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न्यूज क्लिपिंग्स् | पारदर्शिता का पैमाना और पार्टियां- शीतला सिंह

पारदर्शिता का पैमाना और पार्टियां- शीतला सिंह

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published Published on Jun 11, 2013   modified Modified on Jun 11, 2013
जनसत्ता 11 जून, 2013: केंद्रीय सूचना आयोग ने अपने एक फैसले में राजनीतिक दलों को सूचना आयोग कानून के तहत जवाबदेह माना है। आयोग की पूर्णपीठ ने राजनीतिक दलों का यह तर्क नहीं स्वीकार किया कि वे सरकारी सहायता से चलने, उनसे अनुदान प्राप्त करने वाले संगठन नहीं हैं इसलिए वे इस कानून से मुक्त हैं। केंद्रीय सूचना आयोग का मानना है कि वे केंद्र सरकार की ओर से परोक्ष रूप से वित्तीय सहायता पाते हैं, मसलन रियायती दर पर जमीन या भवन आदि के आबंटन और आय कर में छूट और चुनाव के समय आकाशवाणी और दूरदर्शन पर मुफ्त प्रसारण की सुविधा आदि के रूप में। फिर, उनका कामकाज सार्वजनिक प्रकृति का है।
सरकारों का गठन भी विधायिका में उनकी ताकत के आधार पर होता है। इसलिए उन पर सूचनाधिकार कानून लागू न होने की दलील नहीं मानी जा सकती। राजनीतिक दलों को इस कानून के तहत मांगी गई सूचनाएं एक महीने के भीतर देनी होंगी। इसके लिए उन्हें सूचनाधिकारी की नियुक्ति करनी होगी।
आयोग के इस निर्णय से कांग्रेस, भाजपा, बसपा, राकांपा, माकपा, भाकपा यानी सभी प्रमुख राष्ट्रीय दल कुपित हैं। इनमें कोई वामपंथ या दक्षिणपंथ का भेद नहीं है। वे सभी इसी राय के हैं कि उन्हें इस कानून से मुक्त रखा जाना चाहिए, क्योंकि सूचनाधिकार कानून निजी संस्थाओं पर अंकुश के लिए नहीं बल्कि सरकारी कामकाज में अधिक पारदर्शिता लाने के लिए बना था। इसके पीछे सभी राजनीतिक दलों की इच्छा और सहयोग था, जिससे सूचनाधिकार की अवधारणा कानून की शक्ल ले सकी। जहां तक संसद द्वारा पारित कानूनों की व्याख्या का संबंध है, यह अधिकार सूचना आयोग के पास नहीं बल्कि उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के पास है। सूचनाधिकार कार्यान्वयन के लिए बने सूचना आयोग और उसके पदाधिकारी भी अदालत की परिधि से बाहर नहीं हैं, इसलिए जो स्वयं अदालतों के अधीन हैं वे कानूनों की व्याख्या का अधिकार उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय की भांति नहीं रखते।
जहां तक राजनीतिक दलों के गठन का संबंध है वे भी संविधान में दिए स्वातंत्र्य के मूल अधिकार के तहत आते हैं और इन्हें संरक्षण भी इसी के तहत दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद-19 (1) (ग) के तहत ही संघ या संगठन बनाने का अधिकार दिया गया है जो व्यापक रूप से सारे संगठनों पर लागू होता है।
राजनीतिक दलों का गठन भी उसी के तहत आता है। लेकिन अनुच्छेद-19 (6) में यह कहा गया है कि वृत्ति, व्यवसाय, आजीविका या कारोबार करने के लिए वृत्तिक या तकनीकी अर्हताओं से या राज्य के स्वामित्व या नियंत्रण में किसी निगम द्वारा कोई व्यापार, कारोबार, उद्योग या सेवा नागरिकों का पूर्णतया या अंशत: अपवर्जन की शक्ति के संबंध में रखने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी। चूंकि राजनीतिक दल और उनके संगठन सेवा के तहत आते हैं इसलिए इन्हें इस कोटि में न तो रखा जा सकता है और न ऐसा कोई कानून ही बनाया जा सकता है जिससे उसका स्वरूप और उद्देश्य ही बदल जाए।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सेवा के लिए संगठन या संघ बनाने के अधिकारों के तहत बने राजनीतिक दल जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत भी आते हैं। वे सरकारें बनाते हैं और देश की व्यवस्था के संचालन का दायित्व भी निभाते हैं। इसलिए इन्हें विशेष मानना पड़ेगा। सवाल यह पैदा होता है कि इन्हें विशेषता प्रदान करने वाली संवैधानिक व्यवस्था तो है, पर क्या इन्हें कठघरे में खड़ा करने की व्यवस्था भी है? लेकिन जब वे भावी व्यवस्था के निर्धारण का दायित्व निभाते हैं तो उन्हें प्रतिबंधों से परे और कितना स्वाधीन होना चाहिए यह सवाल भी उठता है।
आरोप तो यह भी है कि राजनीतिक दलों के पास सबसे अधिक काली कमाई का पैसा चंदे के रूप में आता है। चूंकि वे आयकर व्यवस्था से मुक्त हैं, केवल अर्जित धन के संबंध में आयकर विभाग को सूचनाएं देते हैं। पर जब वे आयकर विभाग को अपनी आय का हिसाब दे रहे हैं तो जनता को ऐसी सूचनाएं सूचनाधिकार के तहत प्राप्त करने से क्यों वंचित रखा जाए। क्या जो सूचनाएं नागरिकों को प्राप्त होंगी उनका उपयोग किसी जन-विरोधी उद्देश्य और कार्य के लिए भी हो सकता है।
किस राजनीतिक दल ने किनसे कितना धन प्राप्त किया या उसके संगठन के संबंध में अन्य जानकारियां, जो सदस्यों से लेकर उनके संगठन के गठन और निर्वाचन से जुड़ी होंगी, क्या उसमें कोई ऐसा भाग है जिसे यह माना जाए कि अगर वह आम लोगों को मालूम होगा तो उसका इन संगठनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, जो इनकी छवि को दूषित करने और सार्वजनिक उद्देश्यों की पूर्ति में बाधक बनेगा?
मगर पारदर्शिता के जिस सिद्धांत के तहत राज्य की इकाइयों को लाया गया है, राज्य का नियमन करने वाले राजनीतिक दल उससे मुक्त रहें, यह कुछ अटपटा-सा लगता है। इसलिए राजनीतिक दलों को तो सूचना आयोग के इस निर्णय का स्वागत करना चाहिए था, जबकि वे विरोध कर रहे हैं।
संविधान के कुछ प्रावधान पारदर्शिता के सिद्धांत के अनुरूप इसलिए नहीं हैं, चूंकि उनसे व्यक्ति के विशेषाधिकार जुड़े हैं। व्यक्तियों को इसकी आवश्यकता इसलिए समझी जाती है कि उनका कुछ अपना सार्वजनिक होने से बचा रहे, जिसका आम जन से कोई मतलब नहीं है। यानी उसका खाना, पीना, उठना, बैठना, चलना, दांपत्य या वैयक्तिक जीवन। यह सब कुछ सार्वजनिक नहीं होना चाहिए।

लेकिन वैयक्तिक स्वतंत्रता का अधिकार भी निर्बाध नहीं है, यह भी विधिक मर्यादाओं के अंतर्गत आता है। आपको जहर खाने का अधिकार इसलिए नहीं है क्योंकि इससे जीवन का अंत हो सकता है। दांपत्य जीवन में कटुता परोसना और दूसरे को दंडित करना या इसका अनुचित लाभ उठाना और इसी प्रकार के तमाम कार्य आपके इस अधिकार से परे हैं। आप अपने बच्चे को भी उत्पीड़ित नहीं कर सकते।
राजनीतिक दल ही वास्तव में देश की व्यवस्था के संचालक का दायित्व निभा रहे हैं इसलिए उन्हें मर्यादित और जवाबदेह होना चाहिए। इन मर्यादाओं का निर्धारण करने की प्रक्रिया वे स्वयं बनाएंगे और खुद उनसे दूर रहना चाहेंगे यह भला कैसे हो सकता है? ऐसे कार्यों में पारदर्शिता भला कहां विपरीत प्रभाव डालने वाली है? इसलिए सूचना आयोग या उसकी पूर्णपीठ को कानून की व्याख्या का संवैधानिक अधिकार भले न हो, लेकिन उस पर सूचनाकानून का पालन करवाने का दायित्व है और इसे अनुचित भी नहीं कहा जा सकता।
अगर राजनीतिक दलों को सूचना आयोग के इस निर्णय पर आपत्ति है तो वे आयोग द्वारा व्यक्त विचारों और निर्णय में दी गई व्याख्याओं को समादेश याचिका द्वारा उठा सकते हैं। क्योंकि यह मूल अधिकारों से संबद्ध है इसलिए इन्हें सीधे अनुच्छेद-32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय में ले जाना चाहिए। लेकिन राजनीतिक दलों का यह कहना कि सूचना आयोग उनसे कुछ अनुचित अपेक्षा कर रहा है, सही नहीं लगता।
राजनीतिक दलों की पारदर्शिता एक संवैधानिक आवश्यकता है, लोकतांत्रिक तकाजा भी; जब यह व्यवस्था के संचालकों में नहीं होगी तो उनके जरिए बनने वाली सरकारें या ऐसे संस्थान जो इस कानून की परिधि में आते हैं वे तो इससे बचना चाहेंगे ही, क्योंकि इस अधिकार से उनसे अपनी सीमाओं में पारदर्शी ढंग से काम करने और जवाबदेह रहने की अपेक्षा जो है। अगर ये राजनीतिक दल जनप्रतिनिधित्व कानून की व्यवस्थाओं का पालन करते हैं तो सूचना अधिकार कानून से परहेज क्यों?
लोकतंत्र और एकाधिकारी प्रवृत्ति, दोनों एक दूसरे के समानार्थी और सहयोगी नहीं बल्कि विरोधी हैं। आखिर राजनीतिक दल क्यों परदे में रहना चाहते हैं? केंद्रीय सूचना आयोग ने जब इस परदे को उघाड़ने का निश्चय किया तो सभी दलों की एक जैसी ही प्रतिक्रिया देखने में आई। वे कहने लगे कि हमारे भीतर आपको झांकने का अधिकार नहीं है। इन राजनीतिक दलों ने पहली बार जब दल-बदल विरोधी कानून बना कर उसे आठवीं सूची में शामिल कराया था तब भी यही सवाल उठा था कि जब जनप्रतिनिधित्व कानून में सारी अर्हताएं व्यक्ति की निर्धारित हैं, राजनीतिक दलों को अलग पहचान के लिए चुनाव चिह्न इसलिए आबंटित किया गया है कि आधे से अधिक निरक्षर मतदाता नाम पढ़ कर अपने उम्मीदवार को मत देने में सक्षम नहीं हैं। इन राजनीतिक दलों ने मतदाता की इन कमियों का फायदा उठाने के लिए ऐसी व्यवस्था कर दी जिससे निर्वाचित प्रतिनिधि जनता का न रह कर इनका गुलाम बन जाए। वे जैसी चाहें वैसी भूमिका न निभाने पर उसकी सदस्यता समाप्त की जा सके।
यह मान्यता लोकतंत्र के वास्तविक उद््देश्यों से मेल नहीं खाती, क्योंकि व्यक्ति ही प्रथम है, दल और संगठन उसके बाद आते हैं। इसलिए उसके मूल अधिकारों पर केवल युक्तियुक्त प्रतिबंध ही लग सकता है।
राजनीतिक दलों को सूचनाधिकार के तहत लाने का केंद्रीय सूचना आयोग का फैसला दूरगामी महत्त्व का है। इसलिए कि सरकारी फैसलों और नीति-निर्माण में धन-शक्ति का दखल बढ़ता गया है। यह जानना जरूरी है कि नीतिगत निर्णयों और सरकारी फैसलों को प्रभावित करने वाले दबाव के स्रोत कहां-कहां हैं। केंद्रीय सूचना आयोग के फैसले का विरोध इसलिए हो रहा है कि राजनीतिक दलों की कलई न खुल सके कि वे कहां-कहां से किस प्रकार से चुनाव के लिए साधन एकत्र करते हैं; उनका धन-संग्रह विहित तरीकों पर आधारित है या नहीं? वास्तविकता यह है कि जिस देश की अर्थव्यवस्था में काला धन निर्णायक बन गया हो वह देश के चुनाव को भी प्रभावित करने में पीछे नहीं रह सकता।
जन प्रतिनिधित्व कानून में राजनीतिक दल कोई परिवर्तन करना नहीं चाहते हैं जिससे एकल संक्रमणीय पद्धति अपना कर केवल वही लोग चुने जा सकें जिन्हें सकल मतदाताओं के आधे से अधिक का विश्वास प्राप्त हो। मतदान अनिवार्य न भी किया जाए तब भी यह व्यवस्था की जा सकती है कि अनुपस्थित मतदाताओं का लाभ इन्हें न प्राप्त हो सके। राजनीतिक दल चुनाव को अधिक लोकतांत्रिक स्वरूप प्रदान करने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि वे वर्तमान व्यवस्था का अनुचित लाभ उठा रहे हैं। इस प्रकार वे आवरण में ही रहना चाहते हैं। यही कारण है कि केंद्रीय सूचना आयोग का निर्णय उनके गले नहीं उतरा है। अगर इस फैसले को पलटने के लिए वे अपनी संसदीय शक्ति का इस्तेमाल करेंगे तो इससे गलत संदेश जाएगा।


http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/46660-2013-06-11-04-43-15


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