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न्यूज क्लिपिंग्स् | देश नहीं भगवान को प्यारे

देश नहीं भगवान को प्यारे

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published Published on Aug 10, 2010   modified Modified on Aug 10, 2010
उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में इंसेफलाइटिस से हज़ारों बच्चों का मरना और विकलांग होना जारी है. इससे बचने के उपाय हैं तो मगर दो सरकारों के झगड़ों और लालफीताशाही में उलझकर रह गए हैं जयप्रकाश त्रिपाठी की रिपोर्ट

बच्चों की मौत बिना नागा जारी है. वे विकलांग भी हो रहे है. 2-4-6-8 साल के नन्हे-मुन्ने और मुन्नियां. कुछ दुधमुंहे भी हैं. रोने क्या कुनमुनाने तक से लाचार. एक-दो नहीं सैकड़ों-हजारों मासूम. पिछले 2 या 4 साल से नहीं पूरे 32 साल से. सरकारें भी अपने-अपने कामों में लगी हैं. मगर केंद्र सरकार राज्य सरकार की वजह से कुछ नहीं कर पा रही है और राज्य सरकार केंद्र सरकार की वजह से. बच्चे मर रहे हैं. आगे ऐसा नहीं होगा इसकी उम्मीद न के बराबर है.
बात हो रही है पूर्वांचल की महामारी मानी जाने वाली बीमारी इंसेफलाइटिस यानी दिमागी बुखार और उसके इर्द-गिर्द फैली एक अजीबोगरीब किस्म की आपराधिक लापरवाही. पूर्वी उत्तर प्रदेश के आधा दर्जन से अधिक जिलों में पिछले 32 साल में इंसेफलाइटिस से हजारों बच्चे मौत की भेंट चढ़ चुके हैं. जो किसी तरह से बच गए उनमें से ज्यादातर ताजिंदगी विकलांगता का अभिशाप झेलने को मजबूर हैं. अगर विशुद्ध आंकड़ों की बात की जाए तो अकेले गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में ही इंसेफलाइटिस से मरने वाले बच्चों की संख्या 7,000 और विकलांग हुए बच्चों की संख्या 5,000 हजार को पार कर चुकी है.  इसके बावजूद 2008 से अब तक दिमागी बुखार के टीकाकरण के लिए आए टीकों की लाखों खुराकें बच्चों को लगाए जाने के स्थान पर एक-एक कर कूड़ेदान की भेंट चढ़ाई जा रही हैं.

अकेले गोरखपुर मेडीकल कॉलेज में ही इंसेफलाइटिस से मरने वाले बच्चों का संख्या 7000 और विकलांग हुए बच्चों की संख्या 5000 हजार को पार कर चुकी है

दिमागी बुखार से सिर्फ पूर्वी उत्तर प्रदेश के जिले ही नहीं बल्कि देश के अन्य कई राज्य भी प्रभावित हैं. अगर इसके इतिहास पर नजर डालें तो जानकारों के मुताबिक गोरखपुर स्थित बीआरडी मेडिकल कॉलेज में 1977-78 में सबसे पहले दिमागी बुखार से पीिड़त बच्चे आना शुरू हुए थे. इंसेफलाइटिस उन्मूलन अभियान नाम की एक स्वयंसेवी पहल से जुड़े गोरखपुर के एक प्रमुख बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. आरएन सिंह बताते हैं, 'उस समय आसपास के जिलों से बच्चे सुबह-सुबह तेज बुखार में मेडिकल कॉलेज आते थे और शाम तक उनकी मौत हो जाती थी. तब मेडिकल कॉलेज में किसी को भी यह समझ नहीं आता था कि ये बीमारी आखिर है क्या? 1978 में मेडिकल कॉलेज में 274 बच्चे भर्ती हुए जिनमें से 58 की मौत हो गई. केवल 85 बच्चे ही पूरी तरह से ठीक हो पाए.' वे आगे बताते हैं कि आने वाले सालों में बारिश का मौसम आते ही बच्चों को यह बीमारी और इससे उनकी मृत्यु होने का आंकड़ा बढ़ता चला गया. लेकिन सरकार व स्वास्थ्य विभाग को इस बुखार के कारणों का पता लगाकर इस पर रोकथाम लगाने में 28 साल लग गए.

2005 में दिमागी बुखार पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, महाराजगंज, कुशीनगर, बस्ती, देवरिया, सिद्धार्थनगर, संतकबीरनगर आदि जिलों में महामारी बनकर आया. उस साल 5,000 से अधिक बच्चे दिमागी बुखार की चपेट में आए जिनमें से 1,200 से ज्यादा की मृत्यु हो गई. जो बचे उनमें से सैकड़ों बच्चे उम्र भर के लिए विकलांग हो गए. एक साथ हजारों की संख्या में बच्चों के मरने व विकलांग होने से काफी शोर-शराबा हुआ, तब कहीं जाकर सरकारी नींद टूटी. 2006 में सरकार ने चीन के चेंगडू इंस्टिट्यूट ऑफ बायोलॉजिकल प्रोडक्ट्स से दिमागी बुखार की वैक्सीन मंगवाकर बड़े पैमाने पर टीकाकरण करवाया. लेकिन 2008 से राज्य व केंद्र सरकार के बीच सामंजस्य न बन पाने के कारण बच्चों का टीकाकरण संभव ही नहीं हो सका है.

अगर शुरू से चलें तो मेडिकल कॉलेज गोरखपुर के एक वरिष्ठ डॉक्टर बताते हैं कि 2008 के सितंबर महीने में 4.6 लाख वैक्सीन के डोज बच्चों को लगाने के लिए भेजे गए थे जबकि दिमागी बुखार का सीजन जुलाई से ही प्रारंभ हो जाता है. इसके अलावा वैक्सीन का डोज चार से छह सप्ताह पहले ही बच्चों को मिल जाना चाहिए तभी वह कारगर साबित होता है. वैक्सीन आने के बाद दोनों सरकारों के बीच एक अलग ही विवाद शुरू हो गया. गवर्नमेंट मेडिकल स्टोर करनाल से आए वैक्सीन को राज्य सरकार ने यह कहकर प्रयोग करने से मना कर दिया कि जो डोज आए हैं वह थर्ड स्टेज की अर्थात खराब होने के बिल्कुल कगार पर हैं और उनके प्रयोग से कोई फायदा नहीं है. राज्य सरकार को केंद्र का जवाब था कि वैक्सीन थर्ड यानी आखिरी नहीं बल्कि सेकंड स्टेज की है और इसका प्रयोग किया जा सकता है. इसपर राज्य सरकार का तर्क था कि वैक्सीन जब तक गांवों में पहुंचेगी तब तक खराब हो जाएगी. दोनों सरकारों के बीच इस मसले पर विवाद इतना बढ़ गया कि राज्य के स्वास्थ्य मंत्री अनंत मिश्र ने 16 सितंबर, 2008 को विधिवत घोषणा कर दी कि केंद्र ने राज्य को खराब वैक्सीन भेज दी है. दोनों सरकारों के बीच यह वाक्युद्ध उस समय हो रहा था जब प्रदेश के हजारों नन्हे-मुन्ने जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे थे क्योंकि इस समय दिमागी बुखार का चक्र अपने चरम पर होता है.

दोनों सरकारों के बीच यह वाक्युद्ध उस समय हो रहा था जब प्रदेश के हजारों नन्हे-मुन्ने जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे थे क्योंकि इस समय दिमागी बुखार का चक्र अपने चरम पर होता है सरकारों की यह लड़ाई पूरे साल चलती रही और अंत में जनवरी, 2009 को 4.6 लाख डोज वैक्सीन का समूचा स्टॉक खराब घोषित कर दिया गया. आलम यह रहा कि उत्तर प्रदेश के साथ पश्चिम बंगाल को 1.44 लाख, बिहार को 1.3 लाख, तमिलनाडु को 85  तथा असम को जो 72 हजार वैक्सीन के डोज मिले थे, उन्हें भी खराब बताते हुए प्रयोग में नहीं लाया गया. यानी वर्ष 2008 पर्याप्त टीके होते हुए भी बिना टीकाकरण के ही निकल गया.
वर्ष 2009 में एक बार फिर से कुछ ऐसा ही हुआ. सूत्रों के मुताबिक बच्चों को टीका लगाने के लिए 16 लाख डोज सितंबर के अंत में तब भेजे गए जब बारिश के खत्म होने के बाद दिमागी बुखार फिर से अपने पूरे चरम पर था. इस बार भी राज्य सरकार को इन टीकों में कुछ खामियां नजर आ गईं और उसने बच्चों का टीकाकरण करने से साफ मना कर दिया.

हालांकि इस साल केंद्र सरकार की नींद थोड़ी जल्दी टूट गई मगर इस बार भी बच्चों को अब तक तो टीके लगाए नहीं जा सके हैं और आगे भी ऐसा नहीं होगा इसे लगभग तय माना जा सकता है. आपराधिक लापरवाही के इस भयावह नमूने पर एक नजर डालते हैंः 21 जनवरी को केंद्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग को एक पत्र भेजा गया (केंद्र और राज्य सरकार के बीच के इन सभी पत्र-व्यवहारों की प्रतियां तहलका के पास हैं) जिसमें विशेष अभियान चलाकर बच्चों का जैपनीज इंसेफलाइटिस के लिए टीकाकरण करने की जरूरत बताने के साथ-साथ  प्रदेश सरकार से इसके लिए जरूरी तैयारियां करने का अनुरोध किया गया था. इसके जवाब में 26 फरवरी, 2010 को यानी पूरे एक महीना पांच दिन बाद राज्य सरकार ने केंद्र को जवाब दिया कि वह विशेष टीकाकरण अभियान चलाने की इच्छुक है और इसके लिए उसे टीकों के करीब 20 लाख डोजों की आवश्यकता है. इस पत्र में राज्य सरकार ने केंद्र से यह भी कहा कि वह ‘जेइ’ (जैपनीज एंसेफ्लाइटिस) की वैक्सीन के बारे में जानकारी (जैसे बैच नंबर और एक्सपायरी डेट) भी उसे भेज दें. राज्य सरकार को केंद्र की ओर से 10 मार्च, 2010 को इसका जवाब यह आया कि जो दवाएं भेजी जा रही हैं उनकी एक्सपायरी जुलाई, 2010 या उसके बाद की है. केंद्र ने इस पत्र में राज्य सरकार से उन ताऱीखों का भी विवरण मांगा जब वह टीकाकरण कराना
चाहती है.

इसके बाद बहुमूल्य समय बीतता रहा और एक महीने से ज्यादा समय तक उत्तर प्रदेश सरकार चुप्पी धरे रही. फिर 13 अप्रैल को उसने केंद्र सरकार को लिखा कि चूंकि उसे इस टीकाकरण अभियान के लिए कम-से-कम '6-8 सप्ताह' की जरूरत होगी, इसलिए टीकाकरण मई/ जून से पहले संभव नहीं होगा और यह ताजा स्टॉक के पहुंचने पर निर्भर करेगा. उसी दिन केंद्र ने राज्य सरकार को फैक्स से अवगत कराया कि '17 लाख वैक्सीन के डोज रिलीज कर दिए गए हैं जो शीघ्र ही उत्तर प्रदेश पहुंच जाएंगे.' पत्र में राज्य के स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के महानिदेशक से 1 मई से टीकाकरण अभियान शुरू करने का अनुरोध किया गया था और यह भी लिखा था कि इसके लिए 'जरूरी बजट राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन से निकाला जा सकता है' जिसका भुगतान राज्य सरकार को कर दिया जाएगा.

किंतु आनन-फानन में 13 अप्रैल को ही राज्य सरकार की ओर से फिर केंद्र को एक फैक्स भेजा गया कि उसे सेेकेंड या थर्ड स्टेज वाली के साथ-साथ वह वैक्सीन भी नहीं चाहिए जिसकी एक्सपायरी जून या जुलाई में हो. पत्र में साफ-साफ कहा गया कि टीकाकरण तभी होगा जब फ्रेश दवाइयां आएंगी. इस पत्र में राज्य के स्वास्थ्य महानिदेशक आरआर भारती ने केंद्र सरकार द्वारा बजट संबंधी आश्वासन मिलने के बाद भी केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से मुहिम
शुरू होने के कम-से-कम एक महीने पहले ही ताजा टीकों के साथ आवश्यक धन देने की भी मांग कर डाली.

राज्य सरकार के मना करने के बावजूद केंद्र सरकार ने 15.47 लाख डोज गोरखपुर व बस्ती मंडल के लिए भिजवा दे. वैक्सीन आने के बाद भी दोनों सरकारों के बीच खींचतान चलती रही जिसका नतीजा यह हुआ कि इस वर्ष भी बच्चों को समय पर टीका लगने की सारी संभावनाएं खत्म हो गईं. आज हालत यह है कि पूर्वांचल में दिमागी बुखार की शुरुआत हुए करीब एक महीना हो चुका है और इसके चलते सौ से ज्यादा बच्चों की मौत हो चुकी है.

उत्तर प्रदेश में जैपनीज इंसेफलाइटिस से संबंधित विभाग के ज्वाइंट डायरेक्टर डॉ. वीएस निगम कहते हैं, 'केंद्र सरकार की ओर से काफी पत्र व्यवहार के बाद वैक्सीन के 15.47 लाख डोज मई माह के मध्य में भेजे गए, जिनमें से 50 प्रतिशत से अधिक खराब थे. इनका वीवीएम(वैक्सीन वायल मॉनीटर जो वैक्सीन की स्थिति बताता है) सेकेंड या थर्ड स्टेज में था. जो कुछ ठीक भी थीं उनकी एक्सपायरी डेट जून में 7, 14 व 21 तारीख थी. ऐसे में जब तक इन्हें सुदूर गांवों में भेजा जाता, ये भी खराब हो जातीं. पूरी वैक्सीन में सिर्फ 15 हजार वायल (75 हजार डोज) ही ठीक थे, जिनका प्रयोग किया जा रहा है.' उधर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की टीकाकरण इकाई के उपायुक्त नवनीत कुमार मखीजा का कहना है कि केंद्र द्वारा उत्तर प्रदेश को भेजे गए सारे टीके सही थे और ये उत्तर प्रदेश सरकार की लापरवाही के चलते बच्चों को नहीं लगाए जा सके

भारत सरकार को जेइ पर तकनीकी मदद देने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्था पाथ के डायरेक्टर प्रीतू ढलेरिया भी टीकाकरण न हो पाने के पीछे कहीं न कहीं राज्य सरकार को ही दोषी मानते हैं. उनका तर्क है कि यदि वैक्सीन का तापमान मानक के अनुसार रखा जाए तो एक्सपायरी डेट तक उसके वायरस प्रभावी होते हैं. इतना ही नहीं यदि वायरस की संख्या वायल में 50 प्रतिशत से अधिक है तब भी उसकी खुराक प्रभावी होगी. ऐसे में प्रदेश के अधिकारियों ने आंख से ही देखकर इस बात का अंदाजा कैसे लगा लिया कि वैक्सीन खराब हो गई है. सेकेंड या थर्ड स्टेज में भी वैक्सीन यदि ठीक तापमान में रखी जाए तो प्रयोग की जा सकती है.
अगर दोनों सरकारों के पत्र व्यवहार  पर ध्यान दें तो राज्य सरकार की भूमिका पर और भी सवाल खड़े हो जाते हैंैं. सवाल यह उठता है कि जब इतने सारे बच्चों की जान पर खतरा मंडरा रहा था तब भी उत्तर प्रदेश सरकार केंद्र सरकार के साथ पत्रों का व्यवहार करने में ही अपना कीमती समय क्यों नष्ट करती रही. अगर वह केंद्रीय अधिकारियों के पत्रों का जवाब देने में महीनों न लेती तो कोई कारण नहीं था कि उसके ही मुताबिक जून के आसपास की एक्सपायरी डेट वाली वैक्सीन बच्चों को सही समय पर नहीं लगाई जा सकती. मगर राज्य सरकार कभी लेटरबाजी करके तो कभी धन तो कभी टीकों के सही-खराब होने को आधार बनाकर इतने महत्वपूर्ण मसले पर सरकारी दांवपेंच और मासूमों की जिंदगी से खेलने में ही लगी रही.

सवाल केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की भूमिका पर भी उठाए जा सकते हैं. एक वैक्सीन की एक्सपायरी डेट करीब दो साल की होती है, यदि उसे सही तापमान पर रखा जाए तो. तो फिर क्या वजह रही कि उसने इन वैक्सीनों को बिल्कुल आखिरी समय पर ही बांटने का फैसला किया? गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ कहते हैं, 'सरकार दिमागी बुखार से मरने वाले बच्चों का जो आंकड़ा पेश करती है वह काफी कम होता है. क्योंकि यह आंकड़ा सिर्फ गोरखपुर मेडिकल कॉलेज का है. जबकि इस बीमारी से पूर्वांचल के सभी जिलों के सरकारी अस्पतालों व निजी अस्पतालों में मरने वाले गरीब बच्चों का कोई आंकड़ा ही नहीं रखा जाता.'
आंकड़ा चाहे 10 हजार का हो या 30 का, गलती चाहे केंद्र की हो या राज्य सरकार की. सच्चाई यह है कि यह एक जानलेवा बीमारी है और उससे बचने का टीका है. टीका हमारे पास है. हम उसे अपने बच्चों को लगाने की बजाय बर्बाद होने दे रहे हैं. बच्चे मर रहे हैं. इसके आगे कुछ भी कहने की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है.   

http://www.tehelkahindi.com/indinon/national/653.html


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