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न्यूज क्लिपिंग्स् | परंपरागत तरीकों से सूखे की समस्या को मात देते लोग-- पंकज चतुर्वेदी

परंपरागत तरीकों से सूखे की समस्या को मात देते लोग-- पंकज चतुर्वेदी

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published Published on Apr 27, 2017   modified Modified on Apr 27, 2017
अभी देश से मानसून बहुत दूर है और भारत का बड़ा हिस्सा सूखे, पानी की कमी व पलायन से जूझ रहा है। बुंदेलखंड के तो सैकड़ों गांव वीरान होने शुरू भी हो गए हैं। एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक, देश के लगभग सभी हिस्सों में बड़े जल संचयन स्थलों (जलाशयों) में पिछले साल की तुलना में कम पानी बचा है। यह सवाल हमारे देश में लगभग हर तीसरे साल खड़ा हो जाता है कि ‘औसत से कम' पानी बरसा, तो तस्वीर क्या होगी? देश के 13 राज्यों के 135 जिलों की कोई दो करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि हर दस साल में चार बार पानी के लिए त्राहि-त्राहि करती है। भारत का क्षेत्रफल दुनिया की कुल जमीन या धरातल का 2.45 प्रतिशत है। दुनिया के कुल संसाधनों में से चार फीसदी हमारे पास हैं और जनसंख्या में हमारी भागीदारी 16 प्रतिशत है। हमें हर वर्ष बारिश से कुल 4,000 अरब घन मीटर (बीसीएम) पानी प्राप्त होता है, जबकि उपयोग लायक भूजल 1,869 अरब घन मीटर है। इसमें से महज 1,122 अरब घन मीटर पानी ही काम आता है। जाहिर है, बारिश का जितना हल्ला होता है, उतना उसका असर पड़ना नहीं चाहिए। कम बारिश में भी उग आने वाले मोटे अनाज जैसे ज्वार, बाजरा, कुटकी आदि की खेती और इस्तेमाल सालों-साल कम हुए हैं, वहीं ज्यादा पानी मांगने वाले सोयाबीन व अन्य नगदी फसलों ने खेतों में अपना स्थान मजबूती से बढ़ाया है। इसके चलते देश में बारिश पर निर्भर खेती बढ़ी है।

 

हमारी लगभग तीन-चौथाई खेती बारिश के भरोसे है। जिस साल बादल कम बरसते हैं, आम आदमी के जीवन का पहिया जैसे पटरी से नीचे उतर जाता है। और एक बार गाड़ी नीचे उतरी, तो उसे अपनी पुरानी गति पाने में कई-कई साल लग जाते हैं। मौसम विज्ञान के मुताबिक, किसी इलाके की औसत बारिश से यदि 19 फीसदी से कम पानी बरसता है, तो इसे ‘अनावृष्टि' कहते हैं। मगर जब बारिश इतनी कम हो कि उसकी माप औसत बारिश से 19 फीसदी से भी नीचे रह जाए, तो इसको ‘सूखे' के हालात कहते हैं।

 


सूखे के कारण जमीन के कड़े होने या बंजर होने, खेती में सिंचाई की कमी, रोजगार घटने व पलायन, मवेशियों के लिए चारे या पानी की कमी जैसे संकट उभरते हैं। वैसे भारत में औसतन 110 सेंटीमीटर बारिश होती है, जो दुनिया के अधिकांश देशों से बहुत ज्यादा है। यह बात दीगर है कि हम हमारे यहां बरसने वाले कुल पानी का महज 15 प्रतिशत ही संचित कर पाते हैं। बाकी पानी नालियों, नदियों से होते हुए समुद्र से जाकर मिल जाता है और बेकार हो जाता है। गुजरात के जूनागढ़, भावनगर, अमेरली और राजकोट के 100 गांवों ने पानी की आत्मनिर्भरता का गुर खुद ही सीखा। विछियावाड़ा गांव के लोगों ने डेढ़ लाख रुपये और कुछ दिनों की मेहनत के साथ 12 रोक बांध बनाए और एक ही बारिश में 300 एकड़ जमीन सींचने के लिए पर्याप्त पानी जुटा लिया। इतने में एक नलकूप भी नहीं लगता। ऐसे ही प्रयोग मध्य प्रदेश में झाबुआ व देवास में भी हुए। तलाशने चलें, तो कर्नाटक से लेकर असम तक और बिहार से लेकर बस्तर तक ऐसे हजारों हजार सफल प्रयोग सामने आ जाते हैं, जिनमें स्थानीय स्तर पर लोगों ने सूखे को मात दी।

 

 


 
खेती या बागान की घड़ा प्रणाली हमारी परंपरा का वह पारसमणि है, जो कम बारिश में भी सोना उगा सकती है। इसमें जमीन में गहराई में मिट्टी का घड़ा दबाना होता है। उसके आस-पास कंपोस्ट, नीम की खाद आदि डाल दें, तो बाग में खाद व रासायनिक दवाओं का खर्च बच जाता है। घड़े का मुंह खुला छोड देते हैं व उसमें पानी भर देते हैं। इस तरह एक घड़े के पानी से एक महीने तक पांच पौधों को सहजता से नमी मिलती है। जबकि नहर या ट्यूब वेल से इतने के लिए सौ लीटर से कम पानी नहीं लगेगा। ऐसी ही कई पारंपरिक प्रणालियां हमारे लोक-जीवन में उपलब्ध हैं और वे सभी कम पानी में शानदार जीवन के सूत्र हैं।

 

 


 
कम पानी के साथ बेहतर समाज का विकास कतई कठिन नहीं है, बस एक तो हर साल, हर महीने इस बात के लिए तैयारी रखनी होगी कि पानी की कमी है। दूसरा, ग्रामीण अंचलों की अल्प वर्षा से जुड़ी परेशानियों के निराकरण के लिए सूखे का इंतजार करने की बजाय इसे नियमित कार्य मानना होगा। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 


परंपरागत तरीकों से सूखे की समस्या को मात देते लोगhttp://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-people-overcome-


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