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न्यूज क्लिपिंग्स् | पहाड़ के दुख के बीच रैम्बोगीरी

पहाड़ के दुख के बीच रैम्बोगीरी

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published Published on Jul 4, 2013   modified Modified on Jul 4, 2013

जनसत्ता 4 जुलाई, 2013: जोसेफ हैलर के प्रसिद्ध उपन्यास ‘कैच ट्वेंटी टू' में किसी नकली बीमारी का बहाना बना कर खुद को युद्धक्षेत्र भेजे जाने से मुक्त कर चुका बमवर्षक यूनिट का पादरी पाता है कि आह, भरोसेमंद तरीके से सचमुच का झूठ बोल जाना कितना सहज है! छाती ठोंक कर वह कहता है कि दरअसल निर्ममता को देशप्रेम और परउत्पीड़न को न्याय का पर्याय बताने वाले सफेद झूठों को गढ़ने के लिए दिमाग की कतई जरूरत नहीं होती। बस इतना आवश्यक है कि बोलने वाले के भीतर चरित्र के नाम पर कुछ न हो। चरित्र के बोझ से कतई मुक्त ऐसे ही एक दलीय प्रवक्ता ने हाल में एक अंग्रेजी दैनिक के संवाददाता को बताया कि जिस समय हिमालय की वादियों में बरपे कहर से स्तंभित राज्य प्रशासन हाथ ही मल रहा था, गुजरात के प्रबंधन शिरोमणि मुख्यमंत्री कैसे हठात इलाके में अवतरित हुए और उन्होंने हाथ के हाथ अपने निजी उड़नखटोले और साथ लाए कारों के काफिले की मदद से केदार घाटी में फंसे लाखों यात्रियों के बीच से अपने सूबे के पंद्रह हजार तीर्थयात्रियों को उबार कर घर पहुंचा दिया।


संवाददाता इस हैरतअंगेज कारनामे के भरोसेमंद लगते वर्णन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने रपट के शीर्षक पर मुख्यमंत्री को अमेरिकी एक्शन फिल्म के एक महानायक रैम्बो का अवतार बता दिया। अखबार के पहले पन्ने पर इस सनसनीखेज खबर का छपना था कि वह वाइरल बन गई, और नेपथ्य से मुख्यमंत्री जी के दीन-दुखियों के लिए इस ‘त्राताभवभवार्णवात्' अवतार पर सारे सोशल मीडिया में पुष्पवर्षा और अश-अश होने लगी।


लेकिन यहीं पर एक अनजानी दिक्कत यह उठ खड़ी हुई कि खबर के प्रायोजक शायद भांपने से चूक गए कि हमारा मीडिया किसी भी बड़ी और व्यापक मानवीय त्रासदी घटने पर शुरुआती तौर से भले ही एक्सक्लूसिव खबर तलाशता फिरे, लेकिन उसमें चरित्र नामक चीज अब भी बाकी है। लिहाजा जब कभी किसी भी खतरनाक इलाके में घटे विशाल हादसे के मानवीय ब्योरे उघड़ने लगते हैं, अपने तमाम पूर्वग्रह त्याग कर अनुभवी मीडियाकर्मी अपने सहकर्मियों के साथ एक अलिखित तकनीकी और वैचारिक साझेदारी बना लेते हैं जिसके तहत उन सबके बीच युद्ध या हादसे के शिकारों की खबरों को संपूर्णता से पेश कर पाने के लिए सारे उपलब्ध ब्योरों की नियमित और परस्पर अदलाबदली शुरू हो जाती है।


इस बार भी जब उत्तराखंड की तबाही की विशालता उजागर हुई, तो प्रभावित इलाके के कई क्षेत्रों का अलग-अलग दौरा कर रहे मीडिया के अनुभवी बंदों ने खबरों का एक अनौपचारिक तालाब बना लिया था जिसमें हर कोई अपने देखे इलाके का सच उंडेल सकता था। जब खबर बनाने को ब्योरों के इस जखीरे में अनुभवी लोगों ने दिमागी गोताखोरी शुरू की, तो कइयों को तुरत रैम्बोगीरी के सनसनीखेज दावे के पीछे कुछ काला नजर आया।


उनकी तरफ से कुछ इस तरह के अप्रीतिकर सवाल उठाए जाने लगे, कि जिस समय वे या उनके प्रतिनिधि या सेना के खासतौर से प्रशिक्षित आठ हजार जवान भी बुरी तरह दुष्प्रभावित इलाके में अलग-अलग जगहों पर घिरे यात्रियों के जत्थों तक पहुंच पाने की जद्दोजहद में ही जुटे थे, कोई रैम्बो या मोगैम्बो सुदूर गुजरात से उड़ता हवाई जहाज और मरजीवड़ों को लेकर खराब मौसम सहित घोर आपदाग्रस्त इलाके की तमाम भवबाधाएं पार करने में किस तरह सफल हो गया?


यही नहीं, मलबे में तब्दील इलाके के भीतर घुस देश के कोने-कोने से आए लाखों तीर्थयात्रियों की उस विशाल और हकबकाई भीड़ के बीच से एक-दो नहीं, पंद्रह हजार गुजरातियों की पहचान कैसे कर ली गई? और फिर उनको एयर लिफ्ट कर सिर्फ दो दिनों के भीतर सुरक्षित अपने-अपने घर तक किस तरह पहुंचा दिया गया जबकि वायुसेना के जांबाजों तक को इसमें हफ्तों लग गए और अब तक मृतकों का सही आंकड़ा अप्राप्य है?


एक अन्य सवाल और भी संगीन था, जो विपक्ष ही नहीं, खुद मुख्यमंत्री की पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों और राजग के सबसे पुराने घटक दल के शीर्ष नेता द्वारा भी उठाया गया। वह यह, कि क्या इतनी बड़ी त्रासदी के बीच राहत और बचाव कार्य करते समय सिर्फ अपने प्रांत के लोगों को बचाने वाले नेता द्वारा उत्कट क्षेत्रवाद का यह शर्मनाक रूप से ‘थेथरी' उदाहरण पार्टी के उस बहुप्रचारित राष्ट्रप्रेम को संदिग्ध नहीं बना गया, जिसके बल पर सारे नेता आगामी चुनावों में अखिल भारतीय वोटों के अपने पक्ष में झड़ने की उम्मीद लगाए बैठे हैं?


जब यह सब वितंडा हुआ तो आत्मछवि को लेकर बेतरह सजग मुख्यमंत्री के लोगों ने तुरत स्थानीय प्रवक्ता के इस दावे से उनको दूर हटा लिया और आरोप-प्रत्यारोप की धारा को केंद्र द्वारा सीबीआइ के गलत इस्तेमाल पर मोड़ कर एक नई चर्चा शुरू कर दी गई। लेकिन जो नुकसान होना था हो गया। और अब तो पार्टी के कई अन्य वरिष्ठ लोग भी नाम न छापने की शर्त पर अपने विश्वस्त मीडियाकारों से कह रहे हैं कि भई, सत्तारूढ़ दल के खिलाफ चुनावों में हवा बनाने में लगातार जुटे प्रचार प्रकोष्ठ का स्थानीय प्रशासन को नालायक और अकुशल और दिल्ली के हाकिमों को बेदिल साबित करने का यह वार इस बार कुछ ‘बैकफायर' कर गया।


अनेक भवबाधाएं पार कर चुके गुजरात के मुख्यमंत्री आज भाजपा के निर्विवाद शीर्ष पुरुष हैं पर उनको लेकर कथित तौर से कार्यकर्ता भले ही हुलसाए फिरते हों, कई वरिष्ठ भाजपाई अब भी आश्वस्त नहीं हैं। वजह यह,कि मोदी का बौद्धिक स्तर और राजनीतिक दर्जा शेष दलीय नेताओं से जैसे-जैसे ऊपर उठा है, उनके स्वभाव की एक तरह की अड़ियल कर्कशता और अपने से अधिक उम्रदराज और शारीरिक रूप से कम बलिष्ठ लोगों के प्रति स्पष्ट तिरस्कार का भाव (जो कुछेक जनों की राय में प्रौढ़ कुंवारों का एक सहज लक्षण है) भी पानी में तेल की तरह सतह पर आने लगा है।


अब तक प्राय: मलगुंजे धोती-कुर्ते से काम चलाने वाले रोली तिलकधारी प्रचारकों के लिए उनका हैट, सूट से समृद्ध वस्त्रालंकार प्रेम ही नहीं, दबंग आत्मप्रचार की एक सायास गढ़ी गई स्फीतिमयता को जायज ठहराना भी कठिन होता जा रहा है, जो पार्टी में युवा खून लाने से लेकर गुजरात के विकास तक का संपूर्ण श्रेय उनके ही खाते में डालने लगी है।


विनम्रता और पार्टी के बुजुर्गों के प्रति सतत झुकती रही भाजपा अब बाहरखाने जो कहे, सच तो यह है कि उसके लिए अपने महानेता एक ऐसे गुस्सैल कनफटे साधु हो गए हैं जिनको कुछ कीमती सिद्धियों का मालिक होने की वजह से हरचंद हंस कर सहन किया जा रहा है। और इसमें शक नहीं, कि युवाओं को खींचने के लिए चिकने-चुपड़े अनुप्रासयुक्त नारों में बोलने और हाफ पैंट पहन कर मार्च करने वाले बुजुर्गों की पुरातनपंथी और ढीलीढाली छवि वाले दल में वे एक नई तरह का सोशल मीडिया और विपणन विशेषज्ञों की भाषा में रचा चक्रवाती तूफान बन कर खुद को तेजी से बढ़ा पा रहे हैं।


मगर पुराने दलों की भाषा ही नहीं उनकी वैचारिकता को भी नए सिरे से रचने का काम समय मांगता है। इसमें उद््दंड हड़बड़ी करने से लेने के देने पड़ सकते हैं। उत्तराखंड का रैम्बो प्रसंग इस नैतिकता निरपेक्ष और शैली सापेक्ष मुहिम का एक घातक उदाहरण है। धड़ाधड़ उत्तराखंड की यात्रा पर निकलते हुए शायद यह सोचा ही नहीं गया कि यह त्रासदी इतनी बड़ी है कि शहरी अंग्रेजीदां मीडिया भी इतने पास जाकर इस त्रासदी को देखे-दिखाएगा। कई दावों के उलटे पड़ने पर पहले नेता और उनके प्रवक्ता सहजता से मुकर सकते थे। आज सोशल मीडिया, सेलफोन वीडियो और मुख्यधारा मीडिया के सैकड़ों खबरचियों के बीच ऐसे दावों का हास्यास्पद खोखलापन तुरत सैकड़ों मोर्चों पर खुल गया तो मुकरना असंभव बन जाता है।


अब भी दिल्ली तख्त जीतने को लालकिले पर झंडा फहराते रहे सत्ताधारियों के खिलाफ ही अपनी तोपों का मुंह किए रहना हड़बड़ी को उजागर करता है। 2014 में दिल्ली की सत्ता की असली और सबसे मर्मांतक लड़ाई तो दिल्ली पर राज करने के इच्छुक हर दल को क्षेत्रीय स्तर पर लड़नी होगी। बावले क्रोध से अपने खिलाफ दिल्ली द्वारा सीबीआइ के दुरुपयोग पर गरजने से भी उत्तराखंड का पहाड़ सरीखा दुख और अकेलापन मिट सकता है क्या?


अगर यह आपदा मानव-निर्मित ही थी, तो भी क्या इसे सिर्फ कांग्रेस सरकार की नीतियों ने न्योता होगा? पांच बरस राज कर गई भाजपा सरकार की उन विकास नीतियों ने नहीं, जिनके तहत बांध-बराज निर्माण और भू और शराब के माफिया को बढ़ावा देना कोई कम नहीं किया गया? नई-पुरानी फुटेज दिखा-दिखा कर मीडिया अगर यह सवाल उठा रहा है तो इसमें गलत या षड्यंत्र जैसा क्या है?


भारत जैसे विशाल और विविधतामय देश को अगर सचमुच भर हाथ थामना हो, तो यह काम विदेशी प्रचार एजेंसियों के हवाले करना सही नहीं। बच्चे पालने और दूध उबालने की ही तरह हर महत्त्वाकांक्षी शासक को हजारहां नेत्रों से अपने लक्षित क्षेत्र की विविधता और गति को सतत परखते रहना होता है। जयप्रकाश नारायण के संन्यास ग्रहण करने और फिर विद्रोही कमान थामने, वीपी सिंह के दलत्याग के बाद नए दल के शीर्ष पर आकर अचानक मंडल कमीशन रपट लागू कराने, चंद्रशेखर का पहले कांग्रेस को हटाने में सहयोग और बाद को जनता सरकार के खिलाफ दांतपीस विद्रोह और फिर एक लघु प्रधानमंत्रित्व, 2004 में शाइनिंग इंडिया से मस्त भाजपा की अप्रत्याशित शिकस्त, सोनिया का पद से इनकार, यह सब दिखाता है कि हमारे इतिहास का देवता कितनी तरह की ट्विस्ट भरी जटिल पटकथाएं हमारे लोकतंत्र में रचता रहा है। आम चुनावों के नतीजों का सही अनुमान मीडिया पंडितों पर छोड़ने वालों को असल नतीजे अक्सर भारी पड़े हैं। अगले चुनाव के नतीजों के बाद भी यदि विभिन्न सत्ताकामी दल गठजोड़ रचने को हमको चौंकाते हुए किसी पुराने दुश्मन से हाथ मिलाने लगें तो क्या धुआंधार प्रचार के बाद भी मोदी ब्रांड का यह अलगाववादी हिंदुत्व और गुजरातवाद किसी कदर बेमतलब नहीं बन जाएगा?


यों तो कई बार शिथिल पड़ चुके पुराने दलों के भीतर फूट के अपने फायदे भी होते हैं, और एक विराट थुलथुलपने के बरक्स विचारमंथन के बाद दलों के भीतरी मंच पर कोई छरहरी कर्मठ वैचारिक स्पष्टता उभर आए तो वह दल को कहीं अधिक दूर तक खींच ले जा सकती है।


हमारे विगत में सही वैचारिक फूट जब कभी भी हुई तो उससे अणुबम सरीखी ऊर्जा निकली है, और उस समय उसने देशकाल पात्रता के हिसाब से समय-समय पर हमारे देश में नर्म और गर्म दलों की, वाम और दक्षिण पंथ और मध्यमार्गी दलों की वैचारिकता स्पष्टता बनाई। लेकिन मंथन के बाद सार्थक ऊर्जा के विकिरण की बुनियादी शर्त यह है कि मथानी का आधार किसी एक की निजी सत्ता हवस की आंधी को नहीं, कठोर वैचारिकता की कछुआ पीठ को बनाया गया हो। हवा-हवाई गुब्बारों की फूट से तो गर्म हवा ही निकल सकती है।


http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/48315-2013-07-04-04-32-41


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