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न्यूज क्लिपिंग्स् | न्याय की नई मरीचिका- विकास नारायण राय

न्याय की नई मरीचिका- विकास नारायण राय

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published Published on Nov 13, 2013   modified Modified on Nov 13, 2013
जनसत्ता 7 नवंबर, 2013 : स्त्रियों के उत्पीड़न का एक और क्षेत्र कानून की गिरफ्त में आने को है। पुरुष वर्चस्व के नजरिए से बेहद नाजुक ‘इज्जत’ के नाम पर होने वाली हत्या का मसला फिलहाल उच्चतम न्यायालय के रडार पर है। अगर यौनिक हिंसा, लैंगिक उत्पीड़न का सर्वाधिक अपमानजनक रूप रही है तो ‘इज्जत’ हत्याएं इसका सर्वाधिक बर्बर रूप होती हैं। इसी तरह, घरेलू हिंसा में स्त्री का दासत्व और संपदा और शिक्षा जैसी वंचनाओं में उसका शोषण मुखरित होता आया है। स्थिति में बुनियादी बदलाव के लिए जरूरी था कि इन क्षेत्रों में बने तमाम लैंगिक कानून स्त्री के सशक्तीकरण का माध्यम सिद्ध होते। पर स्त्री को अधिकार-संपन्न बनाने के बजाय इन कानूनों का जोर राज्य के प्राधिकार को मजबूत करने पर रहा है।

अगर ‘इज्जत’ की खातिर होने वाली हत्याओं से निपटने के नाम पर ऐसी ही रूपरेखा वाले विशेष कानूनी प्रावधान कर भी दिए जाएं तो उनके परिणाम जब-तब सुर्खियां बटोरने वाले कन्या-भ्रूण हत्या की रोकथाम के कानूनों से भिन्न क्या ही होंगे? पर इसका मतलब यह नहीं कि इन हत्याओं से जुड़े मामलों को न्याय की मंजिल तक पहुंचाने का दुष्कर कार्य सामान्य कानूनों- भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम- के बूते की बात है, जैसा कि प्राय: सरकारी रवैया जताता रहा है। व्यवहार में तो सामान्य कानूनी प्रक्रियाएं इन ‘समाज-सम्मत’ जघन्य मामलों में हत्यारों और उनके सहयोगियों के लिए अभयदान के रास्ते ही खोलती आई हैं। दरअसल, स्त्री-कानूनों को फायर ब्रिगेडी या पोस्ट-माटर्मी भूमिका के जिस दायरे में अब तक रखा गया है, उसे तोड़ने की जरूरत है।

विशेष महिला कानूनों की अपनी एक विकट दुनिया है। इन्हें बनाना कठिन है और निभाना कहीं ज्यादा जटिल। एक ओर, भागीरथ-प्रयत्नों और लंबी प्रतीक्षा के बाद बने ये कानून महिलाओं को समय पर वांछित राहत नहीं दे पा रहे हैं, और दूसरी ओर, इनके दुरुपयोग के आरोप भी लगते हैं। बजाय महिला सशक्तीकरण का वातावरण बनाने के, जो इन कानूनों का घोषित लक्ष्य होता है, इनके क्रियान्वयन पर तिकड़मबाजी का मकड़जाल हावी हो जाता है। स्त्री-विरोधी हिंसा के विभिन्न आयामों पर टुकड़ों-टुकड़ों में एकांगी कानूनों के बनने से ही ऐसा हुआ है। यानी सभी के लिए इसमें सबक है। सतह पर आए उत्पीड़नों के विरुद्ध गुहार लगाने के विशेष कानूनी मंच बना देना ही काफी नहीं है। दरअसल, रोजमर्रा की हिंसा से जूझ रही स्त्री को उसके उत्पीड़न की जड़ों को खोदने वाली समग्र संहिता की अब भी प्रतीक्षा है।

स्त्री-विरोधी हिंसा को लेकर भारतीय समाज में सजग प्रतिरोध की निरंतर मुहिम की परंपरा रही है। इस दिशा में देश के राज्यतंत्र की लोकतांत्रिक गतिकी की भी, बेशक बेहद धीमी रफ्तार से सही, तमाम तरह की स्वाभाविक पहलें गिनाई जा सकती हैं। फलस्वरूप, महिला उत्पीड़न के विभिन्न रूपों पर एक के बाद एक कानून बनते गए हैं- दहेज निषेध, बाल-विवाह निषेध, भ्रूण-हत्या निषेध, विरूपित चित्रण का निषेध, मानव तस्करी पर रोक, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की रोकथाम, घरेलू हिंसा की रोकथाम, संपत्ति का उत्तराधिकार, स्थानीय शासन में तैंतीस फीसद का संवैधानिक आरक्षण, इनमें प्रमुख हैं। साथ ही, उच्च न्यायालयों ने रोजगार में बराबरी, लिव-इन संबंध, तलाक, खर्चे आदि संवेदी क्षेत्रों में स्त्री-परक रुख पर ही जोर रखा है।

इसी कड़ी में, जून 2010 से उच्चतम न्यायालय में देश के विभिन्न हिस्सों में हो रही ‘इज्जत’ हत्याओं पर एक अलग कानून बनाने की याचिका विचाराधीन है। न्याय का यह उपेक्षित क्षेत्र विधिक पहल के मामले में लगभग अछूता रहा है, हालांकि संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार विश्व में हर वर्ष होने वाली करीब पांच हजार ‘इज्जत’ हत्याओं में एक हजार भारत में (इतनी ही पाकिस्तान में भी) होती हैं।

खुद को सांस्कृतिक खलीफा कहलाने वाले हमारे देश में ‘इज्जत’ के नाम पर पुरुष वर्चस्व के आतंक के चलते युवा लड़कियों में आत्महत्या की घटनाओं की भी कमी नहीं है। ऐसे प्रकरणों के दौरान ‘विद्रोही’ लड़की को कुनबे द्वारा तरह-तरह से शारीरिक और मानसिक हिंसा पहुंचाना और बाहरी दुनिया से काट कर घर में सीमित कर देना या उसकी जबर्दस्ती शादी कर देना तो और भी आम है।

उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘इज्जत हत्याओं’ पर याचिका विचारार्थ स्वीकार किए जाने के तुरंत बाद अगस्त 2010 में राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस विषय पर एक विधेयक का सुझाव देने के लिए दमदार मसविदा तैयार किया था। विधि आयोग ने भी अगस्त 2012 में अपनी नवीनतम रिपोर्ट, एक अन्य मसविदे के साथ, केंद्र सरकार को भेजी। काफी अरसे से, विशेषकर हरियाणा में, स्त्री-मुद्दों पर सक्रिय नागरिक संगठनों की राय रही है कि ‘इज्जत’ के नाम पर हो रही बेटियों की हत्याओं को रोकने के लिए विशेष तरह के कानून बनाए जाएं; क्योंकि ऐसी हत्याएं तमाम दूसरी हत्याओं से अलग किस्म की होती हैं, और सामान्य कानूनी प्रावधान इन समाज-सम्मत जघन्य अपराधों में न्याय नहीं कर पा रहे हैं।

उच्चतम न्यायालय के समक्ष केंद्र सरकार ने महिला आयोग के मसविदे में सुझाए गए विशेष कानून के बजाय, हालांकि लगभग उसी तर्ज पर, मौजूदा कानूनों और प्रक्रियाओं में ही संशोधन कर कड़े प्रावधानों को लाने की बात रखी है। हरियाणा सरकार ने पहले शपथपत्र में तो केंद्र की हां में हां मिलाई और फिर खापों के दबाव

में पलटी खाकर नए शपथपत्र में घोर यथास्थितिवादी मुद्रा अपना ली।

अब उसका कहना है कि ‘इज्जत’ हत्याओं से हत्या के सामान्य कानूनों से ही निबटा जाना चाहिए। पर राज्य सरकार के पास इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब नहीं है कि इन मामलों में सजा की दर इतनी कम क्यों है? स्वयं मुख्यमंत्री हुड््डा अपने गृहनगर रोहतक की हालिया ‘इज्जत’ हत्याओं के संदर्भ में सार्वजनिक रूप से कहते रहे हैं कि मौजूदा कानून ही काफी हैं। वे अकेले नहीं हैं; हरियाणा में हर प्रमुख राजनीतिक का यही सुर सार्वजनिक रूप से सुनने को मिलेगा।

विधि आयोग की रिपोर्ट तकनीकी और उलझाऊ ज्यादा है, उत्पीड़ितों के मतलब की कम। आयोग ने अपनी प्रस्तावना में ‘इज्जत’ हिंसा का हृदय विदारक चित्रण करने के बाद, तकनीकी-विधिक लीपापोती के आधार पर, महिला आयोग द्वारा सुझाए कानूनी परिवर्तनों को अनावश्यक करार दिया है। उनके मसविदा विधेयक का एकमात्र जोर खापों की प्रत्यक्ष उकसाने वाली भूमिका को दंड की परिधि में लाने पर है, वह भी खापों की पुरुष वर्चस्व की इस्पाती बुनियादों को बिना हिलाए। उनके विधेयक में सगोत्र विवाह जैसे मसलों पर खापों को शिक्षित करने की बात भी इसी मासूमियत के तहत की गई है कि अगर खापों की फतवे वाली बैठकें दंडनीय कर दी जाएं तो ‘इज्जत’ हत्याएं नहीं होंगी।

राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपने प्रस्ताव-विधेयक में जहां स्वयं को निर्दोष साबित करने का जिम्मा आरोपियों के खाते में रखा था, जिसे केंद्र सरकार ने भी माना है, वहीं विधि आयोग ने इसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विपरीत बता कर केवल खाप बैठकों में शरीक होने वालों के विरुद्ध पूर्वानुमान की बात कही है।

जाहिर है, चाहे नए नाम से या नए प्रावधानों को शामिल कर, देर-सबेर अलग से खाप संबंधी कानून बनेंगे ही। पर क्या इनका हश्र भी घरेलू हिंसा की रोकथाम या कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न रोकने वाले एकांगी कानूनों जैसा नहीं होगा- पीड़ित को सीमित दायरे में उलझाने में, न कि समग्र राहत दे पाने में! उच्चतम न्यायालय की पहल से, स्त्रियों पर तेजाबी हमलों के मद्देनजर बाजार में तेजाब की उपलब्धता और बिक्री को नियंत्रित करने के उपायों पर केंद्र सरकार विचार कर रही है।

पुरुष की स्त्री पर अपनी मनमानी थोपने के इस बर्बरतम तरीके पर यह तकनीकी लगाम, अंतत: एक दूर की कौड़ी ही सिद्ध होगी। आज स्त्री को पैतृक और ससुराली संपत्ति में हिस्सा दिलाने वाले कानूनों की भी कमी नहीं है; पर हिस्सा पाने या मांगने का अवसर कितनों को मिल पाता है, हिस्सा मिलता कितनों को है और वह भी किस कीमत पर!

लैंगिक कानूनों की यही त्रासदी चलती आ रही है। दशकों की जद््दोजहद के बाद इन कानूनों का जो स्वरूप सामने आता है वह स्त्री की विवशता और कमजोरी को तो विशद रूप से चिह्नित करता है, पर उसके लिए सशक्तीकरण के सहज रास्ते नहीं खोल पाता। इन कानूनों में स्त्री उत्पीड़न की व्यापकता और भयावहता को टुकड़ों में बांट कर देखने से स्त्री-विरुद्ध हिंसा की समग्रता ओझल रहती है। लिहाजा इन विधिक उपायों में उत्पीड़न की अंतर्वस्तु की अनदेखी होती है। अनेक एकांगी कानूनों के माध्यम से होने वाला, राज्य का, स्त्री का नहीं, ऐसा बहुमंचीय दखल स्त्री की अपनी प्रतिरोधक ऊर्जा को भी बांटता ही है।

इस बुनियादी खोट के चलते स्त्री को, तमाम संघर्षों के बावजूद, लैंगिक कानूनों से मिलने वाला न्याय एक सतही कवायद बना हुआ है। मसलन, ‘इज्जत’ की ही तरह ‘संपत्ति’ को लेकर बेटियों, बहनों, पत्नियों की हत्या के मामले भी हैं, पर उन्हें लैंगिक जघन्यताओं में शामिल ही नहीं किया जाता। इन हत्याओं को क्या कानून-व्यवस्था के पहरुए, क्या अदालतें, क्या मीडिया और नागरिक समाज, सभी सामान्यत: होने वाली हत्याओं की श्रेणी में ही रखते हैं। जबकि ‘इज्जत’ की ही तरह ‘संपत्ति’ के मसले पर भी मर्द का लैंगिक नजरिया ही हावी होता है।

जाहिर है, लैंगिक कानूनों के वर्तमान एकांगी स्वरूप, पुरुष वर्चस्व का स्त्री शोषण से अंतर्संबंध प्रतिबिंबित कर ही नहीं सकते- न अपराध को चिह्नित करने में और न दंड के निर्धारण में। क्योंकि उत्पीड़न के किसी एक सतही स्वरूप पर केंद्रित ये कानून स्त्री की असहायता को कम नहीं करते; ये स्त्री को संवेदनहीन राज्य के रहमो-करम पर रखते हैं और मुंह की खाते हैं। अंतत: यह सारी कवायद आपराधिक आंकड़ों के संसार का हिस्सा बन कर रह जाती है। लिहाजा, ‘अपनों’ के भावनात्मक भयादोहन और कानूनी प्रक्रियाओं की भूलभुलैया के सामने नतमस्तक रहना ही स्त्री की सामान्य नियति बनी हुई है।

भविष्य में साकार होने वाले एकांगी खाप कानून भी उसकी इसी नियति को मजबूत करने जा रहे हैं, जिसमें उदासीन राजनीतिकों और खानापूर्ति में लगी कानून-व्यवस्था की मशीनरी पर हत्यारों को उपलब्ध चोर दरवाजे बंद करने का दबाव नदारद होगा। इससे कहीं बेहतर मॉडल हो सकते हैं, 2005 का ‘सूचना का अधिकार’ और 2006 का ‘वन अधिकार अधिनियम’, जिनमें कम से कम उत्पीड़ितों के अधिकार और राज्य के प्राधिकार के बीच एक बेहतर संतुलन तो नजर आता है।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/54276-2013-11-07-04-37-46


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