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न्यूज क्लिपिंग्स् | नए-नए आयाम तय करता भारतीय विज्ञान - मुकुल व्‍यास

नए-नए आयाम तय करता भारतीय विज्ञान - मुकुल व्‍यास

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published Published on Jan 1, 2018   modified Modified on Jan 1, 2018
इस वर्ष भारतीय विज्ञान एक नए शिखर पर पहुंचा। हमारे वैज्ञानिकों और रिसर्चरों ने विभिन्न् क्षेत्रों में ऐसी कई उपलब्धियां हासिल की जो सिर्फ देश ही नहीं, बल्कि दुनिया में सराही गईं। ये ऐसी उपलब्धियां हैं जिन पर हर भारतीय को गर्व होना चाहिए। 2017 में शानदार उपलब्धियों की शुरुआत भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने फरवरी में एक ही रॉकेट से 104 उपग्रह छोड़कर की थी। यह अनोखा विश्व रिकॉर्ड है, जिसने दुनिया के समक्ष अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की बढ़ती काबिलियत का सिक्का जमाया। जून में इसरो ने अपने सबसे शक्तिशाली रॉकेट जीएसलवी मार्क3 का सफल प्रक्षेपण किया। इस 640 टन वजनी रॉकेट से जीसेट-19 नामक दूरसंचार उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया गया। इस रॉकेट का उपयोग भविष्य में भारतीयों को अंतरिक्ष में पहुंचाने के लिए किया जा सकता है। उसी महीने अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी 'नासा ने तमिलनाडु के छात्रों द्वारा निर्मित 64 ग्राम के उपग्रह, कलामसेट को अंतरिक्ष में पहुंचाया। इस साल का समापन शानदार ढंग से करते हुए भारत ने 28 दिसंबर को शत्रु की मिसाइल को मिसाइल से नष्ट करने की क्षमता का सफल प्रदर्शन किया। भारत इस 'स्टार्स वार्स जैसी टेक्नोलॉजी में दक्षता हासिल करने वाला दुनिया का चौथा देश बन गया है। यह स्वदेश में विकसित 'एडवांस्ड एयर डिफेंस सुपरसोनिक इंटरसेप्टर मिसाइल का साल में तीसरा परीक्षण था। पिछले दिनों भारत ने स्वदेश में निर्मित सतह से हवा में मार करने वाली सुपरसोनिक आकाश मिसाइल के भी सफल परीक्षण किए।

 

 

पुणे स्थित इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर ऑफ एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिजिक्स (आईयूसीएए) और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (आईआईएसईआर) के खगोल-विज्ञानियों ने जुलाई में आकाशगंगाओं के एक महाकुंज अथवा सुपरक्लस्टर की खोज की घोषणा की। इस सुपरक्लस्टर का नाम उन्होंने 'सरस्वती रखा। आकाशगंगाओं के एक झुंड या क्लस्टर में 1000 से लेकर 10000 आकाशगंगाएं हो सकती हैं, लेकिन एक एक सुपरक्लस्टर में 40 से 43 क्लस्टर हो सकते हैं। भारतीय रिसर्चरों ने बताया कि 'सरस्वती सुपरक्लस्टर पृथ्वी से चार अरब प्रकाश वर्ष दूर है। चार अरब वर्ष पुराने सुपरक्लस्टर का अध्ययन करके वैज्ञानिक उस अतीत को देख सकते हैं, जब हमारा ब्रह्मांड काफी युवा था।

 

 

गुरुत्व तरंगों की खोज में भी भारतीय वैज्ञानिकों ने बहुत बड़ा योगदान किया है। इन तरंगों को ग्रेविटेशनल वेव्स भी कहा जाता है। पहली गुरुत्व तरंगों की खोज के बारे में प्रस्तुत रिसर्च पेपर के सह-लेखन में 37 भारतीय वैज्ञानिक शामिल थे। ध्यान रहे कि इस खोज में शामिल प्रमुख रिसर्चरों को 2017 के भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। भारतीय रिसर्चरों का नेतृत्व आईयूसीएए के संजीव धुरंधर ने किया था, जो 30 वर्षों से इस विषय पर काम कर रहे हैं। करीब एक अरब वर्ष पहले अंतरिक्ष में दो ब्लैक होल आपस में टकराकर एक दूसरे में विलीन हो गए थे। इस प्रक्रिया में उत्पन्न् कंपन से गुरुत्व तरंगें निकलीं, जो अंतरिक्ष में भ्रमण करते हुए पृथ्वी पर पहुंचीं और सितंबर 2016 में वैज्ञानिकों ने पहली बार इन तरंगों की 'चहक' सुनी। इन तरंगों के अस्तित्व के बारे में पिछली एक सदी से अटकलें लगाई जा रही थीं। इनके अस्तित्व के बारे में सर्वप्रथम सैद्धांतिक परिकल्पना अल्बर्ट आइंस्टीन ने की थी। गुरुत्व तरंगों की खोज ब्रह्मांडीय भौतिकी और खगोल विज्ञान के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है। वैसे गुरुत्व तरंगों पर अनुसंधान से भारत का संबंध बहुत पुराना है। पुणे में 1988 में आईयूसीएए की स्थापना के बाद उसके प्रथम अध्यक्ष प्रो. जयंत नार्लीकर और उनके सहयोगी धुरंधर ने भारत में गुरुत्व तरंगों पर अनुसंधान के लिए फंडिंग का प्रस्ताव रखा था, लेकिन वे अधिकारियों को इसके लिए राजी नहीं कर सके थे।

 

 

इस वर्ष भारतीय वैज्ञानिकों ने चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं। पुणे के एक अस्पताल के डॉक्टरों ने देश में पहली बार गर्भाशय का प्रत्यारोपण किया। उन्होंने एक महिला के गर्भाशय को उसकी 21 वर्षीया पुत्री में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया, जो बच्चे को जन्म देने में असमर्थ थी। गत सितंबर में कोच्चि स्थित अमृता इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज के डॉक्टरों ने एक 19 वर्षीय छात्रा श्रेया सिद्दनागौड़ा के दो हाथों का प्रत्यारोपण किया। इस तरह का ऑपरेशन एशिया में पहली बार हुआ। श्रेया ने पिछले साल एक सड़क दुर्घटना में अपने दोनों हाथ गंवा दिए थे। अंगदाता एक 20 वर्षीय छात्र था, जिसे ब्रेनडेड घोषित किया गया था। डॉक्टरों के अनुसार अभी तक इस किस्म के सिर्फ नौ प्रत्यारोपण हुए हैं। पुणे की एक कंपनी ने 29 सितंबर को विश्व हृदय दिवस पर एक एक ऐसा उपकरण पेश किया, जो बिजली उपलब्ध न होने की स्थिति में भी कार्डियक अरेस्ट के मरीजों की जान बचा सकता है। डीफाइब्रिलेटर नामक इस उपकरण को हाथ से घुमाकर 12 सेकंड में चार्ज किया जा सकता है। आयातित इलेक्ट्रिक डीफाइब्रिलेटर की तुलना में इसकी लागत एक-चौथाई है। कंपनी को यह उपकरण विकसित करने में चार वर्ष लगे।

 

 

इसी तरह आईआईटी खड़गपुर के वैज्ञानिकों ने दक्षिण कोरिया की पोहांग यूनिवर्सिटी के रिसर्चरों के साथ मिलकर प्याज के छिलके से एक ऐसा सस्ता उपकरण बनाया है जो शरीर की हलचल से स्वच्छ ऊर्जा उत्पन्न् कर सकता है। इससे पेसमेकर, स्वास्थ्य पर नजर रखने वाली 'स्मार्ट गोलियों और शरीर पर धारण योग्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को ऊर्जा मिल सकती है। रिसर्चरों का कहना है कि यह उपकरण प्याज के छिलके के उपयुक्त पीजोइलेक्ट्रिक गुणों का प्रयोग करता है। यह जैविक दृष्टि से स्वयं क्षरित हो जाता है और पर्यावरण के लिए अनुकूल है। पीजोइलेक्ट्रिक पदार्थ में रोजमर्रा की यांत्रिक हलचल की ऊर्जा को बिजली में बदलने की क्षमता होती है। आईआईटी खड़गपुर के प्रोफेसर भानु भूषण खटुआ का कहना है कि इस नायाब और किफायती उपकरण से आम आदमी भी किसी भी परिस्थिति में बिजली उत्पन्न् कर सकता है। तेजी से बढ़ रही आबादी, औद्योगीकरण तथा इलेक्ट्रॉनिक्स और वाहनों के अंधाधुंध उपयोग से पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ रहा है। रिसर्चरों का कहना है कि जीवाश्म-आधारित ईंधनों पर बढ़ते हुए बोझ और प्राकृतिक संसाधनों में गिरावट को देखते हुए स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन के लिए वैकल्पिक टेक्नोलॉजी विकसित करना बहुत जरूरी हो गया है।

 

-लेखक विज्ञान संबंधी मामलों के जानकार हैं।


https://naidunia.jagran.com/editorial/expert-comment-indian-science-is-setting-new-milestones-1476314?utm_source=naidunia&utm_medium=navigation


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