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न्यूज क्लिपिंग्स् | 'नेट न्यूट्रैलिटी' है जरूरी, इंटरनेट पर क्यों हो किसी का एकाधिकार?

'नेट न्यूट्रैलिटी' है जरूरी, इंटरनेट पर क्यों हो किसी का एकाधिकार?

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published Published on Jan 9, 2016   modified Modified on Jan 9, 2016
भारत में इंटरनेट का उपयोग करनेवालों की संख्या पिछले साल ही 35.4 करोड़ से अधिक हो चुकी थी. इसमें करीब 60 फीसदी इसका इस्तेमाल मोबाइल फोन पर करते हैं. यह संख्या लगातार बढ़ रही है. लेकिन, इंटरनेट तक सभी लोगों की पहुंच समान रूप से रहे या किसी कंपनी को अलग-अलग वेबसाइट्स के लिए अलग-अलग दरें और स्पीड तय करने का एकाधिकार मिले, इस पर इन दिनों जोरदार बहस छिड़ी हुई है.

फेसबुक जहां ‘फ्री बेसिक्स' की पेशकश के जरिये इंटरनेट पर यह अधिकार हासिल करना चाहता है, वहीं ‘नेट न्यूट्रैलिटी' के पक्षधर इससे इंटरनेट पर एक नये किस्म के उपनिवेशवाद के खतरे की आशंका जता रहे हैं. यह ऐसी जरूरी बहस है, जिसके नतीजे के आधार पर देश में इंटरनेट का भविष्य तय होना है. इस बहस के विभिन्न तर्कों को सामने ला रहा है आज का विशेष...

प्रबीर पुरकायस्थ

संपादक, न्यूज क्लिक

भारत इंटरनेट पर निजी एकाधिकार गवारा नहीं कर सकता, क्योंकि इससे अवाम के बीच डिजिटल विभेद के एक नये युग की शुरुआत होगी. ब्रिटिश साम्राज्य सागरों पर उसके नियंत्रण पर आधारित था. आज, सूचना-सागर पर अपना कब्जा कायम करनेवाला ही वैश्विक अर्थव्यवस्था को भी नियंत्रित करेगा. सिलिकॉन वैली की ऐसी ही कोशिशों की वजह से एक नये किस्म का उपनिवेशवाद पनप रहा है, जिससे हमें न केवल नेट-नागरिक के रूप में ही, आम नागरिक के रूप में भी संघर्ष करना होगा.

फेसबुक इन दिनों समाचार पत्रों के पूरे पन्नों, टेलीविजन पर छाये विज्ञापनों और होर्डिंगों के अलावा खुद फेसबुक के माध्यम से 400 करोड़ से भी ज्यादा रुपयों की लागत का एक विराट प्रचार अभियान संचालित कर रहा है, जिसका उद्देश्य ‘फ्री बेसिक्स' नामक उसके निजी और अपनी मिल्कियत के इंटरनेट प्लेटफार्म के इस्तेमाल को बढ़ावा देना है. भारत में अपनी यह सेवा मुहैया करने के लिए रिलायंस टेलीकम्युनिकेशन्स के साथ एक सहयोग समझौता करके वह अपने विरोधियों को गरीब विरोधी भी करार दे रहा है.

भारतीय दूरसंचार विनियामक प्राधिकरण (ट्राइ) ने फेसबुक तथा रिलायंस के इस प्रस्ताव पर अमल रोक कर इस विषय में एक परामर्श पत्र प्रकाशित किया है कि क्या दूरसंचार संचालक विभिन्न वेबसाइटों से संपर्क जोड़ने के लिए अलग-अलग दरों से शुल्क ले सकते हैं? जाहिर तौर पर, फेसबुक का चालू प्रचार अभियान इसी परामर्श प्रक्रिया को प्रभावित करना है.

इस कोशिश के विरोध में सक्रिय कार्यकर्ताओं, एकेडेमिशियनों, नवउद्यमों और प्रौधोगिकीविदों का एक अस्वाभाविक-सा गंठबंधन उठ खड़ा हुआ है. ‘से नो टू फ्री बेसिक्स' तथा ‘सेव द इंटरनेट' जैसी लोकप्रिय ऑनलाइन मुहिमों के माध्यम से भी इस विरोध को व्यापक समर्थन हासिल हुआ है.

दूसरी ओर, अपने प्रचार अभियान के द्वारा फेसबुक न केवल 'नेट न्यूट्रैलिटी' के समर्थकों को बदनाम कर रहा है, बल्कि यह कानूनों तथा संहिताओं का भी उल्लंघन कर रहा है. फेसबुक द्वारा अपने इस प्लेटफार्म को ‘फ्री बेसिक्स‘ का नाम देना भी एक ऐसी ही कोशिश है, जिसमें उसकी मंशा ‘फ्री' शब्द के विशिष्ट मतलब, ‘मुफ्त', का फायदा उठा कर लोगों को भ्रमित करने की है. फेसबुक खुद को एक अमेरिकी कंपनी करार देते हुए भारत में किसी भी कानूनी कार्रवाई का सामना करने से इनकार करता रहा है. वह भारत से अर्जित अपनी विपुल आय पर कोई कर भी नहीं देता है. यदि वह भारत के विकास में सचमुच ही एक भागीदार बनना चाहता है, तो उसे सबसे पहले यहां के कानूनों और कराधान के प्रति अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिए था.

नेट न्यूट्रैलिटी की अहमियत

आज इंटरनेट पर करीब एक अरब वेबसाइट मौजूद हैं. इंटरनेट के लगभग साढ़े तीन अरब उपयोगकर्ताओं के मद्देनजर इसका अर्थ यह हुआ कि औसतन हरेक साढ़े तीन में से एक उपयोगकर्ता खुद भी एक वेबसाइट संचालित कर विभिन्न सेवाएं मुहैया करा रहा है. इंटरनेट के माध्यम का इस्तेमाल हम न केवल इसके उपभोक्ताओं के रूप में, बल्कि अन्य ‘नेट-नागरिकों' तक पहुंचने में भी करते हैं. यदि इतने कम अरसे में ही इंटरनेट ने बदलाव की इतनी बड़ी ताकत के रूप में एक अभूतपूर्व पहचान कायम कर ली है, तो इसकी वजह यही है कि इंटरनेट से जुड़ कर कोई भी इसके जरिये पूरी दुनिया में कहीं भी किसी से भी संपर्क जोड़ कर बगैर किसी अतिरिक्त शुल्क के न सिर्फ सूचनाएं ले सकता है, बल्कि उन्हें दे भी सकता है.

नेट न्यूट्रैलिटी की अवधारणा के जनक टिम वु ने लिखा है कि इंटरनेट के इन दोनों छोरों की एक दूसरे तक पहुंच को किसी बंधन से मुक्त रखने की वजह से ही नवोन्मेष का यह विराट विस्फोट संभव हो सका है. इसी वजह से ही रेडियो और टीवी की तुलना में इंटरनेट इतना भिन्न है. इसने एक बड़ी आबादी की रचनात्मकता को उन्मुक्तता दी है. अब यदि सेवा प्रदाताओं और कंपनियों को गार्ड की भूमिका में उतरने की अनुमति दे दी जाये, तो इसकी ये विशिष्टताएं समाप्त हो जायेंगी. नेट न्यूट्रैलिटी का यही अर्थ है कि किसी भी सेवा प्रदाता अथवा कंपनी को यह तय करने का अधिकार नहीं होना चाहिए कि इंटरनेट के किस हिस्से या किन साइटों तक लोगों की पहुंच हो.

दूसरी ओर ‘फ्री बेसिक्स' एक ऐसा प्लेटफार्म है, जो पूरी तरह फेसबुक के नियंत्रणाधीन है और यह स्वाभाविक ही है कि वह उपयोगकर्ताओं को फेसबुक के अलावा केवल उसके साझीदार वेबसाइटों तक पहुंचने की मंजूरी देगा. आज हम अपनी इच्छानुसार जिस किसी साइट का भ्रमण कर सकते हैं, मगर फ्री बेसिक्स के घेरे में सिर्फ फेसबुक और उसके द्वारा मंजूर साइटें होंगे.

संघर्ष और नयी दुरभिसंधियां

नेट न्यूट्रैलिटी का पहला संघर्ष दूरसंचार की शक्तिशाली कंपनियों के बीच हुआ था, क्योंकि तब सिर्फ वे ही उपयोगकर्ताओं को सेवा प्रदान कर सकती थीं. इसका फायदा उठाते हुए उन्होंने वेबसाइटों तक उपयोगकर्ताओं की पहुंच मुहैया करने के लिए साइटों से पैसे की मांग शुरू की. इसके नतीजतन इंटरनेट कंपनियां तथा नेट-नागरिकों ने मिल कर उन कंपनियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और तब यह माना गया कि नेट न्यूट्रैलिटी बुनियादी नियामक सिद्धांत होना चाहिए.

मौजूदा बहस नेट न्यूट्रैलिटी के युद्ध का दूसरा चरण है, जिसमें कोई बड़ी इंटरनेट एकाधिकार कंपनी कुछ दूरसंचार सेवा प्रदाता कंपनियों के साथ गंठजोड़ करके अपनी पसंदीदा साइटों तक मुफ्त पहुंच की सुविधा देते हुए अपने स्पर्द्धियों तक पहुंच बाधित कर देना चाहते हैं. इस तरह की मुफ्त सूचना सेवा प्रदान करना उनकी एक रणनीति है और इसे ही ‘जीरो रेटिंग सेवा' कहते हैं. दावा तो यह किया गया है कि इस सेवा के लिए फेसबुक रिलायंस को कोई रकम नहीं दे रहा, लेकिन करार में पारदर्शिता की कमी है.

दूरसंचार कंपनियों और मुट्ठीभर वैश्विक इंटरनेट एकाधिकारों के बीच हुई इन दुरभिसंधियों के नतीजे में इंटरनेट पर आर्थिक शक्तियों का लगातार केंद्रीकरण होगा, जो प्रगतिशील मीडिया द्वारा किये जा रहे नवोन्मेषों को हाशिये पर डाल देगा. इससे साइटों और नजरिये की विविधता समाप्त हो जायेगी. तब इंटरनेट किसी केबल टीवी की तरह हो जायेगा, जिस पर सिर्फ चुनिंदा वेबसाइट्स ही उपलब्ध रहेंगी. फेसबुक की यह मुहिम बाजार की उस बेपनाह ताकत को भी प्रदर्शित करती है, जो आज फेसबुक जैसी वैश्विक इंटरनेट कंपनी के पास मौजूद है.

भारत में फेसबुक के उपयोगकर्ताओं की संख्या साढ़े बारह करोड़ से भी अधिक है, जिनके साथ-साथ नेट न्यूट्रैलिटी के समर्थकों को भी वह ‘फ्री बेसिक्स' की मनमानी व्याख्या समझा रहा है.

‘फ्री बेसिक्स' से जुड़े तर्कों पर उठते सवाल जुकरबर्ग का दावा है कि ‘फ्री बेसिक्स' पुस्तकालयों, अस्पतालों और स्कूलों जैसी सार्वजनिक सेवाओं की तरह ही है, जिसके सस्ते संस्करण का लाभ तो किसी को भी मिल सकता है, पर उसके विशिष्ट संस्करण के अंतर्गत कुछ कीमत चुकाने पर सभी के लिए सब कुछ उपलब्ध रहेगा. जुकरबर्ग जिस तथ्य को नजरअंदाज कर रहे हैं, वह यह है कि ऐसी सभी सार्वजनिक सेवाएं प्राथमिक स्तर पर सबके लिए उपलब्ध रहती हैं और विशिष्ट सेवाएं केवल उनके दूसरे अथवा तीसरे स्तर पर ही रखी जाती हैं. जिसे वे ‘फ्री बेसिक्स' की ‘मुफ्त सेवा' बता रहे हैं, उसमें शामिल वेबसाइट्स और विषयवस्तु के चयन का एकाधिकार उन्हें किसने दिया? फेसबुक शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं तक गरीब भारतीय तबकों की पहुंच किस तरह तय करेगा?

सस्ती पहुंच की जरूरत और राह

‘फ्री बेसिक्स' के झांसे में न आकर, सरकार और ट्राइ द्वारा ऐसी नीतियां तय करने तथा उन्हें अपनाने की जरूरत है, ताकि सूचना सेवाओं तक सबकी सस्ती और सुगम पहुंच सुनिश्चित हो. ऑप्टिकल फाइबर जैसा इंटरनेट के लिए अनिवार्य किंतु बहुत महंगा बुनियादी ढांचा मुहैया करने में सार्वजनिक धन लगता है. इसलिए इस तरह की नीतियां निर्धारित करनी चाहिए कि एक सीमा तक सभी उपयोगकर्ताओं को भेदभावरहित इंटरनेट सेवाएं उपलब्ध हो सकें.

इंटरनेट की सस्ती सेवाओं को जरूरतमंदों तक पहुंचाने के कई रास्ते हैं, जैसे डाटा कनेक्शन को कुछ मुफ्त डाटा मुहैया करना, या फिर जिस समय इंटरनेट पर यातायात कम रहता है तब कुछ मुफ्त सुविधा देना. टूजी डाटा की कीमतें तो निश्चित ही कम हों, क्योंकि कंपनियां अब तक उपयोगकर्ताओं से खासा मुनाफा कमा चुकी हैं.

जब ऐसी अहम नीतियों पर राष्ट्रीय बहस चल रही हो, तब प्रधानमंत्री द्वारा सिलिकॉन वैली के दिग्गजों के साथ सार्वजनिक रूप से निकटता दिखाना ठीक नहीं है. शायद यही वजह है कि कोई नियामक स्वीकृति हासिल किये बगैर ही जुकरबर्ग को भारत में अपना विवादित प्लेटफार्म पेश करने का साहस हुआ. भारत इंटरनेट पर निजी एकाधिकार गवारा नहीं कर सकता, क्योंकि इससे अवाम के बीच डिजिटल विभेद के एक नये युग की शुरुआत होगी. हमें न केवल नेट-नागरिकों के रूप में ही, बल्कि आम नागरिकों के रूप में भी संघर्ष करना होगा.

(अनुवाद : विजय नंदन)

इंटरनेट डाटा की अलग-अलग कीमतें रखने और नेट न्यूट्रैलिटी को लेकर बहस पर भारत में टेलीकॉम रेगुलरिटी ऑथोरिटी ऑफ इंडिया (ट्राइ) को कुल 24 लाख टिप्पणियां मिली हैं. हालांकि अपने दस्तावेज में ट्राइ ने नेट न्यूट्रैलिटी शब्द का प्रयोग नहीं किया है. उसमें जीरो-रेंटिंग प्लैटफॉर्म्स के विचार पर चर्चा है. ट्राइ ने आम नागरिकों से अपनी राय देने का निवेदन किया था, जिसकी आखिरी तारीख सात जनवरी थी. ट्राइ के एक अधिकारी के मुताबिक 24 लाख में से 18 लाख के करीब टिप्प्णियां फेसबुक के फ्री बेसिक्स से जुड़ी हुई हैं. उम्मीद जतायी जा रही है कि ट्राइ एक महीने के अंदर इस पूरे मसले पर अपनी राय देश के सामने रख देगा. केंद्र सरकार ने पहले ही कह दिया है कि वह कोई राय देने से पहले ट्राइ के विचार की प्रतीक्षा करेगी.

नैस्कॉम ने भी किया विरोध : आइटी इंडस्ट्री बॉडी नैस्कॉम ने भी फेसबुक के फ्री बेसिक्‍स और एयरटेल के जीरो रेंटल प्लान का विरोध किया है. नैस्कॉम के मुताबिक दोनों प्‍लान नेट न्‍यूट्रैलिटी के सिद्धांतों का उल्‍लंघन कर रहे हैं. इस बारे में नैस्काॅम ने ट्राइ को अपनी राय भेजी है. नैस्‍कॉम का कहना है कि वह ऐसे किसी भी मॉडल का समर्थन नहीं करेंगे, जिसमें फेवरेबल रेट और स्‍पीड के अलावा मुहैया कराये जानेवाले कॉन्‍टेंट के चुनाव में टेलीकॉम सर्विस ऑपरेटर्स का दखल होगा. नैस्कॉम ने ट्राइ से अपील की है कि ऑपरेटर्स को अलग-अलग तरह की सर्विस, जैसे वीडियो स्‍ट्रीमिंग, ई-कॉमर्स वेबसाइट एक्‍सेस आदि के लिए अलग-अलग कीमतें तय करने की छूट न दी जाएं, क्योंकि इससे इंटरनेट सेगमेंटिंग का जोखिम बहुत ज्‍यादा बढ़ जायेगा.

हम डिजिटल उपनिवेश बन कर रह जायेंगे...

हम एक विकल्प सुझाते हैं, जो नेट न्यूट्रैलिटी का सम्मान करता है, लाभप्रद है, जल्दी लागू किया जा सकता है, और जो फेसबुक को भी शामिल होने की अनुमति देता है. हमारा प्रस्ताव है कि सरकार इंटरनेट डाटा पैक के लिए डाइरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर योजना लागू करे. यह विचार रसोई गैस के सब्सिडी को सीधे खाते में डालने की 'पहल' योजना की सफलता पर आधारित है, जिसमें 10 करोड़ परिवार लाभान्वित होते हैं.

हमारी सरकार को नेट न्यूट्रैलेटी की रक्षा के लिए तुरंत कानून बनाना चाहिए और इंटरनेट को स्वतंत्रता से इस्तेमाल के अधिकार की सुरक्षा करनी चाहिए. अगर इससे थोड़ा भी कुछ कम होता है, तो इससे किसी दूसरे के स्वार्थ सधेंगे, हमारे नहीं, और हम इंटरनेट की महाशक्तियों के डिजिटल उपनिवेश बन कर रह जायेंगे.

- नंदन नीलकेणि, पूर्व प्रमुख, इन्फोसिस

बिना भेदभाव के पहुंच को सुनिश्चित करना जरूरी

ट्राइ द्वारा सुझाया गया डिफरेंशियल प्राइसिंग मॉडल्स नेट न्यूट्रैलिटी के विरुद्ध होने के साथ ही इस नियामक संस्था के उन सिद्धांतों के भी विरुद्ध है जो मूल्य निर्धारण से संबधित हैं. करोड़ों लोगों को इंटरनेट से जोड़ने तथा देश के डिजिटल एवं डेवेलपमेंट की खाई को पाटने की जरूरत है़ ऐसा करने के लिए अनेक पारदर्शी और प्रभावी रास्ते हैं. आम पहुंच के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश तथा उपभोक्ताओं को सीधे सब्सिडाइज्ड और बिना भेदभाव के पहुंच को सुनिश्चित करना ऐसे दो रास्ते हैं.

- डॉ सुभो रे, अध्यक्ष,

इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया

‘इंटरनेट डॉट ऑर्ग', िजसका हुआ था व्यापक िवरोध, ही अब है ‘फ्री बेसिक्स'

इंटरनेट डॉट ऑर्ग सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक और छह अन्य कंपनियों- सैमसंग, इरिक्सन, मीडिया टेक, ऑपेरा सॉफ्टवेयर, नोकिया और क्वेल्कॉम- का साझा उपक्रम है, जिसकी योजना अविकसित और विकासशील देशों में चुनिंदा इंटरनेट सेवाएं सस्ती दरों पर उपलब्ध कराने की है. अप्रैल, 2015 तक इंटरनेट डॉट ऑर्ग पर बिना कुछ शुल्क दिये कुछ ही साइटों की उपलब्धता थी.

इस योजना से नेट न्यूट्रैलिटी के उल्लंघन की आशंका जताते हुए इसके व्यापक विरोध के बाद पिछले साल मई महीने में फेसबुक ने घोषणा की कि सभी साइटें और सेवाएं इस पहल से जुड़ सकती हैं, लेकिन उन्हें कुछ शर्ते माननी होंगी. पिछले साल सितंबर में इन सेवाओं को देनेवाले एप्प का नाम इंटरनेट डॉट ऑर्ग से बदल कर ‘फ्री बेसिक्स' कर दिया गया. इंटरनेट डॉट ऑर्ग को 20 अगस्त, 2013 को शुरू किया गया था. वर्ष 2014 में नौ अक्तूबर को दिल्ली में पहला इंटरनेट डॉट ऑर्ग शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया था. उस दौरान जुकरबर्ग ने फेसबुक और भारत सरकार के बीच सहयोग को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बातचीत भी की थी. यह सेवा अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के 31 देशों में चालू की गयी थी, पर फिलहाल भारत और मिस्र में इसे बंद रखा गया है.

सेव द इंटरनेट अभियान

नेट न्यूट्रैलिटी को बरकरार रखने और फ्री बेसिक्स जैसी कोशिशों को वर्चस्ववादी बताकर विरोध अभियान सबसे पहले अमेरिका में शुरू हुआ था जिसकी अगुवाई युवा कार्यकर्ता कर रहे हैं.

यह एक असंगठित अभियान है और इसके अधिकतर सदस्य कभी एक-दूसरे से मिले भी नहीं हैं और अलग-अलग शहरों में रहते हैं. वे इंटरनेट और सोशल मीडिया के माध्यम से अभियान चलाते हैं तथा मुद्दों पर जागरूकता बढ़ाने की कोशिशें करते हैं. भारत में इस अभियान के सदस्यों की संख्या करीब 50 है. यह अभियान रेडिट पर सामान्य चर्चा में दिसंबर, 2014 में प्रारंभ हुआ और उसी महीने कुछ कार्यकर्ताओं ने नेटन्यूट्रैलिटी डॉट इन नामक साइट बनाया. चेंज डॉट ऑर्ग पर एक ऑनलाइन हस्ताक्षर अभियान शुरू हुआ. इसकी एक अन्य सहायक साइट सेव द इंटरनेट डॉट इन है.

इस अभियान की कोशिशों के कारण ही पिछले साल एअरटेल को अपना जीरो रेंटल प्लान वापस लेना पड़ा था और ट्राइ को 27 मार्च, 2015 को एक कंस्लटेशन पेपर सार्वजनिक करना पड़ा था. इस अभियान ने सभी संबंधित बिंदुओं पर अपना पक्ष रखा और सोशल मीडिया तथा इमेल के जरिए सरकार, सांसदों, ट्राइ और अन्य लोगों तक पहुंचाया. नेट न्यूट्रैलिटी के पक्ष में खड़े लाखों लोग इस अभियान के समर्थक हैं. इस अभियान के साइट कुछ कार्यकर्ताओं के व्यक्तिगत चंदे से चलती है तथा कार्यकर्ताओं को किसी तरह का मानदेय नहीं मिलता. यह अभियान किसी तरह की आर्थिक मदद का निवेदन नहीं करता और उसका घोषित कुल खर्च कुछ हजार रुपये है.

समर्थन में भी गिनाये जा रहे हैं तर्क

विशाल माथुर

तकनीकी मामलों के लेखक

भा रत में इन दिनों नेट न्यूट्रैलिटी पर बहस सरगर्म है. सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक की ओर से अपने ‘फ्री बेसिक्स' प्रोग्राम के पक्ष में मीडिया के विभिन्न माध्यमों के जरिये व्यापक प्रचार अभियान के साथ यह बहस और तेज हुई है. ‘फ्री बेसिक्स', जिसे पहले इंटरनेट डॉट ओआरजी के नाम से जाना जाता था, का लक्ष्य फेसबुक सहित कुछ चुनिंदा वेबसाइट्स की सेवाएं लोगों को मुफ्त उपलब्ध कराना है. फेसबुक के ‘फ्री बेसिक्स' पर अभी विकीपीडिया, एक्यूवेदर, सुपरस्पोर्ट समेत क्षेत्र-विशेष से जुड़ी स्वास्थ्य और शैक्षणिक सेवाएं उपलब्ध हैं.

साधारण मोबाइल फोन में भी काम करने की क्षमता से युक्त इस व्यवस्था में कंटेंट को उपलब्ध कराने के लिए कुछ तकनीकी दिशा-निर्देश निर्धारित किये गये हैं, जिन्हें इसके विरोधी अनुचित मान रहे हैं. लेकिन, ऐसी शर्तें तो गूगल, एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट समेत हर सेवा-प्रदाता ने निर्धारित किया हुआ है.

फेसबुक के इंटरनेट डॉट ऑर्ग के वाइस प्रेसिडेंट क्रिस डैनिएल्स का कहना है कि हम और किसी के कहने पर कोई एप्प अस्वीकार नहीं करेंगे और हम ट्वीटर तथा गूगल प्लस को भी अपने प्लेटफॉर्म पर जगह देने के इच्छुक हैं.

अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देशों में अपने अनुभव के बारे में उन्होंने बताया है कि फ्री बेसिक्स से अपनी यात्रा शुरू करनेवाले 50 फीसदी लोगों ने एक महीने के भीतर पूरे इंटरनेट के लिए शुल्क देना शुरू कर दिया था और उस महीने सिर्फ फ्री बेसिक्स इस्तेमाल करनेवालों की संख्या इकाई में रह गयी थी.

इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अनुसार, जून 2015 तक भारत में 35.4 करोड़ लोग इंटरनेट के यूजर्स थे, जिनमें 60 फीसदी इसके लिए मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते थे. भले ही ये आंकड़े कागज पर अच्छे दिखते हों, पर हकीकत यह है कि भारत में इंटरनेट की पहुंच महज 27 फीसदी है, जबकि चीन में यह संख्या 51 और अमेरिका में 87 फीसदी है.

दूसरे शब्दों में, देश की बड़ी आबादी इंटरनेट से दूर है और इसमें अन्य कारणों के अलावा खर्च भी बड़ा कारण है. फेसबुक ‘फ्री बेसिक्स' के द्वारा इस दूरी को पाटना चाहता है. फेसबुक का कहना है कि कोई भी टेलीकॉम कैरियर या मोबाइल ऑपरेटर इस प्लेटफॉर्म से जुड़ सकता है और इसके लिए फेसबुक किसी भी तरह का कोई शुल्क नहीं लेता.

आलोचकों का मानना है कि ऑपरेटर यह खर्च उपभोक्ताओं से वसूलेंगे. पर, इसमें गलत क्या है, अगर इस प्रयास से अधिक लोग इंटरनेट से जुड़ते हैं तो? आखिर, सरकार भी तो करदाताओं से वसूले गये धन से सब्सिडी देती है. फ्री बेसिक्स द्वारा इंटरनेट को सीमित करनेवाले भूल जाते हैं कि यह सेवा आपके और हमारे जैसे उपभोक्ताओं के लिए नहीं, बल्कि उनके लिए है जो इंटरनेट की दुनिया में अभी पहला कदम रख रहे हैं. रही बात फेसबुक द्वारा डाटा रखने की, तो यह आज एक हकीकत है और ऐसा एन्ड्रॉयड फोन में भी होता है और विंडोज लैपटॉप में भी.

कुल मिला कर, फेसबुक की यह पहल इंटरनेट की पहुंच बढ़ाने की दिशा में अच्छी कोशिश है, जिसे हासिल करने के लिए सरकार और टेलीकॉम कंपनियां संघर्ष कर रही हैं. यदि इस कोशिश से इंटरनेट से अभी तक वंचित लोगों में जागरूकता और जानकारी बढ़ाने तथा दवाइयों और शिक्षा तक उनकी पहुंच बेहतर करने में मदद मिलती है, तो इसे लागू करके देखा जाना चाहिए.

वर्ष 2010 में जारी विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक उच्च गति के इंटरनेट कनेक्शन में 10 फीसदी की हर वृद्धि से 1.3 फीसदी आर्थिक विकास होता है. सभी मानते हैं कि गरीबी एक खराब चीज है. ऐसे में यदि इंटरनेट से इसे दूर करने में मदद मिलती है, तो ऐसा क्यों नहीं किया जाना चाहिए?

फेसबुक की पहल पर बहुत सारी आपत्तियां सैद्धांतिक हैं, जिनका परीक्षण होना बाकी है. दरअसल, पूरी बहस ने नैतिक आवरण ओढ़ लिया है, जबकि चर्चा इसके फायदे और तौर-तरीके पर होनी चाहिए थी. फ्री बेसिक्स से फेसबुक को भी लाभ हो रहा है और अब तक वंचित रहे संभावित यूजर्स को भी. यदि उनमें से एक फीसदी भी बेहतर शिक्षा और रोजगार के अवसर से जुड़ जाते हैं, तो अर्थव्यवस्था पर उसके सकारात्मक असर का अनुमान लगाया जा सकता है.

(लाइवमिंट पर जारी लेख का संपादित अंश)


http://www.prabhatkhabar.com/news/special-news/story/696901.html
 

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