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न्यूज क्लिपिंग्स् | दुख और संघर्षो का बोझ : हर्ष मंदर

दुख और संघर्षो का बोझ : हर्ष मंदर

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published Published on Sep 30, 2011   modified Modified on Sep 30, 2011

पुणे की यरवदा जेल का बैरक नंबर तीन। सूरज की पहली किरणों इसके उदास अंदरूनी अहातों तक पहुंचें, इससे भी पहले एक महिला उठकर काम में जुट गई है। यह उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा है। बैरक की ठंडी फर्श पर अब भी 52 महिला बंदी अलसभोर की गहरी नींद में डूबी हुई हैं।

सभी के बदन पर हरी साड़ियां हैं, जिनका रंग अब फीका पड़ता जा रहा है। बंदिनियों की यही वेशभूषा है। बीते चार सालों से इस महिला के दिन की शुरुआत इसी तरह हो रही है। मौसम बदलता है, दुनिया बदल जाती है, लेकिन बैरक में कुछ नहीं बदलता। जेल की चहारदीवारी के इस तरफ एक दूसरी ही दबी-छुपी दुनिया है। वह महिला इंडियन पेनल कोड की दफा ३क्२ के तहत उम्रकैद की सजा भुगत रही है। एक बेहद संगीन जुर्म की सजा।

उसे जेल की साफ-सफाई करने, कचरा बुहारने और मैला ढोने का काम सौंपा गया है। वह दिनभर इसमें जुटी रहती है। सूरज ढलने के बाद वह निढाल होकर बैरक के एक कोने में पसर जाती है। मारे थकान के बदन टूटता है, लेकिन दिल को होने वाली तकलीफ के सामने यह थकान कुछ भी नहीं। वह धीमे-से बुदबुदाते हुए कहती है, ‘अगर मेरा बेटा न होता तो मैं बहुत पहले ही जिंदगी को अलविदा कह चुकी होती। यह भी कोई जिंदगी है!’

उसका विवाह महज 14 साल की उम्र में हो गया था। उसका पति उससे दस वर्ष से भी अधिक बड़ा था। तब कइयों ने कहा था कि वह खुशनसीब है, जो उसे इतना अच्छा वर मिला। उसकी स्थायी सरकारी नौकरी थी। वह पुणो के मामलातदार दफ्तर में पियून था, लेकिन वह अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा शराब में खर्च करता था। उसने इसे अपना भाग्य मानकर स्वीकार कर लिया। घर चलाने के लिए वह खुद पैसा कमाने लगी। वह दो घरों में झाड़ू-पोछा करती और कपड़े-बरतन धोती।

विवाह के दस साल बाद उसने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम रखा गया सचिन। भाग्य ने उसे अपने बेटे की परवरिश करने के लिए महज चार साल का ही वक्त दिया, लेकिन इसी अवधि में सचिन ने उसके मन में प्यार और उम्मीद की एक किरण के रूप में जगह बना ली। जिंदगी ने करवट बदली, जब उसका पति एक अन्य महिला के साथ रहने लगा। उस दुर्भाग्यपूर्ण रात उसके पति ने उससे कहा कि वह अपने दफ्तर में काम करने वाली महिला से विवाह करने जा रहा है और अब वह इसी घर में रहेगी।

उसने इसका विरोध किया और पति-पत्नी में जोरदार झड़प हुई। पति की मौत हो गई। कैसे, यह अब भी एक राज बना हुआ है। पुलिस की कहानी के मुताबिक महिला ने अपनी मां के साथ मिलकर पति पर केरोसीन छिड़ककर उसे जला दिया। जबकि महिला अपनी सफाई में कहती है कि उसके पति ने शराब के नशे में खुद पर केरोसीन छिड़क लिया और आत्मदाह कर लिया।

जब तक आस-पड़ोस के लोग उसके पति को लेकर अस्पताल पहुंचते, तब तक वह ६क् फीसदी जल चुका था। लेकिन वह लगातार अस्पताल जाने के बजाय पुलिस स्टेशन जाने पर जोर देता रहा, ताकि अपनी पत्नी और सास पर उसकी जान लेने के प्रयास की रिपोर्ट दर्ज करवा सके। अगली सुबह कुछ पुलिसकर्मी महिला के घर आए और उसे व उसकी मां को गिरफ्तार कर लिया। दोनों ने लॉक-अप में चार दिन गुजारे। इस दौरान उसका बच्चा भी उसके साथ था। इसके बाद उन्हें 12 दिन जेल में बिताने पड़े।

आखिरकार महिला के भाई द्वारा जमानत देने पर वे रिहा हुए। जिस दिन वह जेल से बाहर आई, उसी दिन उसे पता चला कि उसके पति की मौत हो चुकी है। मृत्यु से पहले उसने अस्पताल में बयान दिया था कि उसकी पत्नी ही उसकी इस दशा के लिए जिम्मेदार है। 15 महीनों तक अदालत में इस मामले की सुनवाई चलती रही। बूढ़ी मां को तो अनुकंपापूर्वक मामले से बरी कर दिया गया, लेकिन उसके पति का बयान उसके लिए सबसे बड़ी बाधा बन चुका था।

तभी से उसकी जिंदगी जेल में कट रही है। कई महीने और साल गुजर गए, लेकिन उसकी जिंदगी मौत से भी बदतर बनी रही। उसके जीवन में चंद खुशियों के क्षण केवल तभी आते, जब कभी-कभी उसे अपने बेटे से मिलने की अनुमति दी जाती।

जेल के नियमों के तहत वह अपने बेटे से महज 15 मिनटों के लिए ही मिल सकती थी और तब भी उन दोनों के बीच सलाखें होती थीं। लेकिन जेल स्टाफ उस पर तरस खाकर कभी-कभी उसे अपने बेटे से मिलने के लिए ज्यादा समय भी दे देता था और कुछ अवसरों पर उन्होंने उसके बेटे को भीतर जाने का मौका भी दिया, ताकि मां अपने बेटे को गले लगा सके। मां के कारावास में जाने के बाद सचिन ने पहले तीन साल अपने मामा के यहां बिताए, लेकिन यहां उसके साथ निरंतर हुए उपेक्षापूर्ण और कटु व्यवहार के बाद कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने उसे एक अनाथालय भेज दिया।

उसकी मां नहीं चाहती थी कि वह खुद को दूसरों पर बोझ समझे, इसलिए उसने जेल में कचरा बुहारने और मैला ढोने का काम शुरू कर दिया। इसके एवज में उसे प्रतिमाह 750 रुपए मिलते थे, जो वह बेटे को भिजवा देती थी। हाल ही में उसे जेल में अपने बेटे का पहला पत्र मिला।

उसने सधे हुए अक्षरों में लिखा था: ‘नमस्ते, आई। मैं यहां बहुत खुश हूं। मैंने स्कूल जाना भी शुरू कर दिया है। मास्टरजी मुझे बहुत अच्छी कहानियां सुनाते हैं। परीक्षा में मुझे अच्छे अंक भी मिले हैं। मेरे लिए परेशान मत होना।’ पेज के नीचे उसने पेंसिल से एक गुलदान का छोटा-सा रेखांकन बनाया था, जिसमें उसने चमकीले रंग भरे थे।

यरवदा जेल के बैरक नंबर तीन के एक कोने में वह उस पत्र को बार-बार उलट-पुलटकर देखती है। अब तो उसे यह भी याद नहीं कि उसने उसे कितनी बार पढ़ा है, कितनी बार उस नन्हे रेखांकन को सहलाया है। उसके लिए दुख और तकलीफ से भरे इतने सालों का बोझ सहना अब थोड़ा आसान हो गया है।


http://www.bhaskar.com/article/ABH-the-burden-of-suffering-and-struggle-2369716.html


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