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न्यूज क्लिपिंग्स् | न्यायिक स्वतंत्रता को खतरा- एम के वेणु

न्यायिक स्वतंत्रता को खतरा- एम के वेणु

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published Published on Aug 25, 2014   modified Modified on Aug 25, 2014
राज्य के नीति-निर्देशक तत्व के अनुच्छेद 50 में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग रखने का निर्देश दिया गया है, ताकि उसकी स्वतंत्रता बनी रहे, जो संविधान के रखवाले की उसकी भूमिका के लिए आवश्यक है। अलबत्ता राज्य के हर अंग और लोकतंत्र के प्रत्येक सार्वजनिक पदाधिकारी की तरह न्यायपालिका भी एक संस्थान है और हर न्यायाधीश सार्वजनिक पदाधिकारी, जो राजनीतिक संप्रभुता-यानी जनता के प्रति जवाबदेह होता है। फर्क सिर्फ जवाबदेही लागू करने की प्रक्रिया के स्वरूप या प्रकृति का है। संक्षेप में, न्यायिक जवाबदेही न्यायपालिका की स्वतंत्रता का एक पहलू है; और न्यायिक जवाबदेही लागू करने की प्रक्रिया को अनिवार्यतः न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए।

कुछ साल पहले न्यायिक जवाबदेही पर भाषण देते हुए न्यायमूर्ति स्वर्गीय जे एस वर्मा ने हमें इन शब्दों के साथ सावधान किया था। न्यायमूर्ति वर्मा के तर्क का सार यह था कि न्यायिक जवाबदेही लागू करने की प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहे। लेकिन उच्चतर न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति का एक नया तंत्र बनाने की जल्दबाजी में एनडीए सरकार ने न्यायमूर्ति वर्मा की सीख की अनदेखी कर दी है, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता बाधित हो सकती है।

कई शीर्ष विधिवेत्ताओं का मानना है कि उच्चतर न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति के नए कानून से, जिसे संसद ने हाल ही में पारित किया है, न्यायपालिका की स्वायत्तता संकट में पड़ेगी। साथ ही, यह कानून राजनीतिक वर्ग को अपनी पसंद के जजों की नियुक्ति का अधिकार भी देगा। अब तक उच्चतर न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति के लिए सर्वोच्च न्यायालय के पांच जजों का एक कॉलेजियम काम करता था। सरकार के पास इस कॉलेजियम की सिफारिशों को खारिज करने का अधिकार नहीं था।

लेकिन नए कानून के तहत उच्चतर न्यायपालिका के जजों के नाम की सिफारिश छह सदस्यों की एक कमेटी करेगी, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के सिर्फ तीन जज होंगे। शेष तीन सदस्यों में एक कानून मंत्री होंगे और शेष दो अपने क्षेत्र के चर्चित लोग, जिनका चुनाव प्रधान न्यायाधीश, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता मिलकर करेंगे। इसमें खतरे की बात यह है कि कानून मंत्री एक और सदस्य के साथ मिलकर किसी सिफारिश पर वीटो कर सकते हैं। इस तरह नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की शक्ति में कटौती की गई है और कार्यपालिका की ताकत में बढ़ोतरी। उच्चतर न्यायपालिका के लिए यह अच्छी बात नहीं है।

अगर आप लोगों से पूछें कि जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में आप सुप्रीम कोर्ट पर ज्यादा भरोसा करेंगे या राजनीतिक वर्ग पर, तो जवाब सर्वोच्च न्यायालय के पक्ष में होगा। यही पूरी बहस का मूल मुद्दा है। जिस कॉलेजियम व्यवस्था के तहत अब तक जजों की नियुक्तियां होती रही हैं, उस व्यवस्था में कमियां हो सकती हैं। पर राजनेताओं द्वारा जजों की नियुक्ति प्रक्रिया से वह बहुत अच्छी थी। जाहिर है, एनडीए सरकार ने बेहद चालाकी से कॉलेजियम व्यवस्था की खामियों को दुरुस्त करने से संबंधित बहस का लाभ उठाया और न्यायिक स्वतंत्रता को बाधित करने वाला नया कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट पर बढ़त बनाने का काम किया।

खोखले तर्कों के आधार पर गोपाल सुब्रह्मण्यम की सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति को चुनौती देकर मोदी सरकार ने शुरुआत से ही मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाने की कोशिश की। जबकि गोपाल सुब्रह्मण्यम से खुद मुख्य न्यायाधीश ने शीर्ष अदालत का जज बनने की पेशकश की थी। बाद में सरकार को अप्रत्याशित क्षेत्र से समर्थन मिला। मसलन, न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू जैसे सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जजों ने कॉलेजियम व्यवस्था की खामियों का खुलासा किया। क्या वह मानते हैं कि उच्चतर न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति करते हुए राजनीतिक वर्ग बेहतर फैसले लेगा?

फली एस नरीमन जैसे सम्मानीय विधिवेत्ता ने जजों की नियुक्ति के नए कानून की सांविधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की शुरुआत भी कर दी है। नरीमन, जिनसे कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने विधेयक बनाते समय सुझाव लिए थे, नए कानून को कई मामलों में त्रुटिपूर्ण बताते हैं। वह जजों की नियुक्ति के लिए बनाई गई कमेटी से खुश नहीं हैं, जिसके छह सदस्यों में सुप्रीम कोर्ट के सिर्फ तीन सदस्य होंगे।

दरअसल कमेटी के किन्हीं दो सदस्यों द्वारा बहुमत की सिफारिश को वीटो के जरिये खारिज करने का प्रावधान राजनेताओं का वर्चस्व ही स्थापित करेगा। नरीमन कॉलेजियम व्यवस्था में पारदर्शिता लाकर इसकी खामियों को दूर करने की बात कहते आए हैं, साथ ही, उनका इस पर भी जोर रहा है कि जजों को नियुक्त करने की कमेटी में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का बहुमत होना चाहिए। लेकिन एनडीए सरकार द्वारा प्रस्तावित कमेटी के कुल सदस्यों में सुप्रीम कोर्ट के जजों की हिस्सेदारी आधी ही होगी।

नरीमन ने कानून के उस प्रावधान पर भी चिंता जताई है, जिसमें कमेटी के दो नामचीन लोगों का चयन प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष और प्रधान न्यायाधीश का समूह करेगा। उनकी टिप्पणी थी, नामचीन लोगों का चयन राजनीतिक क्षेत्र में होता है। इसके अलावा नामचीन व्यक्ति गहरे राजनीतिक, वैचारिक आग्रहों से संचालित हो सकता है। यह भी तय नहीं किया गया है कि किस आधार पर दो नामचीन व्यक्तियों का चयन होगा।

नरीमन ने इसका खुलासा किया है कि उनसे परामर्श लेने आए कानून मंत्री ने विधेयक के आखिरी मसौदे के कुछ प्रावधानों के बारे में उनसे चर्चा तक नहीं की। ऐसा लगता है कि कानून मंत्री को तब इसके बारे में कुछ पता नहीं था और ये प्रावधान बाद में जोड़े गए हो सकते हैं। ऐसे में, शीर्ष अदालत में इस कानून को चुनौती देना स्वाभाविक ही है। खुद एनडीए सरकार द्वारा पैदा किए गए इस विवाद में कोई अनुमान ही लगा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट क्या करेगा।


http://www.amarujala.com/news/samachar/reflections/columns/threat-to-judicial-independence-hindi/


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