगा। इतना ही नहीं, बलात्कार के मामले में भी मेडिकल जांच से प्रथमदृष्टया मामला बनने पर ही इस कानून के तहत कार्रवाई होगी। कुछ महीने बाद उन्होंने एक और आदेश जारी किया कि शिकायत गलत पाई गई तो शिकायतकर्ता के खिलाफ ही मुकदमा चलेगा। यह कानून उत्तर प्रदेश में आज भी लागू है। सवाल है कि मायावती ने यह क्यों किया? 2007 आते-आते मायावती का नारा बहुजन से सर्वसमाज हो गया था। उन्हें गैर-दलितों के भी खूब वोट मिले थे। वे इसे पक्का करना चाहती थीं। इसलिए आज वे जिस दलित हित की बात कर रही हैं, उसके खिलाफ जाकर गैर-दलितों की शिकायत दूर करने और उन्हें खुश करने के लिए कानून में बदलाव किया।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने 20 मार्च के आदेश में यही कहा था कि प्रथमदृष्टया मामला बनने के बाद ही गिरफ्तारी होगी और शिकायतकर्ता वकील व जज नहीं हो सकता। अदालत ने एससी-एसटी कानून के किसी प्रावधान में कोई बदलाव नहीं किया है, फिर भी बवाल क्यों हुआ? इस सवाल का भी जवाब सुप्रीम कोर्ट ने दिया। केंद्र सरकार की पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायाधीशों ने कहा कि जो सड़क पर आंदोलन कर रहे थे, उन्होंने शायद इस अदालत का फैसला नहीं पढ़ा है। उन्हें बरगलाया गया होगा। न्यायाधीशों की यह टिप्पणी राजनीति और खासतौर से इस मुद्दे पर विपक्ष की राजनीति का अंधियारा पक्ष सामने लाती है। विडंबना देखिए कि एससी-एसटी कानून में बड़े बदलाव करने वाली मायावती इस आंदोलन की सबसे बड़ी पैरोकार हैं।

भारत बंद के दौरान सड़क पर हिंसा का परोक्ष समर्थन करने वालों के मन में दलितों के लिए कोई प्रेम नहीं है। उन्हें अपने वोट बैंक की चिंता है। 2014 से गैर-जाटव दलितों का एक वर्ग भाजपा को वोट दे रहा है। विपक्षी दलों की चिंता का कारण यही है। इसी राजनीति के लिए दलितों का इस्तेमाल हो रहा है। दलितों के लिए इनकी चिंता कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि जिस मुद्दे पर एक दर्जन लोगों की जान चली गई, उस पर संसद में चर्चा के लिए इन राजनीतिक दलों को फुर्सत नहीं मिली। सवाल है कि देश संविधान, अदालत और संसद से चलेगा या हिंसा का सहारा लेकर भारत बंद करने से?

 

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)


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