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न्यूज क्लिपिंग्स् | नाम-काम से तो विशेष मगर हैं बेकदर

नाम-काम से तो विशेष मगर हैं बेकदर

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published Published on May 20, 2010   modified Modified on May 20, 2010

नई दिल्ली [जागरण न्यूज नेटवर्क]। आतंकियों की गोली खाने में किसी से पीछे नहीं रहते। इस बात की गवाह है दंतेवाड़ा में शहादत। पुलिस और सुरक्षा बलों के लिए आंख-कान का काम भी करते हैं। लेकिन सुविधाओं के नाम पर मिलता है मामूली मानदेय का झुनझुना। कहलाते हैं एसपीओ यानी विशेष पुलिस अधिकारी। कई राज्यों में तो वे पहचान के मोहताज होते हैं। जहां की सरकार ज्यादा मेहरबान है, वहां मानदेय के नाम पर तीन हजार रुपये पकड़ा दिए जाते हैं, नहीं तो 1500 में ही निष्ठा तौली जाती है।

परदे के पीछे ही रहते हैं

झारखंड के नक्सल प्रभावित जिलों में दो हजार एसपीओ तैनात हैं। इनसे विशेष तौर पर खुफिया सूचना की जानकारी प्राप्त की जाती है। इसके अलावा पुलिस इनसे कोई काम नहीं लेती। इसके एवज में इन्हें तीन हजार रुपए प्रतिमाह दिए जाते हैं। पहले यह राशि मात्र 1500 रुपए थी। इसके अलावा इन्हें अलग से न तो कोई सुविधा दी जाती है और न ही संसाधन।

मानदेय की राशि इन्हें चेक से सौंपी जाती है। इनकी नियुक्ति संबंधित थाना प्रभारी द्वारा की जाती है। किंतु इनके बारे में पूरी सूचना पुलिस मुख्यालय तक रहती है। नक्सली क्षेत्रों में काम करने की वजह से इनकी जान को हमेशा खतरा रहता है। इसलिए इनकी पहचान छुपा कर रखी जाती है। अगर एसपीओ उग्रवादी हिंसा के शिकार होते हैं तो इन्हें भी वही मुआवजा मिलेगा, जो आम आदमी के लिए राज्य सरकार ने तय कर रखा है। कमोबेश यही स्थिति पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में भी है।

शहीद हुए मगर सम्मान से वंचित

पंजाब में आतंकवाद के समय पुलिस बल ने बड़ी तादाद में एसपीओ भर्ती किए थे। बहुत ही कम वेतन पर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई बहादुरी से लड़ी। लेकिन नियुक्ति दिहाड़ी पर थी। उस दौर में भर्ती हुए करीब 1500 एसपीओ में से आतंकवादियों के खिलाफ सीधी लड़ाई यानी मुठभेड़ों में मारे गए करीब 150 एसपीओ को वह सम्मान भी नहीं दिया गया जो पुलिसकर्मियों या अ‌र्द्ध सैनिक बलों को मिलता है।

हालांकि शहीद होने वाले एसपीओ के आश्रित को पुलिस बल में भर्ती किया जाता रहा। यदि मुठभेड़ की एफआईआर में उक्त एसपीओ का नाम होता था, तभी उसके आश्रित को नौकरी दी गई। बहादुरी के लिए कोई मेडल या अनुदान राशि भी इस बात पर निर्भर करती थी कि उसके अधिकारी ने इसकी अनुशंसा की है या नहीं।

कश्मीर में कुछ गनीमत

जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के खिलाफ लोहा ले रहे सुरक्षाबलों में 28 हजार एसपीओ भी शामिल हैं। राज्य पुलिस में इनकी भर्ती वर्ष 1994-95 के दौरान शुरू हुई थी। वे न सिर्फ पुलिस के साथ बल्कि बीएसएफ और सेना के साथ भी आवश्यकतानुसार आतंक विरोधी अभियानों में हिस्सा ले रहे हैं। एसपीओ जम्मू-कश्मीर से पहले पंजाब में आतंकरोधी अभियानों में भी भाग ले चुके हैं।

हालांकि शुरुआत में इन्हें सिर्फ डेढ़ हजार रुपये मासिक भत्ता मिलता था। सुविधाओं के नाम पर यह कहीं नहीं गिने जाते थे। लेकिन अब इनका मासिक भत्ता तीन हजार रुपये हो चुका है। इसके साथ ही एक एसपीओ को वह सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं, जो एक नियमित पुलिसकर्मी को मिलती है। शहीद होने पर एसपीओ को एक नियमित पुलिसकर्मी की तरह सम्मान मिलता है और उसके परिजनों को छह लाख की राशि के अलावा एसआरओ-43 के तहत पूरा लाभ मिलता है। कई मामलों में पूर्व आतंकियों को भी एसपीओ नियुक्त किया गया है। सूबे में एसपीओ की नियुक्ति अब भी ब्रिटिश राज के दौरान बनाए गए पुलिस अधिनियम 1861 के तहत ही होती है। इस अधिनियम की धारा 17 के मुताबिक एसपीओ की भर्ती और तैनाती पूरी तरह अस्थायी है। यह सिर्फ पुलिस को विधि व्यवस्था बनाए रखने के लिए तत्काल सहायता प्रदान करने के लिए है।


http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_6424948.html


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