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न्यूज क्लिपिंग्स् | नौकरियां कहां हैं?-- संदीप मानुधने

नौकरियां कहां हैं?-- संदीप मानुधने

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published Published on Feb 9, 2017   modified Modified on Feb 9, 2017
एक सौ तीस करोड़ से अधिक की जनसंख्या के हमारे देश में हमें लगातार बताया गया है कि अधिकांश आबादी युवा है और यही हमारी सबसे बड़ी ताकत है. यह तर्क मैंने 1997 के बाद से लगभग हर राजनेता को इस्तेमाल करते देखा. तब उम्मीदें आसमान तो छू रही थीं, क्योंकि वैश्वीकरण के चलते हर तरह की तरक्की का वादा हमसे हुआ था, (और कुछ हद तक वैसा हुआ भी).


आज जब डोनाल्ड ट्रंप के चलते वैश्वीकरण की गाड़ी में रिवर्स गियर लग चुका है, अरबों का शुद्ध लाभ कमानेवाली आइटी कंपनियों की धरती खिसकती दिख रही है, विदेश व्यापार पर अनिश्चितताएं मंडरा रही हैं और हर देश अपना सोचने पर मजबूर होता दिख रहा है, सही समय है कि हम देखें कि आज की हमारी 25 वर्ष से कम उम्र की 45 प्रतिशत आबादी के लिए देश में क्या अवसर मौजूद हैं.


हमारे नेता अवसर भांपने और उन्हें चुनावों में इस्तेमाल करने में बेहद परिपक्व हैं. स्वभाव से भोली और यकीन करनेवाली जनता, सबको मौका भी दे देती है! लेकिन, डेमोग्राफिक डिविडेंड को सही तरीके से भुना कर देश को वाकई उन्नत बनाने का कारगर फाॅर्मूला एक भी पार्टी और नेता अभी तक नहीं बता पाया है, वास्तविक अमल तो भविष्य की बात रही. इस बात के क्या सबूत हैं? पांच मूल बातें जो साफ दिखती हैं :


पहला- औपचारिक क्षेत्र में नयी नौकरियां बनने की गति बढ़ी नहीं है, बुरी तरह से गिर गयी है (ट्रंप के आने से पहले ही यह स्थिति थी). हर माह 10 लाख नये चेहरे शिक्षा पूरी कर नौकरी तलाशने निकल पड़ते हैं, इतनी कुल वर्षभर में बन नहीं पा रही हैं!


दूसरा- निम्न कौशल विनिर्माण (लो स्किल्स मैन्युफैक्चरिंग) का प्रतिशत बढ़ नहीं सका है और विश्व बाजार में बांग्लादेश और वियतनाम हमसे आगे निकल गये हैं (कपड़ा और चमड़ा उद्योग- आर्थिक समीक्षा 2016-17 की रिपोर्ट). ये ही वे क्षेत्र हैं, जिनमें सबसे तेजी से नयी नौकरियां दी जा सकती हैं.


तीसरा- राष्ट्रीय विनिर्माण नीति तो लगता है कागजों पर ही रह गयी है. मेक इन इंडिया ने एक बहादुरीपूर्ण प्रयास किया है, किंतु अचानक हो रहे वैश्विक बदलावों की आंच उस पर भी पड़ रही है.


चौथा- भारत के जीडीपी का विकृत स्वरूप, जिसमें सेवा क्षेत्र जो नौकरियों का खराब सृजनकर्ता होता है, वह 55 प्रतिशत से ज्यादा योगदान दे रहा है. जिस आइटी उद्योग की बात अक्सर होती है, वह कुल मिला कर 50 लाख लोगों को भी प्रत्यक्ष रोजगार नहीं देता है, लेकिन सार्वजनिक चर्चा में सर्वाधिक समय ले लेता है!


पांचवां सबूत- चीन और भारत में यदि नौकरीपेशा (समय पर तनख्वाह) की संख्या की तुलना करें, तो चीन में लगभग 60 प्रतिशत आबादी ऐसी है, लेकिन भारत में 20 प्रतिशत भी नहीं!


श्रमबल में तीन श्रेणियां हैं- उच्च कौशल (इनकी स्थिति ठीक है), निम्न कौशल (इनके लिए भी कई नौकरियां अनेक अनौपचारिक क्षेत्रों में हैं), और मध्यम-कौशल (मीडियम-स्किल्ड) में नौकरियों की संख्या कम है और बढ़ नहीं रही है. अब स्थिति यह है कि करोड़ों नौकरियां देनी हैं, तो निम्न-कौशल उद्योगों के जरिये ही हो सकता है, उच्च व मध्यम से उतना नहीं.


करोड़ों युवा शिक्षा पूरी कर अनेक वर्षों तक घर पर बैठ कर सरकारी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं, क्योंकि न तो उनके सामने दूसरे विकल्प सरलता से मौजूद हैं और न ही वे इतने कुशल बन पाये हैं कि औपचारिक क्षेत्र में झट से नौकरियां मिलें. इससे भारत की उत्पादकता की हानि का तो अंदाजा ही नहीं लगाया जा सकता. 20 से 26 वर्ष के करोड़ों युवा उत्पादक कार्यों में नहीं, केवल प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियों में लगे पड़े हैं. शायद विश्व में कहीं भी युवा शक्ति की ऐसी बरबादी नहीं होती होगी.


सभी विश्लेषण और रिपोर्ट ये मानती हैं कि स्थिति भयावह है और इस पर एक राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए, पर नहीं हो रही है. आइये देखें कि एक समग्र हल कैसे निकाला जाये. फिलहाल तो व्यवस्था में स्वतः ही जितना हो सकता है, हो रहा है और अनौपचारिक क्षेत्र रोजगार देता है, किंतु सामाजिक सुरक्षा व अन्य लाभ वहां नहीं मिल पाते.


केंद्रीय बजट भी नौकरियों के सृजन पर अप्रत्यक्ष बातें ही करता दिखा. एक भी प्रत्यक्ष योजना में, जो निश्चित मात्रा में नौकरियां दे, यह प्रतिबद्धता अदृश्य रही. सरकार की राजकोषीय और अन्य मजबूरियों को देखते हुए यह समझ भी आती है. पर सकारात्मक सोचें, तो एक कार्य-योजना संभव लगती है. यदि इसे आज से लागू करें, तो एक दशक में स्थिति पलट सकती है.


पहला- यह एक दीर्घावधि की योजना है, कम समय और मध्यावधि की भी नहीं, यह चर्चा और आम-सहमति बनना आवश्यक है. जो तुरंत नतीजे चाहते हैं, वे नागरिक और जो वादा कर रहे हैं, वे नेता दोनों की इस हेतु वैचारिक सहमति चाहिए.


दूसरा- औपचारिक क्षेत्र में नौकरी-सृजन एक राष्ट्रीय प्रोजेक्ट होने चाहिए, जिस पर संसद से मुहर लगे, जिसका अपना बजट हो, जो वार्षिक बजट और अन्य मंत्रालयों पर आश्रित बिलकुल न हो, अन्यथा कोई स्थायी सुधार संभव नहीं है. यह इसलिए संभव है, क्योंकि न केवल इससे अगले 20 वर्षों के जीडीपी पर असर पड़ेगा, वरन यह सामाजिक स्थिरता और खुशहाली भी लायेगा. यह राजनीतिक रूप से सबको लाभ देनेवाला कदम होगा.


तीसरा- निम्न कौशल विनिर्माण पर भारी जोर देकर हम करोड़ों नौकरियों के वादों को अमली-जामा पहना सकते हैं. इस हेतु श्रम कानूनों में बड़े बदलाव लाने होंगे और श्रम संगठनों को भी समझना होगा कि नये लोगों के लिए नौकरियों हेतु यह ढील तो देनी पड़ेगी, अन्यथा वही होगा, जो आज तक होता आया है- भारतीय उद्यमी देश के बाहर फैक्ट्री लगाना बेहतर समझते रहेंगे और युवा भटकते रहेंगे. इस हेतु यदि बांड्स जारी कर वित्तीय संसाधन जुटाने पड़ें या निवेश में करों में छूट का प्रावधान देना पड़ें, तो दें.


चौथा- हमारी शिक्षा व्यवस्था में 'आउटकम बेस्ड' पद्धति लाने की बात जो बजट ने कही, उसको आगे बढ़ाते हुए जिन स्कूलों और कॉलेजों से नतीजे नहीं निकलते दिखे, उन्हें बंद कर उनकी जगह विशुद्ध कौशल केंद्र बनाये जायें. नहीं तो हम केवल प्रतियोगी परीक्षाओं में भीड़ बढ़ाने का काम करते रहेंगे.


पांचवां- सरकारी स्कूलों-कॉलेजों में कम-से-कम आधा बजट व समय केवल रोजगारपरक शिक्षा व नियोजन पर लगाया जाये. हमारी युवा आबादी को हम यदि नौकरियों की आशा का सवेरा देना चाहते हैं, तो बड़े और कठोर निर्णय अब लेने होंगे. बातों और विश्लेषणों के दशक अब बीत चुके हैं.


http://www.prabhatkhabar.com/news/columns/story/939524.html


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