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न्यूज क्लिपिंग्स् | दोहरे मानदंडों का नया नमूना - राजीव सचान

दोहरे मानदंडों का नया नमूना - राजीव सचान

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published Published on May 10, 2016   modified Modified on May 10, 2016
गोवध और गोमांस पर पाबंदी के महाराष्ट्र सरकार के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं की सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट इस नतीजे पर पहुंचा है कि राज्य के बाहर से गोमांस लाने, रखने और खाने पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकती। हाईकोर्ट के अनुसार शासन को यह तय करने का अधिकार नहीं कि लोग क्या खाएं-पिएं! हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि गोमांस लाने, रखने और खाने पर रोक निजता के अधिकार का हनन है। अभी यह तय नहीं कि महाराष्ट्र सरकार हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएगी या नहीं? मीडिया के एक बड़े हिस्से में बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले की तारीफ हुई और कुछ ऐसी भी खबरें आईं कि महाराष्ट्र में गोवध पर पाबंदी से किस तरह कुछ लोगों की रोजी-रोटी पर बुरा असर पड़ा है। अवश्य ही ऐसा हुआ होगा। एक समय जब लॉटरी पर पाबंदी लगाई गई थी तो तमाम लोगों की रोजी-रोटी पर असर पड़ा था। गुटखे पर पाबंदी सेे भी ऐसा ही होगा। निस्संदेह बिहार में शराबबंदी के चलते भी कुछ लोगों की रोजी-रोटी पर असर हुआ होगा, लेकिन इस बारे में वैसा कोई सवाल नहीं उठा है जैसा महाराष्ट्र में गोवध पर पाबंदी को लेकर उठा था। इसी तरह अभी तक ऐसा भी कोई सवाल सामने नहीं आया है कि अगर महाराष्ट्र में बाहर से गोमांस लाना, रखना और खाना विधिसम्मत है तो बिहार या शराबबंदी वाले अन्य राज्यों में बाहर से शराब लाने, रखने व पीने की अनुमति क्यों नहीं है?

जिस तरह संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में शराब और उन अन्य मादक पदार्थों पर प्रतिबंध की बात कही गई है, जो स्वास्थ्य के लिए घातक हैं उसी तरह गोवध पर पाबंदी के बारे में भी कहा गया है। अनुच्छेद 47 में शराब और अन्य हानिकारक मादक पदार्थों पर पाबंदी की बात की गई है तो अनुच्छेद 48 में गोवध पर, ताकि गोवंश को संरक्षण मिल सके। मुश्किल यह है कि जिन लोगों के लिए अनुच्छेद 47 का पालन समाज सुधार है, उन्हीं के हिसाब से अनुच्छेद 48 पर अमल सांप्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाना है। केरल में माकपा के एक नेता एमए बेबी ने दलील भी दी है कि गोमांस तो एक ऐसा भोजन है जिसमें विटामिन होता है, जबकि शराब समाज के लिए बुराई है। एक अन्य मुश्किल यह समझना भी है कि हमारी अदालतें अनुच्छेद 47 की वैसी व्याख्या क्यों नहीं कर पा रही हैं, जैसी अभी बॉम्बे हाईकोर्ट ने अनुच्छेद 48 को लेकर की है?

पिछले दिनों जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने जब पटना जाकर शराबबंदी को लेकर सवाल उठाए तो नीतीश कुमार ने उसे संविधान के नीति निर्देशक तत्वों का अध्ययन करने की सलाह दी। जब गोवध पर रोक के सिलसिले में लोग अनुच्छेद 47 का जिक्र कर रहे थे, उन्हें दकियानूसी बताया जा रहा था। अभी भी यदि कोई गोवध पर रोक के लाभ गिनाने या फिर उसे जरूरी बताने निकले तो यह लगभग तय है कि उसे सांप्रदायिकता भड़काने वाला करार दिया जाएगा, लेकिन अगर कोई शराबबंदी का संदेश देने निकले तो बहुत संभव है कि उसे समाज सुधारक की संज्ञा से नवाजा जाए। इन दिनों नीतीश कुमार समर्थक उन्हें इसी रूप में पेश कर रहे हैं। नीतीश जल्द ही देश के उन इलाकों का दौरा करने निकल सकते हैं जहां शराबबंदी की मांग हो रही है। वह पंजाब और राजस्थान जाने की तैयारी कर रहे हैं। महाराष्ट्र के एक संगठन ने उन्हें शराबबंदी की अलख जगाने के लिए अपने यहां आने का न्योता दिया है। वह अपने शराब विरोधी अभियान को बिहार के बाहर ले जाने की योजना के प्रति खासे गंभीर दिख रहे हैं। उन्होंने हाल में दिल्ली में देश के विभिन्न् हिस्सों में शराबबंदी के लिए काम कर रहे संगठनों से मुलाकात की थी। शराबबंदी के पक्ष में उनकी देशव्यापी पहल चाहे जो रंग लाए, माना जा रहा है कि इसके जरिये उन्हें भाजपा विरोधी दलों को एकजुट करने में कुछ मदद मिल सकती है। दरअसल यही उनका मकसद भी है। यह कहना कठिन है कि इस मकसद में वह कितना कामयाब हो पाएंगे, लेकिन वह शराबबंदी अभियान के अगुआ के रूप में उभर रहे हैं।

संविधान में जिस तरह अनुच्छेद 47 और 48 है, उसी तरह एक अनुच्छेद 44 भी है। यह समान नागरिक संहिता बनाने की जरूरत पर बल देता है। विडंबना यह है कि जब-जब इस जरूरत का जिक्र होता है, तब-तब समाज सुधार की बातें करने वाले तमाम लोग बिदक उठते हैं। वे तरह-तरह के बहाने बनाने लगते हैं। कभी कहते हैं कि इसके लिए सहमति बनाने की जरूरत है तो कभी दलील देते हैं कि इसकी मांग तो खुद लोगों के बीच से उठनी चाहिए। समान नागरिक संहिता के बारे में यह धारणा बना दी गई है कि ऐसी कोई संहिता बनी तो यह सबसे ज्यादा अल्पसंख्यकों को प्रभावित करेगी। हालांकि यह सही नहीं है, लेकिन ऐसा दुष्प्रचार जारी है।

इस दुष्प्रचार के आगे हमारी अदालतें भी असहाय दिखती हैं। इन दिनों सुप्रीम कोर्ट 'तीन तलाक" की प्रथा के खिलाफ सुनवाई कर रहा है। इसे लेकर जितने बेचैन कई मुस्लिम संगठन हैं, उतने ही वे सियासी दल भी हैं, जो खुद को सेक्युलर बताते हैं। उनकी बेचैनी या तो मौन में तब्दील हो जाती है या फिर इस प्रचार में कि समान नागरिक संहिता के लिए अभी वक्त नहीं आया है। ऐसी बातें दशकों से कही जा रही हैं। कम से कम 1985 से तो कही ही जा रही हैं जब संसद ने मुस्लिम महिला शाहबानो के गुजारा भत्ता संबंधी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया था। यह कहना कठिन है कि 'तीन तलाक" को चुनौती देने वाली याचिका पर क्या फैसला आता है, लेकिन जो स्पष्ट है, वह यह कि मीडिया और बुद्धिजीवियों के एक हिस्से के साथ सियासी दलों ने एक ही प्रकृति के तीन अनुच्छेदों पर अलग-अलग रुख अपना रखा है।

-लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं।

 


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