Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 150
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 151
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
न्यूज क्लिपिंग्स् | न्याय का नखलिस्तान- रुचिरा गुप्ता

न्याय का नखलिस्तान- रुचिरा गुप्ता

Share this article Share this article
published Published on Sep 18, 2013   modified Modified on Sep 18, 2013
जनसत्ता 18 सितंबर, 2013 : भारत में अगर किसी का पुलिस या न्यायपालिका से कभी पाला पड़ा हो, तो वह अच्छी तरह से जानता होगा कि यह अनुभव कितना क्षोभ और आक्रोश से भर देने वाला होता है। भारतीय न्यायपालिका और पुलिस तंत्र में कई तरह की खामियां हैं। उनमें से कुछ को रेखांकित किया जा सकता है। मसलन, पुलिस अधिकारियों के बीच जवाबदेही का अभाव, खासतौर से महिलाओं और दलितों के विरुद्ध होने वाले अपराधों के मामलों में। आमतौर पर भारत में बलात्कार के मामलों को अदालत में सुनवाई तक पहुंचते-पहुंचते ही छह से आठ महीने लग जाते हैं। अब भी बलात्कार के नब्बे हजार मामले सुनवाई के इंतजार में लटके पड़े हैं। इससे ज्यादा परेशानी इस बात से होती है कि ऐसे तमाम मामलों में दोष-सिद्धि की दर चार फीसद से भी नीचे है।
जहां तक पिछले साल सोलह दिसंबर को दिल्ली में चलती बस में सामूहिक बलात्कार की त्रासद घटना के संबंध में आए फैसले का सवाल है, इस मामले में केवल नौ महीनों के भीतर मुकदमा इस मंजिल तक पहुंच गया। लेकिन इतने कम समय में बलात्कारियों को दोषी करार दिए जाने का श्रेय भारत में मुखर स्त्री-समूहों की ओर से लगातार चलाए गए आंदोलनों को जाता है, जिन्होंने मामले को कभी ठंडा नहीं पड़ने दिया। यह तथ्य गौरतलब है कि इस मामले में जिस न्यायाधीश ने आरोपियों को दोषी ठहराते हुए सजा सुनाई, उन्होंने ही अपनी अदालत में सुनवाई के बाद अब तक बलात्कार के बत्तीस अन्य मामलों में आरोपियों को निर्दोष करार देते हुए बरी कर दिया है।
खैर, ताजा फैसले के बाद अब अदालत को पुलिस की भी भूमिका से संबंधित कई मुद््दे तय करने पड़ेंगे। मसलन, अब भी यह पता नहीं लग पाया है कि जिन दो पुलिसकर्मियों की ओर अंगुली उठाई गई थी, उससे संबंधित मामला कहां तक पहुंचा है या उन दोनों को क्या सजा सुनाई गई। ये पुलिसकर्मी तब गश्त पर थे, जब एक बिना लाइसेंसधारी चालक गैरकानूनी रूप से उस बड़ी बस को देर रात सड़कों पर दौड़ा रहा था, जिसमें अपराध को अंजाम दिया गया। इसके अलावा, उस पुलिसकर्मी के संबंध में क्या रुख अख्तियार किया गया, जिसके ड्यूटी पर रहने के दौरान उस अपराध के प्रमुख अभियुक्त राम सिंह ने देश की सबसे अधिक सुरक्षित मानी जाने वाली तिहाड़ जेल में ‘खुदकुशी’ कर ली? सच्चाई यह है कि मीडिया की ओर से अपने स्तर पर की गई खोजबीन और जनता के बीच भारी आक्रोश से उपजे दबाव के बावजूद अपराध के दौरान उस इलाके में ड्यूटी पर तैनात उन पुलिसकर्मियों के नामों का खुलासा तब तक नहीं किया गया था, जब तक कि उच्च न्यायालय ने साफ तौर पर चेतावनी जारी नहीं की।
दिल्ली की एक झुग्गी बस्ती में बलात्कार का शिकार हुई पांच साल की अबोध बच्ची के मामले में भी इससे कुछ अलग नहीं हुआ था। पुलिस ने पीड़ित बच्ची के परिवार को चुपचाप पैसे लेकर मामला रफा-दफा करने की सलाह दी थी। जब मामले का खुलासा हो गया और भारी फजीहत हुई तब तीन अधिकारियों को निलंबित किया गया। लेकिन उनके खिलाफ आगे कोई कार्रवाई नहीं की गई। जब एक सामाजिक कार्यकर्ता ने दबाव बनाया और यह एक मुद्दा बनने लगा तब फिर अदालत ने ही इस मामले में दिल्ली पुलिस की ओर से की गई कार्रवाई पर रिपोर्ट दाखिल करने को कहा। वरना पुलिस महकमे की लापरवाही या उसके खिलाफ लगे आरोपों के बारे में सरकार किस तरह ज्यादा से ज्यादा टालमटोल का रवैया अपनाती है, यह किसी से छिपा नहीं है। यह तथ्य है कि 2011 में देश की पुलिस के विरुद्ध इकसठ हजार सात सौ पैंसठ शिकायतें दर्ज की गर्इं। लेकिन इनमें से सिर्फ नौ सौ तेरह मामलों को आगे बढ़ाया गया और उनमें आरोपपत्र दायर किया गया।
इससे भी दुखद यह है कि मामलों की सुनवाई के बाद इनमें से केवल सैंतालीस आरोपियों को दोषी करार दिया गया। यह संख्या कुल शिकायतों का मात्र 0.07 फीसद है और इन मामलों में भी पुलिस की ओर से गोली चलाए जाने से किसी की मौत या हिरासत में बलात्कार जैसी पुलिस ज्यादती की गंभीरता के मुकाबले सजा बहुत मामूली थी, यानी डांट-फटकार या तबादला। अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिना वजह किसी की जान ले लेने या पुलिस के हाथ पड़ गई किसी महिला के साथ बलात्कार जैसे अपराधों के जिन मामलों में सामान्य अपराधियों के खिलाफ हमारी व्यवस्था जो रुख अपनाती है, उसके मुकाबले इस तरह की सजाओं के क्या मायने हो सकते हैं।
औपनिवेशिक ब्रिटिश राज में, 1857 की स्वतंत्रता की पहली लड़ाई के तुरंत बाद, 1861 का भारतीय पुलिस अधिनियम तैयार किया गया, जिसका मकसद नागरिकों को न्याय दिलाने में मदद करने के बजाय उन पर शासन स्थापित करना ज्यादा था। दरअसल, यह अधिनियम पुलिस को किसी ज्यादती के लिए जिम्मेदार ठहराने के बजाय उसकी ज्यादतियों को माफ करने, छिपाने या उन्हें उचित ठहराने के लिहाज से तैयार किया गया था।
विडंबना यह है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पैंसठ साल बाद भी विभिन्न राज्य सरकारों की ओर से बनाए गए पुलिस अधिनियम और पुलिस नियमावली में दर्ज नियम-कायदे ब्रिटिश राज के प्रतिमानों पर ही आधारित हैं और इनमें पुलिस की जवाबदेही तय करने की गुंजाइश बहुत कम रखी गई है।
आज भी आपराधिक दंड संहिता की धारा 132 और 197 के तहत किसी सरकारी सेवक- जिनमें पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं- पर अपनी आधिकारिक या सौंपी गई ड्यूटी निभाने के दौरान किए गए किसी अवांछित काम के लिए मुकदमा दायर करने या चलाने से पहले सरकार से अनुमति लेनी होती है। यह सभी जानते हैं कि अंतरंग मित्रता, राजनीतिक हित और भ्रष्टाचार के चलते सरकारी अधिकारी अपने रिश्तेदारों, मित्रों या प्रियजनों के खिलाफ आमतौर पर जांच-पड़ताल की अनुमति नहीं देते। इससे भी अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि किसी पुलिस अधिकारी के खिलाफ जांच-पड़ताल करने की अनुमति केवल पुलिस विभाग को है। अगर किसी तरह अनुमति मिल भी जाती है तो जांच अधिकारी अक्सर व्यक्तिगत तौर पर पुलिस अधिकारियों पर लगाए गए आरोपों को दबाने में ही लिप्त हो जाते हैं। इसमें निजी या एक दूसरे के हित सुनिश्चित किए जाने के अलावा यह डर रहता है कि मामले का खुलासा हो जाने से विभाग की छवि धूमिल होगी। यह जगजाहिर है कि विभागीय जांच की प्रक्रिया कितनी विस्तृत, बोझिल और समय लेने वाली होती है। अगर किन्हीं स्थितियों में आरोप साबित हो भी जाएं तो दोषी पुलिस अधिकारी जांच के परिणामों और दी गई सजा के विरुद्ध अदालत में अपील दायर कर सकता है और ऐसा वह आमतौर पर करता ही है।
पुलिस अत्याचार के सबसे ज्यादा वाकये दूरदराज के इलाकों, छोटे कस्बों और गांवों में होते हैं, जहां लोगों को कानूनी प्रक्रियाओं की बुनियादी जानकारी तक नहीं होती और न ही उनके पास किसी ताकतवर पुलिस अधिकारी के खिलाफ दृढ़तापूर्वक मुकदमा लड़ पाने के लिए धन या दूसरे संसाधन होते हैं। दलित महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराधों के मामलों में यह हकीकत खासतौर से देखी जा सकती है। हाल ही में हरियाणा के जींद में एक बीस साल की दलित लड़की के बलात्कारी और हत्यारे को केवल इसलिए नहीं पकड़ा जा सका, क्योंकि जब तक पुलिस उसकी तलाश के लिए राजी हुई, तब तक उस लड़की शव बुरी तरह से सड़ चुका था और प्रथम शव-परीक्षण में तो उसका गर्भाशय ही गायब कर दिया गया था।
देह-व्यापार विरोधी संगठन ‘अपने आप’ की संस्थापक के रूप में अपने काम के दौरान मुझे यह बार-बार देखने को मिला है कि पुलिस को चुनौती देने और यहां तक कि बच्चों के विरुद्ध होने वाले अपराधों के मामले में भी उन्हें जिम्मेवार ठहराने में कितनी कठिनाइयां सामने आती हैं। बीस सालों के दौरान मैंने कई बार मुंबई, दिल्ली, कोलकाता और बिहार के रेडलाइट एरिया में गश्त कर रहे पुलिस अधिकारियों से देह-व्यापारियों को गिरफ्तार करवाने और खरीद कर लाई गई महिलाओं और लड़कियों को संरक्षण दिलवाने का प्रयास किया है। लेकिन सच यह है कि उन्होंने हर बार इसके बिल्कुल उलट काम किया है। यानी उन्होंने देह-व्यापारियों को संरक्षण दिया है और उलटे औरतों को ही गिरफ्तार किया।
सन 1861 के औपनिवेशिक पुलिस अधिनियम में सुधार के लिए पद्मनाभैया आयोग से लेकर सोली सोराबजी समिति तक कई आयोग बनाए गए, कई समितियों का गठन हुआ। पिछले साल दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार कांड के बाद गठित न्यायमूर्ति जेएस वर्मा समिति ने बलात्कार के मामलों के मद््देनजर पुलिस और न्यायपालिका की कार्य-प्रणाली में सुधार की सिफारिश की। हालांकि सजा की गंभीरता की दृष्टि से कानून को सख्त बना दिया गया है, लेकिन पुलिस और न्याय-प्रणाली में सुधार का तकाजा अब भी जहां का तहां है।
पुलिस और न्यायपालिका के बीच एक विचित्र तरह की समझदारी या तालमेल के चलते दंड नहीं दिए जाने की प्रवृत्ति जन्म लेती है और फलस्वरूप भारत में बलात्कार की संस्कृति फल-फूल रही है। यह बेवजह नहीं है कि कड़े कानून होने के बावजूद स्त्रियों के खिलाफ यौनहिंसा की घटनाएं बदस्तूर जारी हैं। कुछ समय पहले पश्चिम बंगाल के एक गांव में एक महिला से उसके घर में उसके बच्चों के सामने ही बलात्कार किया गया। ऐसे मामले रोजाना सामने आ रहे हैं। उनमें से कुछ को मुख्यधारा के मीडिया में जगह मिल जाती है और बाकी दबे या अनसुने रह जाते हैं। बहरहाल, एक तरीका है जो बलात्कार के मामलों में कमी लाने की दिशा में कारगर साबित हो सकता है और वह है पुलिस बल में व्यापक सुधार। इसके तहत यह भी व्यवस्था हो कि अधीनस्थ अधिकारी द्वारा किए गए अपराध के मामले में उसके खिलाफ कार्रवाई न किए जाने की सूरत में उसके वरिष्ठ अधिकारी को भी उस अपराध में सहभागी मान कर उसे भी कठघरे में खड़ा किया जाए।
बहरहाल, महिला आंदोलनों से जुड़े लोगों में अधिकतर सजा-ए-मौत के खिलाफ हैं। क्योंकि हम नहीं मानते कि सजा की कठोरता बलात्कारी को बलात्कार करने से रोक सकती है। बल्कि समय से और निश्चित तौर पर सजा मिलने का डर ही इस अपराध पर काबू पाने में अधिक कारगर साबित होगा। पुलिस महकमे और न्यायपालिका में सुधार के बगैर, बलात्कारियों को समय से सजा मिलना अपवादस्वरूप ही हो पाएगा, जैसा कि सोलह दिसंबर के मामले में हुआ।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/51808-2013-09-18-04-00-25


Related Articles

 

Write Comments

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

Video Archives

Archives

share on Facebook
Twitter
RSS
Feedback
Read Later

Contact Form

Please enter security code
      Close