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न्यूज क्लिपिंग्स् | न्याय की वेदी पर खंड-खंड पाखंड - भवदीप कांग

न्याय की वेदी पर खंड-खंड पाखंड - भवदीप कांग

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published Published on May 1, 2018   modified Modified on May 1, 2018
अपने आश्रम में एक नाबालिग से दुष्कर्म के मामले में आसाराम को जोधपुर कोर्ट ने उम्रकैद की सजा सुना दी है। यह वही आसाराम है, जिसका कभी बड़ा रसूख हुआ करता था। अपने इसी रसूख के दम पर उसने एक बार यहां तक कि गुजरात की तत्कालीन मोदी सरकार को गिराने की धमकी भी दे डाली थी। यूं देखा जाए तो राजनीतिक प्रश्रय की वजह से ही कथावाचक आसाराम के साम्राज्य का इतना विस्तार हुआ था। जब आसाराम की कारगुजारियों की भनक लगने के बाद गुजरात की तत्कालीन मोदी सरकार ने उसे समर्थन देना बंद कर दिया, तो उसके इस साम्राज्य का भी पतन शुरू हो गया।

गौरतलब है कि भाजपा के कई नेता भी आसाराम के अनुयायी रहे हैं और वर्ष 2013 में जब नाबालिग से दुष्कर्म के आरोप में उसे गिरफ्तार किया गया था, तो उमा भारती व प्रभात झा जैसे इसके कई नेता खुलकर उसके बचाव में उतर आए थे, जिन्हें ऐसा करने पर बाद में चेताया भी गया था। जब प्रभात झा ने यह कहा कि आसाराम को कांग्रेस ने साजिश के तहत फंसाया है, तो यह मोदी ही थे, जिन्होंने इसके खिलाफ भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह के समक्ष शिकायत की थी।


इस तथाकथित बाबा का साम्राज्य वर्ष 2008 से ही डगमगाने लगा था, जब गुजरात के मोटेरा में स्थित उसके आश्रम से दो बालकों के गुम होने की खबर आई थी। यह वही जगह थी, जहां से आसाराम ने तीन दशक पहले बाबा के रूप में अपना कॅरियर शुरू किया था। इस घटना के बारे में पता चलते ही गुजरात की मोदी सरकार ने बगैर वक्त गंवाए मामले की पड़ताल के लिए सेवानिवृत्त जज डीके त्रिवेदी की अगुआई में एक जांच आयोग का गठन कर दिया। उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक मोदी (जो कभी आसाराम की सार्वजनिक तौर पर तारीफ कर चुके थे) के मन में भी इस तथाकथित बाबा की गैरकानूनी गतिविधियों को लेकर संदेह गहराने लगा था। यहां तक कि उन्होंने विश्व हिंदू परिषद (जिसका नेतृत्व तब अशोक सिंहल संभाल रहे थे) को भी आगाह किया था कि किसी सार्वजनिक मंच से आसाराम का समर्थन न करें। मोदी इस बाबा के पुत्र नारायण साई को लेकर खासतौर पर सशंकित थे, जो कि बाद में अपने पिता की तरह दुष्कर्म के आरोप में गिरफ्तार भी किया गया।


भाजपा में मौजूद आसाराम के समर्थकों ने मोदी और बाबा के बीच पैच-अप की कोशिशें भी कीं, लेकिन मोदी ने साफ कर दिया कि वे उसकी किसी भी तरह की मदद नहीं कर सकते और जोर दिया कि कानून अपना काम करेगा। जांचकर्ताओं को पूरी आजादी दी गई। संघ के एक विचारक ने यह एहसास करते हुए कि समझौते की कोई संभावना नहीं है, आसाराम को यह सलाह भी दी कि वो गुजरात से अपना बोरिया-बिस्तर समेट ले और हिमालय की ओर आध्यात्मिक यात्रा पर निकल जाए।


जांच-पड़ताल के दौरान बाबा के खिलाफ शव के साथ तांत्रिक क्रियाएं व काला जादू करने के अलावा वित्तीय धांधलियों के मामले भी सामने आए। इससे उसकी बाबा की छवि को आघात लगा। उसी दौरान आसाराम के छिंदवाड़ा में बने एक आश्रम में दो बच्चों के मारे जाने का मामला भी प्रकाश में आया। हालांकि उस मामले में एक सीनियर छात्र पर हत्या का आरोप लगा, लेकिन इसके चलते बाबा की छवि और मटियामेट हो गई। इसी बीच गुजरात सरकार ने आसाराम के आश्रम और उसके परिवार के नियंत्रण वाले कई भूखंडों को जब्त कर लिया।


आसाराम का यह केस बाबाओं और राजनेताओं के मध्य साठ-गांठ का एक बढ़िया उदाहरण है। अपनी इस साठ-गांठ के जरिए दोनों ही एक-दूसरे को फायदा पहुंचाते हैं। 1980 के दशक से बाबाओं को राजनीतिक संरक्षण मिलना शुरू हुआ। पहले कांग्रेस ने बाबाओं को संरक्षण दिया और फिर भाजपा भी इसी राह पर चल पड़ी। इसके पीछे कारण यही है कि इन बाबाओं के पास वंचित तबकों के रूप में अनुयायियों की भारी फौज होती है। इसके अलावा वे अपने टीवी प्रवचनों के जरिए मध्य वर्ग तक भी पहुंच रखते हैं। आसाराम को अपने आश्रमों व गुरुकुल के लिए गुजरात व मध्य प्रदेश में मुफ्त में खूब जमीनें मिलीं और दोनों ही राज्यों के राजनेताओं का उसे भरपूर समर्थन मिला। जमीन हड़पने के अनेक मामलों की जांच कर रही गंभीर कपट अन्वेषण कार्यालय (एसएफआईओ) जैसी एजेंसियों के मुताबिक आसाराम की कुल संपत्ति (जमीन, शेयरों, डिवेंचर्स आदि के रूप में) 10,000 करोड़ रुपए तक हो सकती है।


राजनेताओं के लिए कोई आध्यात्मिक गुरु एक बेशकीमती साथी होता है, क्योंकि वह उन्हें एक तरह की राजनीतिक बढ़त दिलाता है, कम से कम ऐसे मतदाताओं की नजरों में तो निश्चित ही, जो किसी नास्तिक के बजाय भगवान में आस्था रखने वाले राजनेता को तरजीह देते हैं। आज के इस दौर में जब समाज के भीतर धार्मिक भावनाओं का ज्वार बढ़ रहा है, किसी गुरु का समर्थन या आशीर्वाद पाना राजनेताओं के लिए एक तरह की जरूरत बन गया है। मिसाल के तौर पर कर्नाटक को ही लें, जहां इस चुनावी मौसम में सभी प्रमुख पार्टियों के नेता मठों में मत्था टेकने जा रहे हैं।


लेकिन जब बाबा की आध्यात्मिकता या विश्वसनीयता सवालों के घेरे में आ जाती है, तो फिर उनका कोई मोल नहीं रह जाता। बल्कि वे बोझ बन जाते हैं। भले ही बाबा के कुख्यात हो जाने बावजूद ढेरों अनुयायी बने रहें, जैसा कि हम आसाराम और गुरमीत राम रहीम के मामले में देखते भी हैं, लेकिन राजनेता खुलकर उनका समर्थन करने का जोखिम नहीं उठा सकते, क्योंकि इससे उन्हें अपने दूसरे मतदाता वर्गों के नाराज होने का डर रहता है। ऐसे में वे किसी और गुरु के पास जाना ज्यादा पसंद करते हैं।


सच तो यह है कि ज्यादातर राजनेता बाबाओं में गहरी आस्था रखते हैं। किसी भी चुनाव से पहले वे अंधविश्वासी और धर्म-कर्म करने वाले हो जाते हैं। वे न सिर्फ अपने गुरु के पास जाकर मत्था टेकते हुए उनका आशीष लेते हैं, बल्कि दूसरे गुरुओं और ज्योतिषियों के पास भी जाते हैं और अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए यज्ञ-हवन आदि भी करते हैं।

अपने राजनीतिक संपर्कों की वजह से ही फर्जी बाबा यौन दुराचार, जमीन हड़पने, कर चोरी या अन्य अवैध गतिविधियों में लिप्त होने के बावजूद खुद को सुरक्षित समझते हैं। इस तरह इन बाबाओं का आभामंडल ज्यादातर उनके राजनीतिक नेटवर्क पर भी निर्भर करता है, जिससे उनकी राज्य की सत्ता तक पहुंच बनती है। इसी वजह से बाबा रामपाल, राम रहीम, नित्यानंद स्वामी आदि कई सालों तक कानून की गिरफ्त से बचे रहे।


इन बाबाओं की गलत हरकतों के शिकार लोग बमुश्किल ही इनके खिलाफ बोलने का साहस कर पाते हैं। उन्हें डर होता है कि बाबा के अनुयायी उन्हें प्रताड़ित कर सकते हैं, जबकि कानून प्रवर्तन एजेंसियां भी मुंह फेर सकती हैं। कभीकभार जब कोई पीड़िता शिकायत भी करती है, तो उसके परिजनों द्वारा ही मामले को दबाने की कोशिश की जाती है। यदि वे उसका समर्थन कर भी दें तो पुलिस से मदद नहीं मिलती।


दिलचस्प ढंग से वर्ष 2012 में हुए निर्भया कांड के बाद आसाराम ने कहा था कि दुष्कर्मियों के साथ-साथ पीड़िता भी दोषी है और ताली एक हाथ से नहीं बजती। हालांकि बाद में आसाराम अपने इस वक्तव्य से मुकर गया, लेकिन तब शायद उसे पता नहीं था कि एक साल के भीतर ही वह भी दुष्कर्म के मामले में जेल की सलाखों के पीछे पहुंचने वाला है।


बहरहाल, यह तो साफ है कि जब ऐसे ढोंगी बाबाओं के ऊपर से राजनीतिक वर्ग का सुरक्षा कवच हटता है, तभी वे आपराधिक न्याय तंत्र के घेरे में आते हैं। जैसा कि आसुमल सिरुमलानी उर्फ आसाराम बापू के मामले में भी हुआ।


(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)


https://naidunia.jagran.com/editorial/expert-comment-hypocrisy-is-shattered-on-the-doorstep-of-judiciary-1687531?utm_source=naidunia&utm_medium=navigation


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