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न्यूज क्लिपिंग्स् | परमार्थ में पूंजी- सुभाष गताडे

परमार्थ में पूंजी- सुभाष गताडे

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published Published on Nov 5, 2012   modified Modified on Nov 5, 2012
जनसत्ता 5 नवंबर, 2012:खबर है कि सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में भारतीय कंपनी अधिनियम में संशोधन का विधेयक पेश करेगी। कहा जा रहा है कि कॉरपोरेट क्षेत्र की सामाजिक जिम्मेदारी को प्रस्तुत अधिनियम में शामिल करने को लेकर लंबे समय से चल रही चर्चाओं, बहस-मुबाहिसे की परिणति संशोधित अधिनियम की धारा-135 में दिखाई देगी।


यह प्रस्तावित किया जा रहा है कि हर वह कंपनी, जिसकी खालिस कीमत पांच सौ करोड़ रुपए या उससे अधिक होगी या जिसका कुल सालाना कारोबार एक हजार करोड़ रुपए या उससे अधिक होगा या सालाना खालिस मुनाफा पांच करोड़ से अधिक होगा, उसे अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए बोर्ड-समिति गठित करनी होगी। इन कंपनियों को अपने शुद्ध मुनाफे का कम से कम दो फीसद तीन साल के औसत पर सामाजिक जिम्मेदारी के मद में खर्च करना होगा। अगर किन्हीं वजहों से यह खर्च नहीं हो सका तो अपनी सालाना रिपोर्ट में उन्हें इस बाबत स्पष्टीकरण देना होगा। हर ऐसी कंपनी को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी संबंधी समिति में कम से कम एक स्वतंत्र निदेशक रखना होगा, जो इस बारे में कंपनी की नीति निर्धारित करेगा। इसके अंतर्गत संपन्न हो सकने वाली गतिविधियां संशोधित विधेयक की अनुसूची-सात में चिह्नित की गई हैं। ध्यान रहे कि प्रस्तावित विधेयक में इसे अनिवार्य नहीं बनाया गया है, मगर इसके बावजूद धारा-135 के अंतर्गत जो प्रावधान रखे गए हैं वे कंपनियों पर कुछ बंदिशें अवश्य लगाते हैं।
कुछ समय से कॉरपोरेट जगत की सामाजिक जिम्मेदारी को लेकर बराबर चर्चा चलती रही है। पिछले साल अमेरिका के अग्रणी पूंजीपति वारेन बुफे और बिल गेट्स की भारत यात्रा के मौके पर अलग-अलग उद्योग घरानों की तरफ से इस दिशा में उठाए जा रहे कदमों को रेखांकित किया गया था और इस सिलसिले में जीएमआर ग्रुप की तरफ से दी गई डेढ़ हजार करोड़ रुपए से अधिक की धनराशि का खूब जिक्र हुआ। बताया गया था कि ऊर्जा, राजमार्ग, हवाई अड््डे सहित बुनियादी ढांचे के निर्माण में तेजी से आगे बढ़े इस ग्रुप के संस्थापक जीएमराव ने निजी आय से प्रस्तुत धनराशि का प्रबंध किया है। यह धनराशि जीएमआर वरालक्ष्मी फाउंडेशन को दी जाएगी, जो जीएमआर ग्रुप की ही ‘कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी’ शाखा है। फाउंडेशन का मकसद है सामाजिक अधिरचना का विकास करना और जीएमआर जिन इलाकों में सक्रिय है उसके इर्दगिर्द के समुदायों के रहन-सहन का स्तर सुधारना।
अपने ही समूह की ‘कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी’ शाखा के तौर पर धारा-25 के अंतर्गत अलग कंपनी पंजीकृत कराने वालों में जीएमआर गु्रप को अपवाद नहीं कहा जा सकता। पता चला था कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जाकर पूंजीपतियों को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए समझाने उन दिनों दौरे पर निकले बिल गेट्स और उनकी पत्नी मेलिंडा ने ‘बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन’ बनाया है और चैरिटी के लिए दी जाने वाली धनराशि वे इसी फाउंडेशन के कामों में लगाते हैं। वही हाल अधिकतर पूंजीपतियों का है। बिल गेट्स के साथ भारत आए वारन बुफे दुनिया के अग्रणी पूंजीपतियों में हैं। उन्होंने भी अपनी धनराशि या तो बुफेट फाउंडेशन में लगाई है या उसका अधिकांश हिस्सा बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के लिए दिया है।
टाटा समूह की कंपनियां भी अपने खालिस मुनाफे का दो फीसद टाटा फाउंडेशन को सौंपती हैं जो उनके चैरिटी या समाज-कल्याण के काम संभालता है। स्पष्ट है कि बड़े-बड़े पूंजीपति घराने इसी नीति के तहत चलते हैं। चैरिटी के नाम पर दिया जाने वाला पैसा वे अपने ही फाउंडेशन में लगा देते हैं, जो उन इलाकों में सक्रिय रहता है जहां पर कंपनी अपनी इकाई खोल रही है या जहां पर उसकी उपस्थिति से स्थानीय आबादी पर नकारात्मक असर अधिक पड़ने की संभावना रहती है। ‘वाकिंग विद कॉमरेड्स’ शीर्षक अपने चर्चित लेख में अरुंधति राय ने छत्तीसगढ़ की अकूत खनिज संपदा और प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण के लिए बेताब बड़ी-बड़ी कंपनियों की सामाजिक जिम्मेदारी संबंधी नीतियों की चर्चा करते हुए बताया था कि किस तरह स्थानीय आबादी के जीवन में तबाही के नए मंजर रचने वाली कंपनियों ने वहां कई अदद स्कूल खोले हैं या कहीं क्लिीनिक चलाती हैं।
सामाजिक जिम्मेदारी के काम करने के कॉरपोरेट के यों तो कई तरीके हैं। एक तरीका है वंचित समुदायों में सक्रिय स्थानीय संगठनों को वित्तीय सहायता प्रदान करना। दूसरा तरीका है इस काम को कंपनी की कारोबारी रणनीति का ही अविभाज्य अंग बनाना। तीसरा तरीका है ‘क्रिएटिंग शेअर्ड वैल्यू’ यानी ‘साझे मूल्य का निर्माण’। जो तरीका अब अधिकाधिक स्वीकृत हो चला है वह है समुदाय आधारित विकास का। इसके तहत कंपनियां स्थानीय समुदायों के साथ उनकी बेहतरी के लिए खुद काम करती हैं, जिसमें स्कूल चलाना, वयस्कों के लिए कौशल-विकास के केंद्र चलाना, स्थानीय समुदायों के साथ व्यापार के तार जोड़ने की कोशिश करना, एड्स-एचआइवी निवारण के लिए जागरूकता कार्यक्रम चलाना, आदि।
अगर ‘कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी’ शब्द का इतिहास देखें तो यह बहुत पुराना नहीं है। साठ के दशक के उत्तरार्द्घ और सत्तर के दशक के शुरू में, जब कई सारी बहुदेशीय कंपनियां वजूद में आर्इं, तभी यह शब्द आम इस्तेमाल में आया। इस विचार के हिमायती कहते हैं कि एक दूरगामी परिप्रेक्ष्य से काम करने पर कंपनियां अधिक मुनाफा कमाती हैं, जबकि आलोचकों के मुताबिक सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी) उद्योगों की आर्थिक भूमिका से ध्यान बंटाता है। यह भी कहा जाता है कि यह महज एक शिगूफा है या ताकतवर बहुदेशीय कंपनियों की निगरानी के लिए सरकारों की भूमिका को अप्रत्यक्ष तरीके से हथिया लेना है।
इस मामले में नवक्लासिकीय अर्थशास्त्र के एक अग्रणी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन के विचार स्पष्ट रहे हैं। फ्रीडमैन अर्थव्यवस्था में बाजार की शक्तियों को खुली छूट देने की नीतियों के ‘जनकों’ में शुमार किए जाते हैं। अपने एक लंबे लेख में उन्होंने कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के हिमायतियों का बहुत मजाक उड़ाया है, जो अरबों-खरबों कमाने वाली कंपनियों को आगाह करते रहते हैं कि उन्हें मुनाफे का एक छोटा-सा हिस्सा अपने सामाजिक दायित्व निभाने के लिए देना चाहिए। फ्रीडमैन साफ कहते हैं कि पूंजीपतियों की सामाजिक जिम्मेदारी है अधिकाधिक मुनाफा कमाना। ऐसा नहीं होगा कि देश-दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं के नियंता बने कॉरपोरेट मालिकान, जो अपने इस पथ-प्रदर्शक के विचारों को सिर-माथे पर लिए घूमते रहते हैं, उनके इस चर्चित लेख से नावाकिफ होंगे। फिर भी वे खामोश हैं तो यह यही बताता है कि इस तरीके को अपनाने में उन्हें लाभ ही लाभ दिखता है।
कंपनियों को इसमें कई फायदे नजर आते हैं। एक फायदा नए कर्मचारियों को भरती करने या उन्हें कंपनी के साथ जोड़े रखने में दिखता है। एक साधारण कर्मचारी के लिए वह कंपनी ज्यादा जुड़ने लायक लग सकती है कि जहां पर इस जिम्मेदारी के तहत काम हो रहा हो। बाजार में जहां कई प्रतिद्वंद्वी मौजूद हैं, वहां कंपनियां अपने लिए एक विशिष्ट पहचान भी तलाशने की कोशिश करती हैं। सीएसआर की रणनीति कंपनी की छाप छोड़ने के लिए काफी मुफीद रहती है।
कंपनियों द्वारा अपनाई जाने वाली यह रणनीति किस तरह उनके गैर-पारदर्शी कामों पर परदा डाले रखती है या किस तरह बुनियादी प्रश्नों से जनता का ध्यान बंटाती है, यह आसानी से देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, एनडीटीवी की तरफ से कुछ सालों से गांवों में सौर लालटेन बांटने की योजना चल रही है। प्रचार कार्यक्रम में कंपनी अपने दर्शकों का भी इस काम में सहयोग मांगती है, उन्हें बताया जाता है कि अगर वे अपना सहयोग दें तो गांव का अंधेरा दूर कर सकते हैं। तमाम दर्शक अपना आर्थिक सहयोग देते हैं। पर चंद गांवों में सौर लालटेन बांटने से यह बात दबी रह जाती है कि ग्रामीण इलाके अंधेरे में इसलिए हैं, क्योंकि देश में बिजली का वितरण बेहद असमान है जो मुख्यत: शहरों या बड़े उद्योगों पर केंद्रित रहता है।
सत्यम कंपनी के रामलिंगा राजू द्वारा किया गया करोड़ों रुपए का गबन एक चर्चित मामला रहा है। सत्यम जैसी नामी-गिरामी कंपनी ने अपने खातों में हेराफेरी करके साधारण निवेशकों के करोड़ों रुपए हड़प कर लिए। सत्यम के मालिकों को केवल इस बात की चिंता थी कि उनकी तिजोरी भरती रहे, भले उनके तिरपन हजार मुलाजिमों को सड़कों की धूल फांकने को विवश होना पड़े। उसी वक्त यह सवाल उठा था कि क्या रामलिंगा राजू जैसा एक अकेला शख्स इतने बड़े कांड को अंजाम दे सकता है, ताकि बाकी निदेशकों और कंपनी के संचालकों को इसकी भनक भी न लगे? कंपनियों की आॅडिट फर्मों को भी पता न चले? ऐसा नहीं हो सकता।
सत्यम की वेबसाइट पर लंबे समय तक कंपनी की उपलब्धियों के तौर पर पश्चिमी जगत की तमाम कंपनियों या कारोबारी समूहों द्वारा मिले पुरस्कारों की सूची पेश की गई थी, जिसमें उसे कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी निभाने के लिए भी कई पुरस्कार मिलने का जिक्र था। रामलिंगा राजू की गिरफ्तारी के बाद भी उसे फख्र से यों पेश किया जा रहा था, गोया लोग इस बात के लिए माफ कर दें कि इतना अच्छा काम अगर किया है तो कुछ गलत काम की छूट मिल जाए।
कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के हिमायतियों से यह कहा जाना चाहिए कि कॉरपोरेट जगत पहले जवाबदेह और अपने कारोबार में पारदर्शी तो बने। सभी जानते हैं कि कई बड़ी कंपनियां ‘जीरो-टैक्स’ कंपनियां होती हैं अर्थात सरकार से तमाम फायदे हासिल करने के बावजूद कुछ भी कर के तौर पर अदा नहीं करतीं। इस काम को कंपनी के हिसाब-किताब को ‘मैनेज’ करके अंजाम दिया जाता है, जिसे तैयार करने के लिए बड़ी-बड़ी लेखा-कंपनियां लगी रहती हैं।
अगर टैक्स न देने वाली कोई कंपनी एक-दो स्कूल किसी आदिवासी इलाके में खोल दे तो क्या फर्क पड़ता है? पी साईनाथ के एक चर्चित लेख के मुताबिक (गेट्स, बुफे ऐंड द आर्ट आॅफ गिविंग; द हिंदू, मार्च 12, 2011) इन अरबपतियों की आय में अगर हम दस फीसद मुनाफे की बात करें (जो अपने आप में बहुत कम है) तो वह राशि देश की जनता की स्वास्थ्य, उच्च शिक्षा, ग्रामीण रोजगार योजना और हैंडलूम बजट को सालों-साल पूरा करती रह सकती है।
कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी के मसले पर यूपीए सरकार की सक्रियता और कॉरपोरेट-हितों के समक्ष आए दिन उसके समर्पण को आखिर कैसे समझा जा सकता है? पिछले दिनों पेट्रोलियम मंत्रालय से जयपाल रेड्डी की रवानगी के पीछे एक बड़े उद्योग समूह का दबाव होने के आरोप लगे हैं।
दरअसल, कथित सामाजिक दायित्व के नाम पर सरकार की ही नहीं बल्कि कॉरपोरेट समूहों की भी उजली छवि पेश होती है, सच्चाई भले ही कितनी अलग हो। शायद यही वजह है कि सरकार ने समाज-कल्याण काम को कंपनियों के कर्तव्यों में शामिल करने का शिगूफा छोड़ा है। दूसरी तरफ बड़ी कंपनियां भी जानती हैं कि किस तरह ऐसे कामों से कॉरपोरेट छवि ही बेहतर नहीं बनती, बल्कि शेयरों के मूल्य भी बढ़ते हैं और सबसे बढ़ कर सरकारों से नई रियायतें हासिल करने की जमीन तैयार हो जाती है।


http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/32130-2012-11-05-06-13-25


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