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न्यूज क्लिपिंग्स् | नए प्रधानमंत्री से उम्मीदें- नीलांजन मुखोपाध्याय

नए प्रधानमंत्री से उम्मीदें- नीलांजन मुखोपाध्याय

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published Published on May 26, 2014   modified Modified on May 26, 2014
उम्र में मेरे ताऊ जी के बेटे मुझसे कुछ साल बड़े हैं और अमेरिका में रहते हैं। छुट्टियों और पारिवारिक समारोहों के अलावा वह कभी यहां नहीं आते, क्योंकि वह अमेरिकी सपनों में जीने वाले व्यक्ति हैं। हम दोनों लगातार संपर्क में रहते हैं, बेशक कई मुद्दों पर हम एकमत नहीं हैं। कुछ दिनों पहले मेरे पास उनका एक ई-मेल आया। भारत के चुनावी नतीजे पर वह गद्गद थे। उन्होंने लिखा, भारत जैसे एक इतने बड़े देश में करोड़ों मतदाताओं ने जिस शांति के साथ मतदान किया और चुनावी नतीजे को सभी ने बगैर किसी विवाद के जिस तरह स्वीकार कर लिया, वह शानदार है और अमेरिका में एक भारतीय होने के नाते वह गर्व महसूस करते हैं। उनकी खुशी का उससे भी महत्वपूर्ण कारण यह है कि भारत को एक मजबूत सरकार और फैसला लेने वाला प्रधानमंत्री मिलने जा रहा है। वह इसलिए भी खुश हैं कि भारत में अब तुष्टिकरण की राजनीति खत्म होगी और धार्मिक पहचान के आधार पर किसी सामाजिक समूह को रियायत नहीं मिलेगी।

उन्होंने हालांकि साफ-साफ नहीं लिखा, पर भाजपा की जीत को वह हिंदू पुनरुत्थान से जोड़कर देखते हैं। उनका मानना है कि मुसलमानों को मिल रही रियायतें खत्म करने का यही समय है, बल्कि उन्हें उन शर्तों और परिस्थितियों में रहने की आदत डालनी होगी, जो बहुसंख्यक समाज तय करेगा। उन्होंने अपना मेल इन शब्दों के साथ समाप्त किया कि चूंकि अब वह पचास से अधिक की उम्र के हो चुके हैं, इसलिए स्वदेश लौटने और राष्ट्र निर्माण के अगले चरण का हिस्सा बनने का संभवतः यही सही वक्त है।

लोकसभा चुनाव के नतीजे को इस तरह विश्लेषित करने वाले मेरे चचेरे भाई अकेले नहीं हैं। यहां हुए सत्ता परिवर्तन को विदेशों में रह रहे भारतीय ही इस तरह नहीं देख रहे। देश के भीतर एक मजबूत जनभावना है, जो चुनावी नतीजे को हिंदुओं की एक बड़ी विजय के रूप में देख रही है। यह सच है कि नरेंद्र मोदी को हिंदू समाज की सभी जातियों से वोट मिले। चुनाव अभियान के दौरान विकास के जिस मंत्र का जाप किया जा रहा था, वह हिंदुत्व की बुनियाद पर ही खड़ा था। इसी कारण भाजपा को मुस्लिम समाज के वोटों का एक छोटा-सा हिस्सा ही मिला।

भाजपा को वोट देने में कंजूसी अल्पसंख्यक समुदायों में सिर्फ मुस्लिमों ने की हो, ऐसा भी नहीं है। सीएसडीएस (सेंटर फॉर स्टडीज इन डेवलपिंग सोसाइटीज) का चुनाव बाद सर्वेक्षण, जो मतदाताओं के व्यवहार का संभवतः अकेला सूचक है, बताता है कि भाजपा को नौ प्रतिशत मुसलमानों, आठ फीसदी ईसाइयों और 16 प्रतिशत सिखों के वोट मिले हैं। खासकर सिखों का भाजपा के प्रति यह रुझान इसलिए भी गौरतलब है, क्योंकि उसके सहयोगी अकाली दल को 29 प्रतिशत सिख वोट मिले हैं। इसका अर्थ यह है कि भाजपा को 55 फीसदी सिखों ने वोट नहीं दिए। यह आंकड़ा थोड़ा चिंतित करने वाला है। हम यह भी न भूलें कि भाजपा के नवनिर्वाचित 282 सांसदों में एक भी मुस्लिम चेहरा नहीं है। एक शक्तिशाली लोकतंत्र के लिए जरूरी है कि उसमें अल्पसंख्यकों की आवाज हो और उनकी जरूरतों का भी पर्याप्त ध्यान रखा जाए। यह हो सकता है कि नई सरकार पर्याप्त छानबीन के बाद कुछ खास समुदायों को राहत देने वाले कार्यक्रम समाप्त कर दे, पर ऐसा कोई कदम संबंधित सभी समुदायों से बातचीत करने के बाद उठाना ही ठीक रहेगा, उनसे सलाह-परामर्श लिए बगैर फैसला करना कतई उचित नहीं होगा।

बात सिर्फ अल्पसंख्यक समुदायों की नहीं है। हमारे यहां आदिवासी, खानाबदोश समुदाय और इसी तरह के कई और समूह हैं, जो समाज के हाशिये पर रहते हैं। इनकी भावनाओं और जरूरतों को समझने और सरकारी नीतियों में इन्हें शामिल करने की जरूरत है। अकेले सवर्ण हिंदू राष्ट्र निर्माता नहीं हैं।

यहीं पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से अलग होना होगा। पिछले करीब तेरह वर्षों के उनके मुख्यमंत्री काल में गुजरात में मुस्लिम बस्तियों की संख्या निरंतर बढ़ती गई। चूंकि दूसरे इलाकों में मुस्लिम खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करते और राज्य के ज्यादातर शहरों में उन्हें घर नहीं मिलता, इसलिए वे ऐसी कॉलोनियों में रहते हैं, जिनमें सिर्फ उन्हीं की आबादी होती है। ऐसी कॉलोनियों में अमीर और गरीब लोग आसपास रहते हैं। वहां एक आदमी व्यापार के सिलसिले में नई बीएमडब्ल्यू कार से निकलता है, तो पड़ोस का दूसरा गरीब आदमी पैदल फैक्टरियों की ओर काम करने जाता है। शाम को एक साथ लौटने वाले ये लोग बखूबी समझते हैं कि उनका कोई हिंदू दोस्त या जानकार इन कॉलोनियों में नहीं आएगा।

चूंकि गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास पुराना है, इसलिए मोदी के लिए हिंदू और मुस्लिमों के बीच लंबे समय से चले आ रहे अलगाव की इस व्यवस्था को बरकरार रखते हुए शांतिपूर्वक सरकार चलाना संभव था। मगर पूरे देश में इस तरह की व्यवस्था संभव नहीं है। इसलिए 'सबका साथ, सबका विकास' के नारे को सच साबित करते हुए उन्हें उन लोगों की बेहतरी के बारे में भी सोचना होगा, जिन्होंने भाजपा को वोट नहीं दिया है। हिंदुत्व के गर्व को आक्रामकता में बदलना देश के हित में तो नहीं ही होगा, खुद नरेंद्र मोदी के हित में भी नहीं होगा। इसके बजाय नई सरकार को विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। मेरे चचेरे भाई की तरह मोदी सरकार के तमाम समर्थकों के बीच यह संदेश जाना चाहिए कि अगर वे देश की बेहतरी के लिए काम करना चाहते हैं, तो यह विकास पूरे देश का और सभी समुदायों के लिए होना चाहिए।

http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/hopes-from-new-prime-minister/


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