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न्यूज क्लिपिंग्स् | दिल की जुबान या बाजार की भाषा?- प्रभु जोशी

दिल की जुबान या बाजार की भाषा?- प्रभु जोशी

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published Published on May 19, 2014   modified Modified on May 19, 2014
यह निर्विवाद सचाई है कि तमाम युद्ध अस्त्रों-शस्त्रों से ही हारे या जीते नहीं जाते, बल्कि जय-पराजय के पलड़े का उठना या गिरना भाषा के सामर्थ्य से भी तय होता है। इसका प्रत्यक्ष चरितार्थ लोकतंत्र के महापर्व की तरह बताए गए लोकसभा के चुनावों में बहुत स्पष्टता के साथ दिखाई दिया। हर दल और हर एक नेता के लिए उसने लगभग युद्ध की शक्ल अख्तियार कर ली। गौर करना दिलचस्प है कि सत्ता की कॉर्पोरेट-राजनीति, जो अंग्रेजी में विकास की दर पर दहाड़ती थी, पूंछ दबाकर दृश्य से गायब रही और विपक्ष हिंदी में हिम्मत संभालकर अपने-अपने ढंग से लड़ता रहा। यह भाषा में भरोसे की वापसी है। जैसे घोषणा-पत्रों का नहीं, बल्कि सत्ता के लिए बिलबिलाती राजनीति के लिए भाषा का ही असली आसरा रह गया।

अत: चुनाव परिणामों के बाद कोई भी राजनीतिक-दल सत्ता में आया हो, उसके सामने यह साफ हो चुका था कि उसको सत्ता तक पहुंचाने वाली भाषा हिंदी ही रही है। भाषा सिंहासन तक सेतु तो बनाती है, लेकिन अल्पावधि का ही। इसे पिछले पैंसठ वर्षों से उपयोग के बाद अपने वर्गीय हितों के लिए तुरंत तोड़ दिया जाता रहा है। यही वजह है कि जनतांत्रिक-पर्व के पूरा होते ही इसे यथास्थान रख दिया जाता है, क्योंकि विकास के बहुप्रचारित किसी भी मॉडल से भाषा बहिष्कृत है। उसका स्थान हत्या के बाद छुपाकर दूर रख दी जाने वाली खुखरी की तरह है। कहना न होगा कि हालिया चुनाव में हर नेता ने देश और समाज को तो कम, खुद को अपशब्दों में अधिक आत्म-निर्भर बनाया। कुल मिलाकर, कॉर्पोरेटी-विज्ञापन, जो कहता है दिमाग की भाषा भारत में एक है, लेकिन दिल की भाषा हिंदी है। दरअसल पिछले एक-डेढ़ दशक से उसे भड़ास की भाषा बना दिया गया है। वे 'दिल की भाषा" कहकर उसे बोल-चाल भर की कामचलाऊ लद्धड़ भाषा कहना चाहते हैं। चूंकि ऐसा कह देने से हिंदी बोलने वाले लोग भड़क सकते हैं, इसलिए उसके आगे 'दिल की भाषा" जैसा विशषण जोड़ दिया।

पूछा जाना चाहिए कि चौतरफा प्रचारित विकास के मॉडल की हकीकत को 'ग्लोबलाइजेशन" के द्वारा पैदा किए आशावाद में धुत्त पीढ़ी जानती भी है कि नहीं। आनंदवाद के अतिरेक में डूबी पीढ़ी! इस अनियंत्रित आनंदवाद का कोई शिखर नहीं, वहां सिर्फ पठार है।

बहरहाल, विकास का मॉडल, जो पिछले दिनों प्रचार-प्रविधि से आसमान नापता रहा, उसका आर्थिक-दृष्टि से मूल्यांकन करें तो वह केवल 'हैप्पी-इकोनोमिक्स" का विज्ञापनी रूप दिखाई देगा। शाइनिंग-इंडिया भी इसी की उपज था। इसमें शहरी-मध्यवर्ग को महानगरीय जीवनशैली के लपक भरने का काम किया जाता है। वह वर्गांतरण के मिथ्याभास से भर उठता है। यह अलग बात है कि सेक्स-फ्रीडम 'हैप्पी-इकोनोमिक्स" में सबसे आगे के पायदान पर है। हार्वर्डी-समझ वाले हमारे अब भूतपूर्व वित्त-मंत्री ने हाल ही में कहा भी था कि भारत में अश्लील-वेबसाइट पर रोक लगाने से हमें भारी घाटा उठाना पड़ेगा। फेसबुकिया पीढ़ी का यह सबसे सस्ता व सरल आनंदवाद जो है।

यदि हम आज संसार के सर्वोत्कृष्ट शिक्षा संस्थानों की फेहरिस्त को देखें तो पाएंगे कि उसमें जितने भी विश्वविद्यालयों के नाम हैं, वे सभी अपने ही देश की भाषा में शिक्षा की व्यवस्था नीति लागू किए हुए हैं। पिछले ही दिनों दिल्ली के एक राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक में खबर छपी कि भारतीय 'बिजनेस-स्कूल" में चीन की मंदारिन भाषा की पढ़ाई शुरू की जा चुकी है, क्योंकि वह विश्व-व्यवसाय के भविष्य का विराटतम मुल्क होने जा रहा है। रिपोर्ट में मंदारिन सीखने वाले छात्रों का बढ़ता आंकड़ा भी बताया गया है। प्रश्न उठता है कि हिंदी विश्व की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी भाषा है, लेकिन उसे हमने व्यवसाय की भाषा नहीं बनने दिया और अब हम चीन की चित्रात्मक-लिपि वाली मंदारिन सीख रहे हैं, जिसमें कोई दो हजार चिह्न हैं।

जब अमेरिका ने अपने बिजनेस स्कूलों में भारत में व्यवसाय के लिए हिंदी को जानना जरूरी बताते हुए फिलाडेल्फिया के प्रबंधन स्कूल ने पाठ्यक्रम बनाने की तैयारी की तो भारत के सत्ता के अभिजातों ने उन्हें कहा कि अब जबकि पूरा भारत अंग्रेजी की तरफ कूच कर रहा है, तब आप उसे फिर से क्यों विकास-विरोधी दिशा में धकेल रहे हैं? यदि शिक्षा में हमने अपने यहां हिंदी के लिए जगह बनाई होती तो हम पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मॉरीशस, सूरीनाम आदि से भी हिंदी में व्यवसाय करते और वह अंग्रेजी से कहीं ज्यादा डॉलर कमाती। एक अरब से ज्यादा के इस देश के व्यवसाय के लिए हवाई हमले का काम सिर्फ हिंदी कर रही है। लेकिन थलसेना की तरह आगे बढ़कर अंग्रेजी सबकुछ पर कब्जा कर लेती है।

यह निर्विवाद सचाई है कि तमाम युद्ध अस्त्रों-शस्त्रों से ही हारे या जीते नहीं जाते, बल्कि जय-पराजय के पलड़े का उठना या गिरना भाषा के सामर्थ्य से भी तय होता है। इसका प्रत्यक्ष चरितार्थ लोकतंत्र के महापर्व की तरह बताए गए लोकसभा के चुनावों में बहुत स्पष्टता के साथ दिखाई दिया। हर दल और हर एक नेता के लिए उसने लगभग युद्ध की शक्ल अख्तियार कर ली। गौर करना दिलचस्प है कि सत्ता की कॉर्पोरेट-राजनीति, जो अंग्रेजी में विकास की दर पर दहाड़ती थी, पूंछ दबाकर दृश्य से गायब रही और विपक्ष हिंदी में हिम्मत संभालकर अपने-अपने ढंग से लड़ता रहा। यह भाषा में भरोसे की वापसी है। जैसे घोषणा-पत्रों का नहीं, बल्कि सत्ता के लिए बिलबिलाती राजनीति के लिए भाषा का ही असली आसरा रह गया।

अत: चुनाव परिणामों के बाद कोई भी राजनीतिक-दल सत्ता में आया हो, उसके सामने यह साफ हो चुका था कि उसको सत्ता तक पहुंचाने वाली भाषा हिंदी ही रही है। भाषा सिंहासन तक सेतु तो बनाती है, लेकिन अल्पावधि का ही। इसे पिछले पैंसठ वर्षों से उपयोग के बाद अपने वर्गीय हितों के लिए तुरंत तोड़ दिया जाता रहा है। यही वजह है कि जनतांत्रिक-पर्व के पूरा होते ही इसे यथास्थान रख दिया जाता है, क्योंकि विकास के बहुप्रचारित किसी भी मॉडल से भाषा बहिष्कृत है। उसका स्थान हत्या के बाद छुपाकर दूर रख दी जाने वाली खुखरी की तरह है। कहना न होगा कि हालिया चुनाव में हर नेता ने देश और समाज को तो कम, खुद को अपशब्दों में अधिक आत्म-निर्भर बनाया। कुल मिलाकर, कॉर्पोरेटी-विज्ञापन, जो कहता है दिमाग की भाषा भारत में एक है, लेकिन दिल की भाषा हिंदी है। दरअसल पिछले एक-डेढ़ दशक से उसे भड़ास की भाषा बना दिया गया है। वे 'दिल की भाषा" कहकर उसे बोल-चाल भर की कामचलाऊ लद्धड़ भाषा कहना चाहते हैं। चूंकि ऐसा कह देने से हिंदी बोलने वाले लोग भड़क सकते हैं, इसलिए उसके आगे 'दिल की भाषा" जैसा विशषण जोड़ दिया।

पूछा जाना चाहिए कि चौतरफा प्रचारित विकास के मॉडल की हकीकत को 'ग्लोबलाइजेशन" के द्वारा पैदा किए आशावाद में धुत्त पीढ़ी जानती भी है कि नहीं। आनंदवाद के अतिरेक में डूबी पीढ़ी! इस अनियंत्रित आनंदवाद का कोई शिखर नहीं, वहां सिर्फ पठार है।

बहरहाल, विकास का मॉडल, जो पिछले दिनों प्रचार-प्रविधि से आसमान नापता रहा, उसका आर्थिक-दृष्टि से मूल्यांकन करें तो वह केवल 'हैप्पी-इकोनोमिक्स" का विज्ञापनी रूप दिखाई देगा। शाइनिंग-इंडिया भी इसी की उपज था। इसमें शहरी-मध्यवर्ग को महानगरीय जीवनशैली के लपक भरने का काम किया जाता है। वह वर्गांतरण के मिथ्याभास से भर उठता है। यह अलग बात है कि सेक्स-फ्रीडम 'हैप्पी-इकोनोमिक्स" में सबसे आगे के पायदान पर है। हार्वर्डी-समझ वाले हमारे अब भूतपूर्व वित्त-मंत्री ने हाल ही में कहा भी था कि भारत में अश्लील-वेबसाइट पर रोक लगाने से हमें भारी घाटा उठाना पड़ेगा। फेसबुकिया पीढ़ी का यह सबसे सस्ता व सरल आनंदवाद जो है।

यदि हम आज संसार के सर्वोत्कृष्ट शिक्षा संस्थानों की फेहरिस्त को देखें तो पाएंगे कि उसमें जितने भी विश्वविद्यालयों के नाम हैं, वे सभी अपने ही देश की भाषा में शिक्षा की व्यवस्था नीति लागू किए हुए हैं। पिछले ही दिनों दिल्ली के एक राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक में खबर छपी कि भारतीय 'बिजनेस-स्कूल" में चीन की मंदारिन भाषा की पढ़ाई शुरू की जा चुकी है, क्योंकि वह विश्व-व्यवसाय के भविष्य का विराटतम मुल्क होने जा रहा है। रिपोर्ट में मंदारिन सीखने वाले छात्रों का बढ़ता आंकड़ा भी बताया गया है। प्रश्न उठता है कि हिंदी विश्व की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी भाषा है, लेकिन उसे हमने व्यवसाय की भाषा नहीं बनने दिया और अब हम चीन की चित्रात्मक-लिपि वाली मंदारिन सीख रहे हैं, जिसमें कोई दो हजार चिह्न हैं।

जब अमेरिका ने अपने बिजनेस स्कूलों में भारत में व्यवसाय के लिए हिंदी को जानना जरूरी बताते हुए फिलाडेल्फिया के प्रबंधन स्कूल ने पाठ्यक्रम बनाने की तैयारी की तो भारत के सत्ता के अभिजातों ने उन्हें कहा कि अब जबकि पूरा भारत अंग्रेजी की तरफ कूच कर रहा है, तब आप उसे फिर से क्यों विकास-विरोधी दिशा में धकेल रहे हैं? यदि शिक्षा में हमने अपने यहां हिंदी के लिए जगह बनाई होती तो हम पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, मॉरीशस, सूरीनाम आदि से भी हिंदी में व्यवसाय करते और वह अंग्रेजी से कहीं ज्यादा डॉलर कमाती। एक अरब से ज्यादा के इस देश के व्यवसाय के लिए हवाई हमले का काम सिर्फ हिंदी कर रही है। लेकिन थलसेना की तरह आगे बढ़कर अंग्रेजी सबकुछ पर कब्जा कर लेती है।

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