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न्यूज क्लिपिंग्स् | नसबंदी कांड की कड़ियां- कनक तिवारी

नसबंदी कांड की कड़ियां- कनक तिवारी

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published Published on Nov 17, 2014   modified Modified on Nov 17, 2014
जनसत्ता 17 नवंबर, 2014: बिलासपुर नसबंदी कांड राज्यतंत्र की क्रूरता का बेहद घिनौना उदाहरण है। केंद्र प्रवर्तित और राज्य पोषित नसबंदी कार्यक्रम को लागू करने में इतनी लोकविधर्मी विसंगतियां हैं। पर इन्हें सरकारी अहंकार समझना ही नहीं चाहता। जनसंख्या-वृद्धि पर रोक लगाने के लिए केंद्रीय शासन ने बरसों से अंतरराष्ट्रीय स्थितियों, समझौतों और समझाइशों के तहत नीतियां बनाने का प्रयत्न किया है। शासन और भद्रलोक के उपचेतन में इस मुगालते का वायरस पैठ गया है कि दलित, आदिवासी तथा सभी तरह के पिछड़े, गरीब और अल्पसंख्यक तबकों में ही तुलनात्मक दृष्टि से जनसंख्या बेतरह बढ़ रही है। इसलिए नसबंदी प्रोत्साहन-योजनाओं की तोप वंचित वर्गों के विरुद्ध आॅपरेशनधर्मी चेहरे की नकाब लगा कर तेजी से दागी जाए।

भारतीय लोकतंत्र की यह खासियत है कि इसमें सरकारें तृतीय और चतुर्थ वर्ग के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार पकड़ने, आय-कर के नूरा-कुश्ती के प्रकरणों, यातायात नियंत्रण के नाम पर मुख्यत: दूसरे राज्यों के ट्रकों की धरपकड़ और नसबंदी आॅपरेशनों आदि की एक संख्या निर्धारित कर उसे लक्ष्य का नाम देती हैं। उस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए तंत्र को सक्रिय किया जाता है। सबसे निचले स्तर के अधिकारी की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी तय की जाती है। नीति, निर्णय, योजनाएं, कार्यक्रम, बजट, अनुशासन, अभियान वे तीर हैं जो मंत्रियों और सचिवों के तरकश से एक साथ जनता और निचले स्तर के बाबुओं पर छोड़े जाते हैं। बिलासपुर में भी यही हुआ।

नसबंदी का राष्ट्रीय कार्यक्रम राज्य में लागू करना नीति संबंधी निर्णय है। इसका विमर्श मंत्रिपरिषद में होकर पूरा आयोजन विभागीय मंत्री के जिम्मे आ जाता है। सरकारी दफ्तर में फाइलों को प्रक्रिया की आंच पर चढ़ा कर मंत्रालय की कड़ाही में अपने निजी भविष्य की फड़कती दार्इं आंख के साथ दूध की तरह उबाला जाता है। मलाई उतारने का काम मंंित्रगण और आला अधिकारी करते हैं। मलाई से आशय करोड़ों रुपए की घटिया दवाओं और उपकरणों की खरीदी, अधिकारियों और डॉक्टरों की तैनाती, सभी तरह के निर्माण और आनुषंगिक कार्य, अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में शिरकत, सरकारी अस्पतालों को तबाह करते हुए निजी अस्पतालों की वंशवृद्धि, कार्यक्रमों का उद््घाटन, दुर्घटनाओं के पीड़ितों को उपकृत करना और सुप्रीम कोर्ट की हिदायतों के बावजूद खुद की छवि और राजनीति चमकाने के लिए अनावश्यक विज्ञापनों पर जनता का अकूत धन बर्बाद करना है।

चौदह गरीब युवतियां नसबंदी नरसंहार आयोजन की बलि चढ़ गर्इं। बहुतों की जान अब भी खतरे में है। दुधमुंहे बच्चे मातृविहीन हो गए। युवक पति विधुर हो गए। गृहस्थियां उजड़ गर्इं। बूढ़े और बुजुर्ग अभिभावक गृहलक्ष्मी के सहारेसे वंचित हो गए। मातृविहीन बच्चों का भविष्य कई तरह से संकटग्रस्त हो गया है। परिवारों के तहस-नहस होने का एकमात्र कारण शासकीय घोषणा के अनुसार एकाधिक डॉक्टरों की लापरवाही है जिन्होंने कुछ पा लेने के लालच में ताबड़तोड़ गति से अभागी महिलाओं के नसबंदी आॅपरेशन किए। वे महिलाएं डॉक्टर के आमंत्रण पर नहीं गई थीं। छत्तीसगढ़ शासन आतिथेय था। उसे केंद्र ने प्रेरित और प्रवर्तित किया था।

हादसे का स्थल स्वास्थ्यमंत्री के घर से केवल पांच किलोमीटर दूर था। यह उनकी भी नैतिक और प्रशासनिक जिम्मेदारी थी कि उस कथित अस्पताल भवन का निरीक्षण कराएं जो वर्षों से बंद पड़ा था। उसे मात्र इसी प्रयोजन के लिए सरकार ने किराए पर लिया था। ऐसा आॅपरेशन जिला मुख्यालय के अस्पताल में आसानी से किया जा सकता था। उस भवन में गंदगी तो थी ही- फर्नीचर, उपकरण और अन्य तकनीकी साधन भी नहीं थे। इस सब को डॉक्टर की लापरवाही के दायरे में कैसे रखा जा सकता है, जैसा कि रमन सिंह सरकार कर रही है।

आनन-फानन में केंद्र सरकार ने एम्स के डॉॅक्टरों की टीम हादसे के कारणों की जांच के लिए भेजी। विधि में केंद्र सरकार को राज्य सरकार की ऐसी चूक की जांच का अधिकार नहीं है। वह सहयोगी प्रयत्न कहा जा सकता है। मरीजों के इलाज के लिए राज्य सरकार ने अन्य राज्यों से डॉक्टरों की विशेष टीम बुलाई। अचानक छत्तीसगढ़ हाइकोर्ट ने खुद मामले का संज्ञान लिया। अदालत ने केंद्र सरकार, राज्य सरकार,और भारतीय चिकित्सा परिषद को अखबारों की कतरनें भेजते हुए उनसे दस दिनों के अंदर लिखित जवाब मांगा है। हाइकोर्ट ने सार्वजनिक सूचना के द्वारा पीड़ित पक्षों और आम जनता से यह अपेक्षा नहीं की कि वे भी न्याय तक पहुंचने के लिए चाहें तो सामने आए। कम से कम पीड़ित परिवारों को तो यह मौका दिया ही जाना चाहिए था।
हाइकोर्ट द्वारा संज्ञान लिया जाना प्रशंसनीय है। संविधान के तहत उच्च न्यायालय को काफी शक्तियां प्राप्त हैं। वह मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पहले से दिए गए निर्देशों के उल्लंघन, आॅपरेशन प्रक्रिया और उसके बाद की गई लापरवाहियों, मंत्री और सचिव से लेकर निचले स्तर के अधिकारियों और डॉक्टरों की जवाबदेही तय कर सकता है। वह संबंधित दोषी व्यक्तियों को दंडित करने के आदेश भी दे सकता है। मुआवजे की मात्रा या मानक भी तय कर सकता है।

ऐसे किसी भी हादसे के फौरन बाद जांच बिठाना या न्यायिक आयोग के गठन की घोषणा करना बेचारे मुख्यमंत्रियों का अतिरिक्त संवैधानिक कार्य हो गया है। आजादी के बाद जांच आयोग अधिनियम, 1952 बना। इससे सरकारों को हजारों की संख्या में न्यायिक आयोग गठित करने का अवसर मिला है। जांच आयोगों की रिपोर्टें मंजिल तक पहुंचने के पहले ही नाकाम पटाखों की तरह फुस्स हो जाती हैं। अगर कुछ ठिकाने तक पहुंचती भी हैं तो सरकारों के पास गोदामों और उनमें चूहों और दीमकों की कमी नहीं है। कोई अभागा लोकसेवक ही होगा जिसे किसी आयोग की रिपोर्ट की वजह से दंडित किया गया हो। मौजूदा प्रकरण में सेवानिवृत्त महिला जिला न्यायाधीश को जांच आयोग का प्रमुख बनाया गया है। प्रकरण तकनीकी प्रकृति का होने से आयोग को एक सदस्यीय न बना कर उसमें कुछ विशेषज्ञ डॉक्टरों को भी रखा जा सकता था। मौजूदा प्रकरण महिला अधिकारों के कानूनी उल्लंघन का नहीं है। वह सरकारी चिकित्सा शिविर में जिंदगियों से खिलवाड़ का है।

मुख्यमंत्री और स्वास्थ्यमंत्री कह चुके हैं कि स्वास्थ्यमंत्री आॅपरेशन नहीं करते। उनका कोई दोष नहीं होने से उनके इस्तीफा देने का सवाल ही नहीं है! नरेंद्र मोदी के लोक प्रशासन में नैतिक आह्वान के बावजूद भाजपा का यथार्थधर्मी सोच है कि स्वास्थ्यमंत्री का इस्तीफा लिए जाने से एक गलत परंपरा स्थापित हो जाएगी, फिर कोई मुसीबत आने पर कांग्रेस इसका फायदा उठाएगी। जबकि सभी पार्टियां रेल दुर्घटना की वजह से इस्तीफा देने वाले लालबहादुर शास्त्री का श्रद्धावनत होकर पुण्य स्मरण करती रही हैं। एम्स के डॉक्टरों की टीम की अपनी रिपोर्ट होगी। राज्य के अधिकारियों और पुलिस ने भी जांच शुरू कर दी है। रासायनिक प्रयोगशालाओं में जांच के लिए मुर्दा चीजें भेजी गई हैं। न्यायिक आयोग सीमाओं में बंध कर केवल तथ्यों का परीक्षण करेगा। बस्तर में कांग्रेस नेताओं की हत्या, आदिवासियों को नक्सली बता कर मारने के लिए मुठभेड़ के झूठे पुलिसिया दावे, कोरबा के चिमनी कांड और भिलाई इस्पात संयंत्र के गैस रिसाव कांड सहित कई मामलों की जांच के लिए छत्तीसगढ़ में न्यायिक आयोग गठित हुए। दो-तीन बरस हो गए। रिपोर्टें आनी हैं।

पहले भी छत्तीसगढ़ में सरकारी नेत्र शिविरों में बीसियों व्यक्तियों की आंखें चली गई हैं। अस्पतालों और महिला शिविरों में गर्भाशय निकाल लिए गए। प्रतिबंध के बावजूद बैगा आदिवासी स्त्रियों के नसबंदी आॅपरेशन हुए। मासूम स्वास्थ्यमंत्री लगातार कह रहे हैं कि उन्हीं को दंड मिलेगा जो आॅपरेशन करते हैं। तो जांच आयोग की क्या आवश्यकता है? जांच के बिंदु सरकार को ही तय करना है?

जांच आयोग एक तरह से सरकार के नियंत्रणाधीन ही होता है। उसकी सभी व्यवस्थाएं सरकार को करनी होती हैं। सरकार ने आयोग की रिपोर्ट आने के लिए तीन माह का समय दिया है। ऐसा सरकारें कई बार कर चुकी हैं। देश के शीर्ष नेताओं की हत्या के मामलों में भी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों वाले जांच आयोगों ने तय अवधि में रिपोर्टें नहीं सौंपी हैं। जन-स्मृति क्षीण होती है। जन-अधिकार भी क्षीण होते हैं। इससे सरकारों को अपनी जवाबदेही से बच निकलने का मौका मिलता है।

सरकार, विरोधी दल और सभी तरह के जनपक्ष मिलकर उच्च न्यायालय द्वारा संज्ञान लिए जाने के निर्णय में भागीदार बन कर दूध का दूध और पानी का पानी करने के मुहावरे को छत्तीसगढ़ के वंचितों के जीवन और सम्मान के लिए चरितार्थ क्यों नहीं कर सकते? अंगरेजों की तिकड़म की उपज सैकड़ों भारतीय कानून अपनी मौत मरना चाहते हैं।

हमारी सरकारें उन्हें अनिर्णय के वेंटिलेटर पर रख कर जिलाए पड़ी हैं। यही सरकारें नसबंदी आॅपरेशनों में गरीब तबके की युवतियों का वध भी कर रही हैं। स्वास्थ्यमंत्री का यह तर्क बेमानी है कि उनकी जिम्मेदारी केवल नीति संबंधी विषयों तक है। संविधान के विद्यार्थी जानते हैं कि मंत्री अपने विभाग का सर्वोच्च कार्यपालक होता है। वह योजनाओं को स्वीकृत करता है, निरस्त करता है और अधिकारियों पर प्रशासनिक नियंत्रण रखता है।
यह स्वास्थ्यमंत्री का संवैधानिक और प्रशासनिक कर्तव्य था कि वे क्षेत्र और अस्पतालों में जाकर स्वास्थ्य सेवाओं के क्रियान्वयन का भी अवलोकन करें। मंत्रिगण फोटो खिंचवाते, फीता काटते, घोषणाएं करते, मुस्कराते, विज्ञापनों में दिखते रहते हैं। जहां फीता काटने, घोषणाएं करने और फोटो खिंचवाने के अवसर न हों, उन नसबंदी-शिविरों में क्यों नहीं जाते।

छत्तीसगढ़ में संदिग्ध दवा कंपनी की घटिया दवाइयां लगातार खरीदी जाती रही हैं। क्या इसके लिए भी राज्य के स्वास्थ्यमंत्री जिम्मेवार नहीं हैं? डॉक्टरों और अन्य अधिकारियों को पहले बरायनाम निलंबित किया जाए। जांच के नाम पर छद््म रचा जाए। अधिकारियों को गुपचुप बहाल किया जाए। पदोन्नत भी किया जाए। ऐसा हो नहीं सकता कि अधिकारियों के निलंबन, तबादले, जांच के आदेश, जांच रिपोर्ट, बहाली और पदोन्नति की फाइलें मंत्री के स्तर पर देखी न गई हों। बदनाम और काली सूची की दवा कंपनियों के प्रकरण मंत्रियों को दिखाए ही जाते हैं। किस आधार पर स्वास्थ्यमंत्री अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ सकते हैं? अगर मंत्री को विभागीय फाइलों और कार्यवाहियों की जानकारी न हो तब तो कर्तव्य में चूक के कारण एक मिनट भी उन्हें अपने पद पर बने रहने का अधिकार नहीं है।


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