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न्यूज क्लिपिंग्स् | नोटबंदी पर विपक्ष का अनुचित रवैया - संजय गुप्‍त

नोटबंदी पर विपक्ष का अनुचित रवैया - संजय गुप्‍त

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published Published on Nov 22, 2016   modified Modified on Nov 22, 2016
काले धन के खिलाफ एक बड़े कदम के रूप में पांच सौ और एक हजार रुपए के नोट चलन से बाहर करने के मोदी सरकार के फैसले के विरोध में विपक्षी दल जिस प्रकार संसद के भीतर-बाहर हंगामा कर रहे हैं, वह हैरान करने वाला भी है और भ्रष्टाचार-काले धन के खिलाफ होने के उनके दावे की पोल खोलने वाला भी। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, सपा, बसपा और वाम दलों के साथ-साथ आम आदमी पार्टी की ओर से आम जनता की तकलीफ का हवाला देते हुए केंद्र सरकार पर यह भी दबाव बनाया जा रहा कि वह अपने फैसले को वापस ले। हालांकि सरकार की ओर से स्पष्ट कर दिया गया है कि इस फैसले को वापस लेने का सवाल ही नहीं उठता, लेकिन विपक्षी दलों का गैरजिम्मेदाराना रवैया कायम है। वे यह भी नहीं देख पा रहे कि परेशानी के बावजूद आम जनता का रवैया सकारात्मक है।

नोटबंदी पर विरोधी दलों के बेतुके बयान यही आभास कराते हैं कि उन्हें यह फैसला इसलिए रास नहीं आया, क्योंकि उन्हें खुद अपना नुकसान होता दिखाई दे रहा है। इन दलों की ओर से जनता की गाढ़ी कमाई को लेकर सवाल उठाना इसलिए औचित्यहीन है, क्योंकि सरकार की ओर से तो यह कभी कहा ही नहीं गया कि वह लोगों का पैसा हड़पने जा रही है। उसने जो कदम उठाया वह काले धन के खिलाफ है। इस क्रांतिकारी कदम का मकसद बड़े पैमाने पर भ्रष्ट-अवैध तरीके से एकत्र की गई काली कमाई पर प्रहार करना है। सरकार ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है जो आम जनता को उसकी मेहनत की कमाई से वंचित करता हो, फिर भी विपक्ष का दुष्प्रचार जारी है। खराब बात यह है कि वह अपनी बात कहने के लिए तथ्यों-तर्कों के बजाय दुष्प्रचार का सहारा ले रहा है।

अपने देश की राजनीति का ऐसा स्वरूप हो गया है कि शहरी-ग्रामीण किसी भी क्षेत्र से आने वाले ज्यादातर राजनेता केवल अपने और अपनी पार्टी के हितों के लिए चिंतित रहते हैं। आम जनता तो उनकी राजनीति का जरिया भर है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे राजनीतिक दल राष्ट्रहित के मुद्दों पर भी संजीदगी का परिचय नहीं दे पाते। नोटबंदी के फैसले का असर देश के हर वर्ग पर हुआ है और राजनेता व उनके समर्थक भी इससे अछूते नहीं हैं। चूंकि राजनीति मुख्यत: काले धन से ही संचालित होती है, इसलिए नेताओं और उनके समर्थकों का इस फैसले से सन्न् रह जाना स्वाभाविक है। अभी तक राजनीति में दो नंबर के लेन-देन पर कोई प्रभावी रोक-टोक नहीं रही, इसलिए सब कुछ आसानी से चल रहा था, लेकिन अब हालात बदलते दिख रहे हैं। भाजपा नेता चाहकर भी अपनी सरकार के फैसले में मीन-मेख नहीं निकाल सकते, लेकिन अन्य दलों के लिए ऐसी कोई बंदिश नहीं है और वे इसका ही लाभ उठा रहे हैं। अच्छा है वे यह समझ पाएं कि अधिकांश जनता उनके रुख से सहमत नहीं।

मोदी सरकार ने काले धन के खात्मे के लिए जो फैसला लिया, उसके विरोध में विपक्षी दलों के नेताओं ने संसद में जैसी बेतुकी बातें कीं, उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है। ये वही दल हैं जो कल तक कह रहे थे कि अगर बाहर गया काला धन लाने में समस्या है तो जो देश के अंदर है, उसे निकालो। अब जब सरकार ने ऐसा ही किया तो विपक्षी नेता तरह-तरह के कुतर्क देने में लगे हुए हैं। वे समझने को तैयार नहीं कि काले धन के खिलाफ कहीं से तो शुरुआत करनी ही थी। सरकार ने क्रांतिकारी फैसला करते हुए काले धन के साथ नकली नोटों के कारोबार को भी निशाने पर लिया। यह एक बड़ा फैसला है और उसका असर पूरे देश पर पड़ना स्वाभाविक है। बेहतर होता कि विपक्ष ऐसे सुझाव देने के लिए आगे आता, जिससे नोटबंदी के चलते जनता को हो रही दिक्कतों को कम करने में मदद मिलती। इसके बजाय वह जनता को बरगलाने और डराने में लगा हुआ है। वह कभी फैसला लीक होने का आरोप लगा रहा है तो कभी बिना तैयारी फैसला करने का। वह यह समझने को तैयार नहीं कि यह फैसला इतना बड़ा और ऐसी प्रकृति का था, जिसमें जनता के सामने कुछ न कुछ परेशानी आनी ही थी।

यह अच्छा नहीं हुआ कि संसद में भी बहस के बजाय बेतुकी बातें की गईं। जहां कांग्रेस के प्रमोद तिवारी ने प्रधानमंत्री की तुलना हिटलर और मुसोलिनी से कर डाली, वहीं बसपा प्रमुख मायावती ने नोटबंदी को आर्थिक आपातकाल का नाम दे दिया। ऐसी ही टिप्पणी तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी की ओर से भी आई। हद तब हो गई जब 'आप" ने नोटबंदी के फैसले को लेकर प्रधानमंत्री को भला-बुरा कहने के लिए दिल्ली विधानसभा का विशेष सत्र ही बुला लिया। इसके बाद गुलाम नबी आजाद ने आतंकी हमले में जान गंवाने वालों की तुलना कथित तौर पर नोटबंदी के कारण मरे लोगों से कर दी। नोटबंदी के विरोध में विपक्षी दलों के पास तर्कों का अभाव संसद सत्र के पूर्व सर्वदलीय बैठक में भी दिखा। इस बैठक में कुछ दलों ने बड़े नोटों पर पाबंदी को लेकर यह दलील दी कि इससे चुनावों पर असर पड़ेगा। इसके जवाब में प्रधानमंत्री ने दलों को सरकारी खर्चे पर प्रचार की सुविधा देने के एक पुराने सुझाव को नए सिरे से आगे बढ़ाने की बात करते हुए यह कहा कि यदि विपक्षी दल चाहते हैं तो सरकार इस सुझाव पर विचार कर सकती है। क्या यह उचित नहीं होगा कि विपक्षी दल राजनीति से काले धन को समाप्त करने के लिए सकारात्मक सुझावों के साथ आगे आएं?

प्रधानमंत्री ने नोटबंदी का जो अप्रत्याशित फैसला लिया उसमें उन्हें कितनी सफलता मिलने वाली है, अभी इसका सटीक अनुमान नहीं लगाया जा सकता, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि 500 व 1000 रुपए के नोट चलन से बाहर करने से करीब तीन लाख करोड़ रुपए का काला धन रद्दी हो जाएगा और करीब दस लाख करोड़ रुपए बैंकों में जमा होंगे। रिजर्व बैंक जो नोट जारी करता है, उसे केंद्रीय बैंक की लायबिलिटी यानी देनदारी माना जाता है। इसका अर्थ है कि रिजर्व बैंक की देनदारी में भी करीब तीन लाख करोड़ रुपए की कमी आएगी। बड़ी मात्रा में धनराशि बैंकों में जमा होने से बैंकों की सेहत भी सुधरेगी और अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी। इसका सबसे सकारात्मक असर देश के विकास पर पड़ेगा, क्योंकि सरकार के पास बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं जैसे अन्य अनेक जनकल्याण के कार्यक्रमों पर खर्च करने हेतु अधिक पैसा होगा। कई अर्थशास्त्री यह मान रहे हैं कि यह युगांतकारी निर्णय है, जो केवल देश की अर्थव्यवस्था ही नहीं, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक ढांचे की तस्वीर भी बदल सकता है। जो भी हो, इस फैसले के जरिए मोदी ने एक बार फिर पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। अब जब देश की परेशानी का दौर गुजरता दिख रहा है तो उचित यही है कि विपक्ष भी अपनी बात तर्कपूर्ण ढंग से रखे और ऐसा माहौल बनाने में मदद करे जिससे काले धन के खिलाफ छेड़ा गया अभियान अंजाम तक पहुंचे।

(लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं)

 


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