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न्यूज क्लिपिंग्स् | पदयात्रा, पंचायत और पैंतरेबाजी- (रिपोर्ट अतुल चौरसिया, तहलका)

पदयात्रा, पंचायत और पैंतरेबाजी- (रिपोर्ट अतुल चौरसिया, तहलका)

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published Published on Jul 20, 2011   modified Modified on Jul 20, 2011
कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की हालिया पदयात्रा का एक मकसद साफ है, यह किसानों के हितों से ज्यादा चुनावी हितों को समर्पित थी. लेकिन राजनीति के ऐसे दौर में जब नेता गाड़ियों-बंगलों के बाहर झांकना ही नहीं चाहते, क्या उनकी यात्रा को सिर्फ अवसरवादी कहकर नकार दिया जाए? अतुल चौरसिया की रिपोर्ट

पदयात्राएं और रथयात्राएं बहुत उत्पादक होती हैं. चुनावी शुभ-लाभ के लिहाज से. अतीत इसका दस्तावेज है. जिन लोगों ने इस तरह के आयोजन किए उनमें से ज्यादातर लोगों को कालांतर में सत्ता सुख नसीब हुआ. चंद्रशेखर ने 1983 में भारत यात्रा की तो उन्हें आठ साल के भीतर ही प्रधानमंत्री की कुर्सी नसीब हुई, आडवाणी ने 1990 में रथयात्रा निकाली, बताने की जरूरत नहीं कि भाजपा और उन्हें इसका कितना लाभ हुआ. हालिया उदाहरण है स्वर्गीय वाईएसआर रेड्डी के पुत्र जगन मोहन की ओडारपू यात्रा का जिसका नतीजा कुछ महीनों में ही साढ़े पांच लाख के अंतर से उनकी चुनावी जीत के रूप में सामने आया. इस लिहाज से राहुल की पदयात्रा दो दशक से ज्यादा समय से उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस के लिए उम्मीद का प्रकाश स्तंभ जैसी है. इन दो दशकों में कांग्रेस जिस हालत में पहुंच चुकी है उसमें उसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं और पाने के लिए उत्तर प्रदेश का सिंहासन है. ऐसे में गांधीजी की दांडी यात्रा जैसे किसी चमत्कार के जरिए वह इस सिंहासन पर कब्जा जमाने की जुगत में लगी हुई है.

चार दिन तक भट्टा पारसौल से लेकर यमुना एक्सप्रेसवे से लगते हुए गांवों की पदयात्रा करने के बाद अलीगढ़ में किसानों की 'महापंचायत' लगा कर राहुल गांधी ने अपनी यात्रा का समापन किया. मगर इस 'महापंचायत' का चाल-चरित्र और चेहरा देखने के बाद एक बच्चा भी कह सकता था कि अलीगढ़ में राहुल ने कोई महापंचायत तो दूर पंचायत या चौपाल भी नहीं लगाई थी. यह शुद्ध सात्विक चुनावी रैली थी जिसमें आधे से अधिक कांग्रेसी वक्ताओं के साथ बोलने का मौका पाए कुछ किसानों ने भी मंच से हाथ के पंजे पर मुहर लगाने और बटन दबाने की अपीलें जारी कीं. भट्टा पारसौल के किसान जसवीर सिंह की बात सुनिए, 'राहुल ने हमारे गांव को बर्बाद होने से बचा लिया. रीता जी ने मेरी बेटियों की शादी करवाई. आप सभी लोग अगले चुनाव में हाथ के पंजे पर मुहर लगाना भूलिएगा मत.'

उत्तर प्रदेश में चुनावी बिसात बिछ चुकी है और राहुल गांधी ने अपनी तरफ से इसमें जो योगदान दिया है उसका कुछ फायदा तुरंत ही कांग्रेस के पक्ष में दिखने भी लगा है. एक राजनीतिक जुमला है परसेप्शन (छवि) की राजनीति का जिसका मोटा-सा मतलब है कुछ करो या न करो लेकिन करते हुए दिखने जरूर चाहिए. इस मामले में फिलहाल और पार्टियों से कांग्रेस ने बाजी मार ली है. राहुल गांधी और उत्तर प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस ही पिछले दिनों प्रदेश में सबसे ज्यादा सक्रिय नजर आई है. मायावती के खिलाफ सबसे ज्यादा मुखर रहने का पहला फायदा यह दिखाई दे रहा है कि कांग्रेस ने 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा की सफलता की वजह रहे दलित-ब्राह्मण गठजोड़ को उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में लगभग दरका दिया है. अब यह वोट में तब्दील होता है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करेगा कि कुछ समय पहले इन वोटों की सवारी करती रही भाजपा क्या रणनीति अपनाती है. सबोता गांव की ब्राह्मण महिला ने राहुल के सामने ही जब खुलेआम मायावती और दलितों को जातिसूचक अपशब्द कहे तब ब्राह्मण बहुल गांव में देर तक मचता रहा गगनभेदी शोर इस इलाके में मायावती के जादुई फॉर्मूले के गड़बड़ा जाने की ओर इशारा कर रहा था. इसके अलावा उत्तर प्रदेश में अब तक बदलाव की हर बात इस सवाल पर आकर अटक जाती थी कि विकल्प क्या है. मुलायम सिंह फ्लॉप साबित हो चुके हैं, मायावती भी असफल रहीं, भाजपा और कांग्रेस की दशा जगजाहिर है. लेकिन पिछले एक साल के अभियान से कांग्रेस ने प्रदेश में सपा-भाजपा को एक प्रकार से दूसरे-तीसरे नंबर से विस्थापित करके खुद को एक विकल्प के रूप में पेश करने का काम किया है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस पूरे इलाके में जमीन का जो मसला है उसके बड़े पीड़ितों में जाट और उनसे थोड़ा कम ब्राह्मण हैं. दलित नाममात्र के हैं. अपनी पदयात्रा के दौरान राहुल ने इस इलाके में तीन रातें बिताईं. अब अगर इन्हें 2:1 के अनुपात में बांट दें तो राहुल की पदयात्रा का एक अलग ही सच उद्घाटित होता है. राहुल ने पदयात्रा में दो रातें तो सवर्णों (जाट और ब्राह्मण) के यहां बिताईं और एक दलित के यहां. दलित की बारी भी शायद तब आई जब इस बात की चर्चा होने लगी थी कि राहुल गांधी सिर्फ जाटों और ब्राह्मणों के घर पर ही रुक रहे हैं. यह अनुपात कोई अनजाने में अंजाम नहीं दिया गया बल्कि पूरी योजना के साथ बनाया गया था. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट और ब्राह्मण जमीन के सबसे बड़े हिस्सेदार हैं. और इन दिनों कांग्रेस जाटों के सबसे बड़े नेता अजित सिंह के साथ लेन-देन की प्रक्रिया में है. किसानों की भीड़ जुटाकर अलीगढ़ में शक्ति प्रदर्शन के पीछे अजित सिंह पर दबाव बनाना भी कांग्रेस की रणनीति का वह हिस्सा था जिसे माया विरोध के हल्ले में ज्यादातर लोगों ने बताना या समझना मुनासिब नहीं समझा. यह इत्तेफाक नहीं है कि इससे पूर्व राहुल ने उत्तर प्रदेश में जहां-जहां भी रात बिताई वे सभी दलित हुआ करते थे, जबकि इस बार हालात अलग रहे. हालांकि कांग्रेस अजित सिंह पर दबाव बनाने की रणनीति में कामयाब होती नहीं दिख रही है. अलीगढ़ की खैर तहसील के जिगरपुर गांव से आए 45 वर्षीय जाट चौधरी रजिंदर सिंह के साथ एक संवाद देखिए-

तहलकाः यहां क्या उम्मीद लेकर आए हैं?

रजिंदर सिंहः किसान हैं. क्या पता राहुल गांधी हम लोगों का कुछ भला कर दें.

तहलकाः आप मानते हैं कि वे आपका कुछ भला कर सकते हैं?

रजिंदर सिंहः 35 साल तक तो नहीं किया कांग्रेस ने. अब हमारे गांव में आए थे तो हमने सोचा क्या पता कुछ काम कर दें.

तहलकाः तो कांग्रेस को वोट देंगे?

रजिंदर सिंहः वोट क्यों देंगे, वोट तो चौधरी साब (अजित सिंह) को देंगे. चौधरी साब नहीं होते तो हम कब के खत्म हो गए होते. अगर कांग्रेस चौधरी
साब से समझौता कर लेती है तब कांग्रेस को वोट दे सकते हैं.

22 लोकसभा और 125 विधानसभा सीटों वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट सबसे प्रभावशाली समुदाय है. मायावती की यहां उतनी ही धमक है जितनी कि भाजपा और कांग्रेस की. सपा जरूर इनसे आगे है पर उसकी वजह उसका एमवाई समीकरण है. बाकी पर चौधरी अजित सिंह की निर्विवाद रियासत है. इस लिहाज से अलीगढ़ में राहुल की रैली प्रदेश में नये सियासी समीकरण बुन सकती है. इस रैली से जितनी चिंता बिल्डर-माफिया से गठजोड़ के चलते मायावती को होनी चाहिए उससे कहीं ज्यादा यह अजित सिंह के लिए भी चिंतन का विषय है. दो दिन के भीतर ही आगरा के चहारवाटी में अपनी किसान महापंचायत बुलाकर अजित सिंह द्वारा कांग्रेस के पैंतरे की हवा निकालने की कोशिश इसी का नतीजा है. हालांकि उनकी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल कांग्रेस के शक्ति प्रदर्शन को ज्यादा गंभीरता से नहीं लेती या कहें कि गंभीर होते हुए दिखना नहीं चाहती. रालोद सांसद संजय सिंह चौहान कहते हैं, 'आपको क्या लगता है इससे राहुल गांधी किसानों के नेता बन जाएंगे? भारत में तमाशा देखने वालों की भीड़ लगना आम बात है. कोई पॉकेटमार भी पकड़ में आ जाए तो पांच सौ लोग भीड़ लगा लेते हैं. भीड़ तो इकट्ठा हो जाती है पर वोट पाने के लिए बूथ पर मेहनत करनी पड़ती है. करिश्मे से वोट नहीं मिलता. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का कुछ खास है नहीं. हां, हमारी बातचीत चल रही थी क्योंकि मायावती को हटाना है. लेकिन कांग्रेस हमारे ऊपर कोई दबाव नहीं बना सकती.'

चौहान की बात कुछ हद तक सही भी है. जैसे ही राहुल मंच पर आए उसके पांच मिनट के भीतर ही लोगों का हुजूम मैदान छोड़कर बाहर निकलने लगा. मैदान से बाहर निकल रहे एक युवक से जब तहलका ने पूछा कि राहुल ने तो अभी बोलना शुरू भी नहीं किया और आप जा रहे हैं तो उसका जवाब था, 'देख लिया राजीव गांधी के बेटे को. अब इस गर्मी में जान दे दें क्या.'

खैर, पिछले कई चुनाव इस बात का सबूत हैं कि अजित सिंह ने जब भी किसी पार्टी के साथ समझौता किया तो वे स्वयं मजबूत होकर उभरे जबकि सहयोगियों को इससे नाममात्र का ही फायदा हुआ. 2002 में सपा के साथ समझौता करके रालोद के 15 विधायक जीते थे जबकि 2007 में अकेले दम पर लड़कर उन्हें सिर्फ दस सीटें हासिल हुईं. यही हाल 2009 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिला. यहां उन्होंने भाजपा से हाथ मिलाकर अपने पांच सांसद दिल्ली पहुंचा दिए. इस इतिहास के मद्देनजर कांग्रेस ने अपनी रणनीति बनाई है और वह किसी भी सूरत में नहीं चाहती कि अजित सिंह उसका बेजा फायदा उठा ले जाएं.

इसके विपरीत बसपा और मायावती प्रदेश की सत्ता में होने के नाते खुद-ब-खुद किसी राजनीतिक यात्रा या प्रदर्शन का विपक्ष बन जाते हैं और बसपा में इस स्वाभाविक विरोध के अलावा राहुल की यात्रा को लेकर अन्य कोई खास चिंता नहीं है. पूरी यात्रा के दौरान राहुल ने बमुश्किल ही दलितों के साथ संवाद किया. यानी जब तक बसपा को अपने मूल वोटबैंक पर कोई खतरा नहीं महसूस होता तब तक वह कोई आक्रामक रवैया शायद ही अपनाए. पहले दिन से ही कहा जा रहा था कि मायावती राहुल को गिरफ्तार करवा सकती हैं लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार की सोच यह रही कि राहुल को पदयात्रा से रोककर उन्हें बेवजह रामदेव की तरह सहानुभूति का पात्र क्यों बनने दिया जाए और खुद को अलोकतांत्रिक क्यों साबित किया जाए. अलीगढ़ में नौ जुलाई तक बसपा के जोनल कोऑर्डिनेटर रहे केके गौतम कहते हैं, 'भ्रष्टाचार, महंगाई से जनता का ध्यान भटकाने के लिए राहुल सारी नौटंकी कर रहे हैं. उत्तर प्रदेश अकेला राज्य है जहां बहनजी ने तुरंत ही भूमि अधिग्रहण कानून को संशोधित करके किसानों को उनका वाजिब हक मुहैया करवाया है. बहनजी ने पूरे देश में भूमि अधिग्रहण के क्षेत्र में मिसाल कायम की है. कांग्रेस ने टप्पल कांड के बाद ही वादा किया था कि वे नया भूमि अधिग्रहण कानून लाएंगे. साल भर बीत गया अब भट्टा पारसौल पर राजनीति कर रहे हैं. उन्हें कानून बनाने से किसने रोका है.' लेकिन गौतम उस सवाल पर फोन काट देते हैं कि भूअधिग्रहण के बाद लैंड यूज बदलना क्या गलत नहीं था और क्या इससे बसपा की बिल्डरों के साथ मिलीभगत साबित नहीं होती.

लोकतंत्र, बदलाव, नयी शुरुआत और युवा पीढ़ी जैसे लुभावने नारों से घिरी उदारीकरण के जमाने में जवान हुई पीढ़ी की राजनीति करने वाले राहुल गांधी ने जब महापंचायत की घोषणा की थी तब कई लोगों को लगा था कि अब तक भट्टा पारसौल से लेकर पदयात्रा तक राहुल ने जो काम किया है उसे एक कदम और आगे ले जाकर वे खुद को किसानों की वैध आवाज साबित करने की कोशिश करेंगे और जमीन की समस्या का कोई स्थायी हल सुझाएंगे या कम से कम कोई विकल्प तो देंगे. चौपाल में किसान होंगे, राहुल होंगे, कोई नयी बात निकलेगी, किसानों में महामारी की तरह फैल रही भूमिहीनता की बीमारी पर लगाम लगेगी. पर अलीगढ़ का नुमाइश मैदान कांग्रेस की चुनावी ताकत की नुमाइश का मैदान बन कर रह गया. अनेक जिलों से रैली की तर्ज पर बुलाए गए कार्यकर्ताओं ने भीड़ बढ़ाई, चार घंटे तक किसानों के नाम पर इकट्ठा हुए करीब दस हजार लोगों को उबलते मौसम और पानी से भरे हुए मैदान में चुनावी भाषण पिलाते नेता और बार-बार चुनाव में हाथ के पंजे पर मुहर लगाने की अपीलें इसका सबूत थीं. अलीगढ़ से दिल्ली लौटते समय कई ढाबों आदि पर हम सिर्फ इसलिए कुछ खा-पी नहीं सके कि वहां पचासों कांग्रेसी कार्यकर्ता पहले से ही आसन जमाए हुए खा और 'पी' रहे थे. जिलास्तरीय नेता स्वयं सबसे पूछ-पूछकर सुनिश्चित कर रहे थे कि सबको अपना हिस्सा मिल गया या नहीं. कहने का अर्थ है कि किसानों के नाम पर इकट्ठा किए गए पूरे आंदोलन में वे सब खामियां-खूबियां देखने को मिलीं जो इन दिनों अमूमन हर चुनावी सभा की पहचान मानी जाती हैं.

कथित महापंचायत में राहुल और उनके साथ पंचायत में शामिल होने आए किसानों के बीच कम से कम 50 मीटर की दूरी थी. राहुल गांधी एक मंच पर  कांग्रेसी नेताओं के साथ थे और कुछ चुनिंदा किसान करीब 50-60 मीटर दूर बने एक अन्य मंच पर. चार घंटे तक नेताओं का भाषण होने के बाद, बार-बार वादे के बावजूद किसानों को बोलने के लिए एक घंटा भी नहीं दिया गया. जिन किसानों को बोलने का मौका भी दिया गया ऐसा लगा मानो उनमें से ज्यादातर कांग्रेस के प्रतिनिधि के तौर पर बोल रहे हों. हाथरस से आए किसान धर्मवीर सिंह ने जब जमीन से जुड़ा एक अहम सवाल सबके सामने रखा तो उस पर किसी ने भी तवज्जो देना जरूरी नहीं समझा, 'फ्रेट कॉरीडोर का निर्माण हो रहा है. हमारी जमीनें इसके जद में आ गई हैं. हमें नोटिस भी मिल गई है. इस पर निर्माण भी हो रहा है. पर हमारे मुआवजे और नौकरी के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं दे रहा है. हमसे वादा किया गया था कि प्रभावित परिवारों के एक व्यक्ति को नौकरी दी जाएगी. पर अभी तक कुछ नहीं हुआ.' रेलवे केंद्र सरकार के अधीन है और केंद्र में राहुल गांधी की सरकार है शायद इसीलिए सबने एक सिरे से धर्मवीर सिंह के सवाल को नजरअंदाज कर दिया.

इस सबसे उकताई जनता जब मैदान छोड़ने लगी तब उन्हें रोकने और राहुल गांधी को शर्मिंदा होने से बचाने के लिए अचानक ही राहुल गांधी को माइक पकड़ा दिया गया. राहुल के भाषण के दौरान पिछले चार दिन से उनके साथ परछाईं की तरह चल रहे पत्रकारों का एक ही दुखड़ा था, 'ये कुछ नया क्यों नहीं बोलते. एक ही बात टीवी पर भी कितनी बार दिखाएंगे.'  दरअसल संवाद स्थापित करने का अभाव और रटकर बोलने की आदत दस साल बाद भी राहुल के अधपके नेता होने का इशारा करती हैं. जब वे लोगों के साथ संवाद से बचते हैं तब लगता है कि वे राजनीति के लिए बने ही नहीं हैं बल्कि थोपे जा रहे हैं. उनके पूरे भाषण का इतना ही लब्बोलुआब रहा कि किसानों को उनका हक मिलना चाहिए और वे इसके लिए लड़ाई लड़ेंगे. इस बीच दिल्ली से लेकर लखनऊ तक शाहनवाज हुसैन और शिवपाल सिंह यादव एक ही सुर में बोल रहे थे, 'राहुल गांधी नौटंकी कर रहे हैं. उन्हें भट्टा पारसौल की बजाय जैतापुर के किसानों के पास जाना चाहिए.'

जवाब में राहुल अलीगढ़ में कहते हैं, 'उन्हें नौटंकी लगती है तो लगती रहे. मेरा मानना है कि नेता को जनता से बात करने की जरूरत है. उनसे जुड़ने की जरूरत है. ऐसा करने पर गोली चलाने की नौबत नहीं आएगी.' और संयोग देखिए कि जब राहुल यह बात कह रहे थे ठीक तभी किसानों के लिए बने मंच पर एक अलग नौटंकी शुरू हो गई. वहां माइक के लिए छीनाछपटी हो रही थी. किसान इस बात से नाराज थे कि बिना आपस में बैठे-बात किए राहुल सिर्फ अपनी बात कह कर वापस कैसे जा सकते हैं. आयोजकों को किसानों के मंच का लाउडस्पीकर बंद करना पड़ा. बाद में राहुल को आश्वासन देना पड़ा कि भाषण खत्म होने के बाद वे किसानों से मिलेंगे. तब जाकर किसान शांत हुए. हालांकि बाद में सारी कवायद दो मिनट में निपटा कर राहुल रवाना हो गए. बहरहाल अपने पूरे भाषण में जो नयी बात राहुल ने कही उसने एक बार फिर से उनकी नेतृत्व की क्षमता पर सवाल खड़ा कर दिया. या फिर हो सकता है कि मौका देख कर उन्होंने ऐसा कह दिया हो. उन्होंने कहा, ‘हम चाहते हैं कि कानून बनाने से पहले किसानों से बातचीत होनी चाहिए. कोई भी कानून बनाने से पहले उसमें आपकी भागीदारी होनी चाहिए. कानून आप सबकी राय से बनना चाहिए.’ यह कहते हुए वे भूल गए कि महज महीने भर पहले ही अन्ना हजारे और उनके सहयोगियों को कानून बनाने की प्रक्रिया में शामिल करने की मांग पर पूरी सरकार लोकतंत्र और संविधान की मौत हो जाने का विलाप कर रही थी.

तमाम चुनावी मजबूरियों के बावजूद ऐसे समय में  जब नेता और जनता के बीच दूरी बढ़ती जा रही है तब राहुल का गर्मी और बरसात में गांव की गलियों की खाक छानना, कीचड़-कूड़े के ढेर से गुजरना, आम जनता के घरों मेंं सोने  का श्रेय तो उन्हें दिया ही जाना चाहिए और शायद उन्हें ज्यादा नहीं तो इसका थोड़ा फायदा तो मिलना ही चाहिए.

 

 

 

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