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न्यूज क्लिपिंग्स् | पीछे छूट गया रोजगार का सवाल- हरिवंश चतुर्वेदी

पीछे छूट गया रोजगार का सवाल- हरिवंश चतुर्वेदी

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published Published on Mar 17, 2016   modified Modified on Mar 17, 2016
आर्थिक उदारीकरण के दौर में जिन राज्यों के आर्थिक विकास की दर तेज रही और जिन्हें समय-समय पर एक मॉडल की तरह पेश किया गया, वहां अब सामाजिक- आर्थिक स्थिति विस्फोटक हो रही है। पिछले एक वर्ष में हरियाणा के जाटों, गुजरात के पटेलों, महाराष्ट्र की मराठा जातियों और आंध्र प्रदेश में कापू जाति के लोगों ने खुद को अन्य पिछड़ी जातियों में शामिल किए जाने की मांग को लेकर जो आंदोलन शुरू किए, वे कई राज्यों में बहुत हिंसक रूप लेते हुए देखे गए। अब इन 25 वर्षों की यह समीक्षा तो होनी ही चाहिए कि आखिर समृद्ध राज्यों की मध्य जातियों के युवा-वर्ग में बेरोजगारी को लेकर हिंसक प्रवृत्तियां क्यों पनप रही हैं? क्या निजी क्षेत्र में नौकरियों का इतना टोटा हो गया है कि हर नौजवान अब सरकारी नौकरी ही हासिल करना चाहता है? गुजरात, आंध्र प्रदेश व हरियाणा में राज्य सरकारों ने मध्य जातियों के ओबीसी आरक्षण विषयक आंदोलन को फिलहाल कुछ आश्वासन देकर ठंडा कर लिया हो, किंतु ऐसे आंदोलनों के बार-बार सिर उठाने और हिंसक होने की आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता।

अगर हम साल 2005-12 के बीच के सात साल को देखें, तो इस दौरान भारत में आर्थिक विकास की दर औसतन 5.4 फीसदी रही। लेकिन इस दौरान रोजगार के अवसर कितने बढ़े? हकीकत यह है कि इन सात वर्षों में सिर्फ डेढ़ करोड़ नए रोजगार पैदा हुए और नए रोजगारों के सृजन में सिर्फ तीन प्रतिशत की वृद्धि देखी गई। बाजारोन्मुख उदारवादी आर्थिक विकास का एक बड़ा विरोधाभास यह है कि तीव्र आर्थिक विकास अपने अनुपात में तीव्र गति से नए रोजगार पैदा नहीं करता है। आने वाले दशकों में यह विरोधाभास भीषण रूप धारण कर सकता है। साल 2025 तक आर्थिक विकास की वार्षिक दर 7-8 प्रतिशत मानते हुए यह अंदाज लगाया जाता है कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीएनपी) तो दोगुना हो जाएगा, लेकिन तीन करोड़ ही नए रोजगार पैदा हो पाएंगे, जबकि हमें आठ करोड़ नए रोजगारों की जरूरत होगी। इस तरह, पांच करोड़ बेरोजगारों की फौज सामने खड़ी हो यह सवाल जरूर पूछेगी कि देश तरक्की कर रहा है, तो उन्हें भला नौकरियां क्यों नहीं मिल रही हैं? धन-दौलत कुछ लोगों के पास क्यों केंद्रित होती जा रही हैं और देश की आबादी का एक बड़ा वर्ग बुनियादी सुविधाओं- रोजी, रोटी और मकान से वंचित क्यों है? अगर अगले दस वर्षों में हमें आठ करोड़ युवाओं की अच्छी जिंदगी और अच्छी नौकरी की आकांक्षाओं को पूरा करना है, तो पिछले 25 वर्षों के उदारीकरण की आंख मूंदकर तारीफ करना बंद करना होगा। इसका आशय यह नहीं कि हम फिर से लाइसेंस-परमिट राज की भ्रष्ट और निकम्मी अर्थव्यवस्था की तरफ लौट जाएं। हमें यह देखना होगा कि हर स्तर पर आर्थिक विकास को रोजगार-परकता की कसौटी पर जांचा व परखा जाए। उच्च शिक्षा को अधिक संसाधन देते हुए उसे रोजगार परक बनाया जाए। केंद्र व राज्य सरकारों की हर योजना को रोजगारोन्मुख बनाते हुए जवाबदेही निश्चित की जाए कि आखिर हर महीने या हर तिमाही में कितने नए रोजगार सृजित किए गए?

देश की मध्य जातियों, अल्पसंख्यकों और मध्यवर्ग में रोजगार को लेकर हताशा पैदा हो रही है। ओबीसी आरक्षण की मांग द्वारा इस भयावह समस्या का शॉर्टकट हल ढूंढ़ना एक मृग-मरीचिका की तरह होगा। नवउदारवादी अर्थव्यवस्था निजीकरण को हर समस्या का समाधान समझती है। इससे सरकारी नौकरियां कम होती जाती हैं और दूसरी ओर, संगठित निजी क्षेत्र रोजगार के ज्यादा अवसर पैदा नहीं कर पाता। मोदी सरकार ने मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया और स्मार्ट सिटी जैसी महात्वाकांक्षी नीतियां घोषित करके देश के युवाओं में उम्मीद जगाई है। निस्संदेह इन घोषणाओं ने युवाओं में आशा का संचार किया है और उन्हें कुंठित होने से रोका है। पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से राष्ट्र को संबोधित करते हुए जिस ‘मेक इन इंडिया' नीति की घोषणा की थी, उसमें 25 ऐसे क्षेत्रों को सम्मिलित किया गया है, जिनमें सरकार द्वारा मैन्युफैक्र्चंरग को प्रोत्साहित किया जाएगा। इन क्षेत्रों में सुरक्षा, ऑटो-मोबाइल, रेलवे, टैक्सटाइल्स और आईटी उद्योग शामिल हैं। ‘मेक इन इंडिया' नीति का लक्ष्य है कि राष्ट्रीय आय में उद्योगों का योगदान वर्ष 2022 तक 25 प्रतिशत तक बढ़ाया जाए, जो अभी 17 प्रतिशत है। चीन में यह 36 प्रतिशत, थाइलैंड में 28 प्रतिशत, कोरिया में 30 प्रतिशत और मलेशिया में 23 प्रतिशत है। ‘मेक इन इंडिया' का महत्वाकांक्षी लक्ष्य वर्ष 2022 तक 10 करोड़ नए रोजगार पैदा करना है।

देश के नीति-निर्माताओं और राजनेताओं को सतर्क रहना चाहिए कि ‘मेक इन इंडिया' अगले 10 वर्षों में औद्योगिक विकास बढ़ाने में भले ही कामयाब हो जाए, किंतु साल 2022 तक 10 करोड़ रोजगार पैदा हों, यह जरूरी नहीं। इसका मुख्य कारण पिछले दो दशकों में उभरकर आई ‘डिसरप्टिव टेक्नोलॉजी' है। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, ड्रोन, वर्चुअल रियलिटी, थ्रीडी प्रिंटिंग, जिनोम, रोबोटिक्स और ऑटोमेशन जैसी तकनीकी पद्धतियों ने औद्योगिक जगत में भूचाल पैदा कर दिया है। इनसे उद्योगों की कुशलता व उत्पादकता तो कई गुना बढ़ती है, पर रोजगार के अवसर कम होते हैं। मार्टिन फोर्ड ने अपनी पुस्तक द राइज ऑफ रोबोट्स में चेतावनी दी है, ‘बढ़ता ऑटोमेशन पारंपरिक रोजगारों को समाप्त कर रहा है और भयंकर असमानता पैदा कर रहा है। औद्योगिक क्रांति के बाद हो रहे सबसे बड़े सामाजिक-परिवर्तन के मद्देनजर हम आज जो भी रास्ता चुनेंगे, उससे ही यह तय होगा कि भविष्य संपन्नता लाएगा या विनाश।

उदारीकरण के 25 वर्षों में बढ़ी बेरोजगारी और असमानता से हमें सबक लेना चाहिए। युवाओं को हमने अच्छी जिंदगी के मायने तो बता दिए हैं, किंतु उसे हासिल करने के सही विकल्प हम उन्हें नहीं दे पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में चपरासी के 400 पदों के लिए 23 लाख शिक्षित युवाओं की उम्मीदवारी बड़ा संकेत है कि सरकारों के पास नौकरियां नहीं हैं और निजी व संगठित क्षेत्र में भी रोजगार के अवसर सिकुड़ रहे हैं। युवाओं में उद्यमी बनने की प्रवृत्ति बढ़ी है, लेकिन यह अभी बड़े शहरों तक सीमित है। वर्ष 2022 तक 10 करोड़ नए रोजगार पैदा करने का जादुई चिराग तो किसी के पास नहीं, लेकिन रोजगार पैदा करने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक नई व रचनात्मक सोच की जरूरत है। केंद्र, राज्य सरकारों, उद्योगों व शिक्षा संस्थानों को संयुक्त रूप से एक ऐसी रणनीति बनाने की जरूरत है, जो कि कम से कम समय में असंगठित क्षेत्र, मध्यम व लघु उद्योगों, स्टार्ट अप और सरकारी विभागों में हर माह 10 लाख नौकरियां पैदा कर सके।

बडे़ उद्योगों से रोजगार पैदा करने की ज्यादा उम्मीद मृग-मरीचिका होगी। अब भी कुछ क्षेत्रों में नए रोजगार पैदा करने की काफी संभावना है। हमारे हर गांव, हर शहर और कस्बे में ऐसे अभाव और समस्याएं मिल जाएंगी, जिन्हें आर्थिक अवसरों में बदला जा सकता है। जैसे ग्रामीण युवाओं को अंगे्रजी और कंप्यूटर की जानकारी देना। ऐसे और भी कई उदाहरण हो सकते हैं। अगर हम ऐसा कर पाए, तो भविष्य के किसी सामाजिक टकराव से बच पाएंगे।


http://www.livehindustan.com/news/guestcolumn/article1-the-question-of-employment-behind-521118.html


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