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न्यूज क्लिपिंग्स् | पहले विकास का पहिया चलाइए- तवलीन सिंह

पहले विकास का पहिया चलाइए- तवलीन सिंह

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published Published on Dec 23, 2015   modified Modified on Dec 23, 2015
पिछले कुछ महीनों से ऐसा लगने लगा है जैसे हर हफ्ते किसी न किसी बहाने किसी न किसी मंत्री या मुख्यमंत्री के इस्तीफा देने की मांग गूंज उठती है विपक्ष से। सो, पिछले हफ्ते बारी आई वित्तमंत्री की आम आदमी पार्टी (आप) की तरफ से और प्रधानमंत्री को दिल्ली के मुख्यमंत्री ने ट्विटर के जरिए पागल, खतरनाक अपराधी कहा। अंगरेजी का शब्द ‘साइकोपैथ' का अनुवाद यही होता है। राज्यसभा के अंदर तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद ने कह दिया कि देश भर में अघोषित इमरजेंसी लग गई है। जब तक आप इस लेख को पढ़ेंगे तब तक पूरी संभावना है कि सोनिया और राहुल गांधी की दिल्ली हाई कोर्ट में पेशी को लेकर उनके समर्थक राजधानी की सड़कों पर निकल कर हंगामे का कोई नया सिलसिला शुरू कर देंगे। ऐसे हंगामे अब चलते रहेंगे, क्योंकि ऐसा लगता है कि विपक्षी दलों ने तय कर लिया है कि न संसद को चलने दिया जाएगा और न मोदी सरकार को। सो, विनम्रता से प्रधानमंत्री से अर्ज यह करना चाहूंगी कि इस शोर-गुल को अनदेखा करके अर्थव्यवस्था की मरम्मत शुरू कर दें।

इसलिए कि हाल अच्छा नहीं है आर्थिक तौर पर भारत देश का। माना कि जापान के प्रधानमंत्री बुलेट ट्रेन के निर्माण में मदद का वादा कर गए हैं पिछले हफ्ते और यह भी माना कि आंकड़ों के मुताबिक भारत की अर्थव्यवस्था अब दुनिया में सबसे तेज गति से आगे बढ़ रही है, लेकिन हम लोग जो जमीनी हकीकत से वाकिफ हैं, जानते हैं अच्छी तरह कि न निवेशक वापस लौट कर आए हैं अभी और न ही इस देश के करोड़ों बेरोजगार नौजवानों के लिए वे नौकरियां पैदा हो रही हैं, जिनकी उनको सख्त जरूरत है। यानी अर्थव्यवस्था पर अब भी छाए हुए हैं मंदी के बादल इतने सारे कि अच्छे दिनों के आने की आशा टूटने लगी है। हम जैसे लोग, जिनको याद है वह माहौल, जो बना था 1991 के बाद जब लाइसेंस राज की समाप्ति हुई थी, दावे के साथ कह सकते हैं कि वैसा माहौल आज नहीं है देश में।

सो, प्रधानमंत्री को जरूरत है एक चिंतन बैठक बुलाने की अपने उन मंत्रियों के साथ, जिनकी जिम्मेवारी है आर्थिक मंत्रालयों को चलाने की। इस बैठक में उनसे पूछें जरा प्रधानमंत्रीजी कि क्यों नहीं अभी तक मंदी के दूर होने के आसार दिख रहे हैं? क्या हुआ है उन योजनाओं का, जो रुकी पड़ी हैं? क्या हुआ उस वादे का, जिसके तहत आने वाले थे रेल व्यवस्था में सुधार? क्या हुआ है उस दूसरे वादे का, जो प्रधानमंत्री ने पिछले वर्ष चुनाव अभियान में बार-बार दोहराए? यही कि सरकार का काम नहीं है कारोबार चलाना, व्यवसाय करना। इस वादे को पूरा करते तो अभी तक कुछ तो आसार दिखते एअर इंडिया और बीएसएनएल जैसी सरकारी कंपनियों के निजीकरण का। पिछले हफ्ते टाइम्स ऑफ इंडिया ने खबर दी कि सरकारी कंपनियों को चलाने पर भारत वासियों का रोज नुकसान होता है बावन करोड़ रुपयों का और वह भी सिर्फ तिरपन कंपनियों का घाटा उठाने में। यह खबर प्रधानमंत्री तक जरूर पहुंच गई होगी, सो क्यों नहीं हमको कम से कम इतना सुनने को मिल रहा है कि एअर इंडिया का घाटा अब इतना है कि इसको बेचना बेहतर होगा?

रही बात निवेशकों के लिए सुहाना माहौल बनाने की, तो हमारी क्या सुनेंगे प्रधानमंत्री, जब वे अपने ही खास समर्थक बाबा रामदेव की नहीं सुन रहे। बाबा रामदेव अब सिर्फ योग गुरु नहीं रहे, बहुत बड़े, बहुत सफल उद्योगपति भी हैं। सो, जब हाल में उनसे टीवी पर पूछा गया कि अपने कारोबार को चलाने में वे सरकार से किस तरह के सहयोग की उम्मीद रखते हैं, तो उन्होंने हंस कर कहा, ‘सहयोग की आशा नहीं करते हैं हम, आशा करते हैं सिर्फ इतनी कि असहयोग न करे सरकार।' इन चंद शब्दों में वह बात कह गए बाबा रामदेव, जो हर भारतीय उद्योगपति, हर छोटे व्यापारी के दिल में है। ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले हाल बेहतर थे, लेकिन ऐसा जरूर है कि उनके आने के बाद कोई खास परिवर्तन नहीं आया है, क्योंकि उनकी सरकार एक तरफ तो कहती है कि भारतीय निवेशकों को साहस दिखा कर निवेश करना शुरू करना चाहिए, लेकिन साथ-साथ यह भी कहती है कि बिना पैन कॉर्ड के कोई भी दो लाख रुपए से ज्यादा खर्च नहीं सकता है। साथ-साथ यह भी कहती है मोदी सरकार कि काला धन जिनके पास पाया जाएगा उनके साथ सख्ती से कार्रवाई होगी, यानी कि जेल भी भेजने का इंतजाम किया जा रहा है एक नए कानून द्वारा।

इस तरह के माहौल में कौन सामने आएगा निवेश करने भारत देश में? क्या प्रधानमंत्री जानते नहीं हैं कि असली काला धन सिर्फ राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों के पास होता है? उद्योगपतियों, व्यापारियों या अभिनेताओं के पास जब होता है तो सिर्फ टैक्स चोरी होती है, लेकिन पैसा काला नहीं होता, खून-पसीने से कमाया हुआ होता है। हमारे राजनेता ही हैं, जिनके पास अचानक बेशुमार दौलत आ जाती है, बिना मेहनत किए। खैर छोड़िए। अगर प्रधानमंत्री सोच रहे हैं कि उनके आने से अर्थव्यवस्था में बहार आ गई है, तो उनको गलतफहमी है। न बहार आई है, न नए रोजगार के अवसर, न अच्छे दिन। अर्थव्यवस्था पर अब भी छाए हुए हैं घने बादल। यह हाल कृषि क्षेत्र में तो है ही, सो रोज आती हैं किसानों की आत्महत्या की खबरें, लेकिन उद्योग क्षेत्र में भी हाल अच्छा नहीं है, आंकड़े चाहे कुछ भी कहें। यह कहना गलत न होगा कि मोदी सरकार की सबसे बड़ी राजनीतिक समस्या आर्थिक है।


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