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न्यूज क्लिपिंग्स् | ध्वनि तरंगों का जनहित में उपयोग

ध्वनि तरंगों का जनहित में उपयोग

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published Published on Jan 7, 2014   modified Modified on Jan 7, 2014

चर्चा है कि आम चुनाव से पहले सरकार निजी एफएम और सामुदायिक रेडियो पर सीमित ही सही, सूचना-समाचार आदि के स्वतंत्र प्रसारण की मंजूरी दे सकती है.   लेकिन यह फैसला लेने से पहले जनहित में सरकार को बहुत संजीदा होकर एक विचार करना चाहिए. एक महत्वपूर्ण विवाद में हस्तक्षेप करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 1995 में पहली बार कहा, ‘ध्वनि-तंरगें (एयरवेव्स) सार्वजनिक संपत्ति हैं. इनका उपयोग भी जनहित में होना चाहिए.’ लेकिन केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी का समुचित आदर नहीं किया.

रेडियो पर सूचना और ज्ञान से जुड़े कार्यक्रमों के संदर्भ में ध्वनि तरंगों पर सरकार की इजारेदारी कायम रही. कुछ वर्ष बाद जब रेडियो को निजी क्षेत्र के लिए खोला गया, तब भी सूचना और समाचार के मामले में बंदिश बरकरार रही. मनोरंजन क्षेत्र को निजी एफएम के लिए पूरी तरह खोल दिया गया, पर सूचना-समाचार पर अंकुश बना रहा. 1999 से 2012 के बीच ज्यादा कुछ नहीं बदला.

भारी दबाव के बाद सरकार ने सकुचाते हुए सिर्फ इतना भर कहा कि निजी एफएम और सामुदायिक रेडियो अगर खबर देना चाहते हैं, तो वे ऑल इंडिया रेडियो की खबरों का पुनप्र्रसारण करें. लेकिन अब सरकार पर निर्णायक दबाव बनता नजर आ रहा है. पिछले दिनों यह मामला फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया है.

एक एनजीओ की जनहित याचिका के जवाब में कोर्ट ने सरकार को नोटिस दिया है कि वह निजी या सामुदायिक रेडियो पर सूचना-समाचार के स्वतंत्र प्रसारण पर जारी रोक पर स्थिति साफ करे.

कोर्ट में अपना पक्ष पेश करने के लिए सरकार और उसके वकीलों के पास ज्यादा तर्क नहीं बचे हैं. 1995 के ऐतिहासिक फैसले के बावजूद अगर ध्वनि-तरंगों, खास कर सूचना-समाचार प्रसारण के क्षेत्र में सरकारी अंकुश कायम है, तो हमारे जैसे एक जनतांत्रिक मुल्क में इसे जायज ठहराना कोई आसान काम नहीं होगा. यूरोप के विकसित देशों की बात छोड़िये, बगल के नेपाल में भी ऐसी बंदिश नहीं है.

फिर भारत ही अपवाद क्यों बना रहे? दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में आमतौर पर न्यूज मीडिया-अखबार, रेडियो और टीवी की व्यवस्था त्रिस्तरीय है-सार्वजनिक या सरकारी क्षेत्र, निजी और सामुदायिक.

दूसरी बात कि भारत में अगर निजी क्षेत्र में टीवी पर समाचार-विचार के कार्यक्रम स्वतंत्र रूप से बनाने और प्रसारित करने की आजादी दी जा चुकी है और आज देश में सैकड़ों न्यूज चैनल मीडिया-बाजार का हिस्सा बने हुए हैं, तो रेडियो को क्यों अपवाद बनाये रखा जाये!

निजी व सामुदायिक रेडियो के जरिये समाचार-विचार के स्वतंत्र प्रसारण पर बंदिश के पीछे सरकार की तरफ से अब तक दी जानेवाली दलीलों में कहा जाता रहा है कि रेडियो का क्षेत्र सबसे संवेदनशील है. जन-जन और दूर-दराज के क्षेत्रों तक इसकी पहुंच अखबार और टीवी से भी ज्यादा आसान है.

ऐसे में अगर इसका कोई दुरुपयोग करने लगे, तो उसे आसानी से रोकना दुष्कर होगा. इतने बड़े देश में रेडियो के लिए स्वनियंत्रण से अगर बात नहीं बनी, तो एक कारगर नियंत्रक कायम करना बड़ी चुनौती होगी. राष्ट्रीय एकता और अखंडता के संदर्भ में इन तर्को को बार-बाहर दोहराया गया है.

लेकिन मीडिया के अन्य माध्यमों के संदर्भ में देखें, तो ये तमाम सरकारी दलीलें बेदम नजर आती हैं. देश में आज ढाई सौ से ज्यादा न्यूज चैनल हैं. इन पर प्रसारित हो रहे समाचार-विचार के कार्यक्रमों के लिए सरकारी स्तर पर कहीं कोई कारगर नियंत्रक नहीं है. इनके संचालकों-संपादकों की तरफ से हमेशा स्वनियंत्रण को सबसे बेहतर नियंत्रण-निगरानी तंत्र के रूप में पेश किया जाता रहा है और सरकार ने उनकी इस दलील को मंजूर भी किया है.

प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष मारकंडेय काटजू की तरफ से मीडिया काउंसिल सहित कई नये प्रस्ताव आये. सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रलय से संबद्ध संसद की स्थायी समिति ने अपनी 47वीं रिपोर्ट में भी मीडिया काउंसिल सहित कई अन्य विकल्पों पर विचार करने का सुझाव दिया. यह रिपोर्ट मई, 2013 में संसद में पेश की गयी, लेकिन सरकार ने उस महत्वपूर्ण संसदीय रिपोर्ट पर आज तक कोई कार्रवाई नहीं की.

ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि सिर्फ रेडियो पर अंकुश क्यों? निजी रेडियो व सामुदायिक रेडियो सूचना-समाचार के स्वतंत्र प्रसारण से ऐसी क्या आफत आ जायेगी? टीवी और रेडियो, दोनों के लिए एक स्वतंत्र नियंत्रक या नियामक क्यों नहीं बने! एक ऐसा तंत्र, जो न सरकारी हो और न ही मीडिया-घरानों के मालिकों द्वारा निर्धारित हो. इसमें विभिन्न क्षेत्रों के सुयोग्य विशेषज्ञ मीडिया मामलों के स्वतंत्र जानकार, कानूनविद् और समाजविज्ञानी सदस्य के रूप में शामिल हों.

इधर, चर्चा है कि संसदीय चुनाव से पहले यूपीए-2 सरकार निजी एफएम और सामुदायिक रेडियो पर सीमित ढंग से ही सही, सूचना-समाचार आदि के स्वतंत्र प्रसारण की मंजूरी दे सकती है. सुप्रीम कोर्ट में लंबित याचिका पर निकट भविष्य में होनेवाली सुनवाई के दौरान अपनी फजीहत से बचने के लिए उसके पास शायद यही एक विकल्प है.

लेकिन यह फैसला लेने से पहले जनहित में सरकार को बहुत संजीदा होकर एक बात पर विचार जरूर करना चाहिए. भारत में दुनिया के अन्य कई जनतांत्रिक मुल्कों की तरह मीडिया-व्यवसाय के क्षेत्र में बहु-मीडिया स्वामित्व तंत्र (क्रास-मीडिया होल्डिंग) पर किसी तरह का अंकुश नहीं है.

ऐसे में निकट भविष्य में अगर निजी एफएम चैनलों पर सूचना-समाचार-विचार आदि के स्वतंत्र प्रसारण की इजाजत दी जाती है, तो मीडिया के क्षेत्र में पहले से जमे हुए बड़े घराने अपने स्वामित्व में संचालित निजी एफएम चैनलों के जरिये रेडियो-समाचारों की दुनिया में एक तरह का वर्चस्व या एकाधिकार कायम कर सकते हैं.

यह बात सही है कि ध्वनि या रेडियो तरंगों की मौजूदगी देश के कोने-कोने में बहुत आसानी से होने के चलते इस क्षेत्र में एकाधिकार या वर्चस्व से नये तरह के खतरे पैदा होंगे. क्या सरकार के पास इस खतरे से निपटने का कोई तंत्र होगा? अगर ऐसा नहीं हुआ, तो खबरों का क्षेत्र निजी एफएम रेडियो के लिए पूरी तरह खोलने का संभावित फैसला सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी की मूल भावना का निषेध होगा.

ऐसे में सरकार को इस बारे में एक विशेषज्ञ समिति बना कर पहले पूरे मामले का अध्ययन कराना चाहिए कि निजी एफएम-सामुदायिक रेडियो पर समाचारों के स्वतंत्र प्रसारण की मंजूरी देने के साथ ध्वनि-तरंगों को कैसे जनता की संपदा बनाये रखा जाये. इसके लिए अंतत: सरकार को ‘क्रॉस मीडिया ओनरशिप’ के मामले में गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा.

अगर पहले से जमे मीडिया-मुगलों या बड़े घरानों को नये मीडिया क्षेत्रों या माध्यमों में उतरने और पूंजी लगाने का मुंहमांगा मौका मिलता रहेगा, तो भारतीय मीडिया में विविधता और पेशेवर-स्वतंत्रता लगातार सीमित और कुंद होती जायेगी.

http://www.prabhatkhabar.com/news/77878-Sound-wave-used-public-interest-FM-community-radio.html


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