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न्यूज क्लिपिंग्स् | पुलिस सुधार का असली मकसद- विभूति नारायण राय

पुलिस सुधार का असली मकसद- विभूति नारायण राय

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published Published on Oct 11, 2018   modified Modified on Oct 11, 2018
लखनऊ में बीते दिनों विवेक तिवारी की हत्या क्या एक बड़े प्रदेश में अपवाद स्वरूप कभी-कभार होने वाली असाधारण, किंतु जिसकी वजह से बहुत अधिक परेशान न हुआ जाए, ऐसी घटना थी? ऐसा तो नहीं कि यह शरीर में बहुत दिनों से पक रहा कोई ऐसा फोड़ा था, जो बीच-बीच में फूटता था, लेकिन हम उसे थोड़ा-बहुत पोंछ-पांछकर खुद को साफ-सुथरा महसूस करने लगते थे। पर इस बार तो यह ऐन हमारे चेहरे को पंक में लिथाड़ता निकला है और समझ में नहीं आ रहा कि सफाई कैसे की जाए? मेरे विचार से लखनऊ में जो कुछ हुुआ, वह खुद कोई रोग न होकर शरीर के अंदर पल रही एक बड़ी व्याधि का लक्षण मात्र है और बाद के दिनों में दोषी पुलिसकर्मियों को दंडित करने के प्रयास पर पुलिस के एक तबके की अनुशासनहीन प्रतिक्रिया से बखूबी अंदाज लगाया जा सकता है कि बीमारी किस गंभीर हद तक फैल चुकी है।


एक संस्था के रूप में रोजमर्रा की जिंदगी में नागरिकों का सबसे अधिक वास्ता पुलिस से पड़ता है। एक अंग्रेजी कहावत के अनुसार, यह एक ‘नेसेसरी इविल' यानी अनिवार्य बुराई है। यह भी कह सकते हैं कि बुराई से अधिक यह हमारे सामाजिक जीवन की अनिवार्यता है, पुलिस के बिना हम चौबीस घंटे से भी कम समय में एक अराजक भीड़ तंत्र में तब्दील हो जाएंगे। इस अनिवार्य संस्था को अधिक सभ्य और उत्तरदायी बनाने को लेकर भारतीय समाज की उदासीनता कई बार चकित करती है।
भारतीय पुलिस आज हमें जिस स्वरूप में दिखती है, उसकी नींव 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की समाप्ति के बाद पड़ी थी और इसके पीछे तत्कालीन शासकों की एकमात्र मंशा औपनिवेशिक शासन को दीर्घजीवी बनाना था और उसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। 1860 के दशक में बने पुलिस ऐक्ट, आईपीसी, सीआरपीसी या एविडेंस ऐक्ट जैसे कानूनों के खंभों पर टिका यह तंत्र न तो कभी जनता का मित्र बन सका और न ही उसकी ऐसी कोई मंशा थी। दरअसल उसकी सफलता के लिए जरूरी था कि वह कानून-कायदों की धज्जियां उड़ाने वाला, भ्रष्ट और जनता के शत्रु संगठन के रूप में काम करे और स्वाभाविक ही था कि पुलिस एक ऐसी संस्था के रूप में विकसित हुई।


आश्चर्य यह है कि आजादी के बाद भी पुलिस के बुनियादी चरित्र में सुधार का कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ। यह इसलिए और आश्चर्यजनक लगता है कि स्वतंत्रता संग्राम के ज्यादातर योद्धाओं का उसके जन-विरोधी स्वरूप से पाला पड़ चुका था। फिर भी 1947 के बाद आई सरकारों ने उसमें परिवर्तन के लिए जरूरी कदम क्यों नहीं उठाए? खासतौर से जनता के साथ उसके रिश्ते लोकतंत्र के अनुकूल बनें और उत्तरदायित्व के प्राविधान पुलिस रेगुलेशन में अंतर्निहित हों- इन क्षेत्रों में आजाद भारत में किसी भी सरकार ने खास काम नहीं किया। पुलिस सुधारों की बात होती है, तो उनका मतलब पुलिस को अधिक घातक हथियार, बेहतर संचार उपकरण या तेज परिवहन मुहैया कराने जैसे ऊपरी सुधार होते हैं। सरकारों की दिलचस्पी पुलिस में ऐसे परिवर्तनों में कम ही दिखती है कि जनता पुलिस को अपना मित्र समझने लगे। इसीलिए आज भी आम नागरिक बड़े से बड़े संकट में पुलिस के पास जाने से झिझकता है।


पुलिस तंत्र में बुनियादी परिवर्तन न हो सकने के पीछे कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे प्रभु वर्गों को भी अंग्रेजों की बनाई पुलिस ही पसंद आती है? ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने पचास के लगभग मुल्कों में आधुनिक अर्थों में पुलिस बनाई थी। मेरे लिए यह हमेशा कौतूहल का विषय रहा है कि उन्होंने हर जगह अलग चरित्रों वाली पुलिस क्यों बनाई? मसलन, श्रीलंका में जैसी पुलिस खड़ी की, वैसी नाइजीरिया में क्यों नहीं या भारतीय पुलिस का चरित्र ऑस्ट्रेलियाई पुलिस से इतना भिन्न क्यों है? यह भी पूछा जा सकता है कि नागरिक विनम्रता की प्रतिमूर्ति लंदन बाबी की तर्ज पर भारतीय कांस्टेबल की मूरत क्यों नहीं गढ़ी गई? एक उत्तर यह हो सकता है कि हर समाज को उसके स्वभाव, चरित्र और शासकों की जरूरत के मुताबिक पुलिस मिलती है। गौरांग महाप्रभुओं को वर्ण-व्यवस्था जैसी अमानवीय व्यवस्था से संचालित भारतीय समाज को नियंत्रित करने के लिए कानून-कायदों को ठेंगे पर रखने वाली, भ्रष्ट और थर्ड डिग्री को तफ्तीश का सबसे औचक जरिया मानने वाली पुलिस ही उपयुक्त लगी होगी और उन्होंने वही हमें दी। आजाद होने के बाद जब हम एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाने चले, तब हमने अपनी सबसे महत्वपूर्ण संस्था पुलिस में आमूल-चूल परिवर्तन की बात क्यों नहीं सोची? कहीं इसलिए तो नहीं कि हमारे शासकों को आज भी ऐसी पुलिस भाती है, जो उनके इशारों पर विरोधियों के हाथ-पैर तोड़ दे या उनके समर्थकों के कानून तोड़ने पर अपनी आंखें मूंद ले? आज भी चुनाव जिताने के लिए पुलिस उनके पास सबसे कारगर औजार है।


ये कुछ प्रश्न हैं, जो विवेक तिवारी की हत्या और राज्य द्वारा आधे मन से ही सही हत्यारों के खिलाफ कार्रवाई करने पर पुलिस के एक तबके द्वारा ढीठ रवैया अपनाने पर उठाए जाने चाहिए। पिछले कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश में जिस तरह पुलिस भर्ती हुई, जैसे उनके प्रशिक्षण की उपेक्षा हुई या जिन कारणों से वे एक पेशेवर समूह के स्थान पर जाति आधारित गिरोहों में बदल गए, इन सब पर चर्चा होनी चाहिए। अपराधियों को कानून की स्थापित परंपराओं के अनुरूप अदालत में न पेश कर खुद मुठभेड़ों में मार डालने के लिए प्रोत्साहित कर पुलिस को हत्यारों के गिरोह में परिवर्तित करने के क्या नतीजे हो सकते हैं, लखनऊ का यह हत्याकांड इसका उदाहरण है। सोशल मीडिया पर बढ़-चढ़कर फर्जी मुठभेड़ों का समर्थन करने वाला मध्यवर्ग इस समय स्तब्ध दिख रहा है, क्योंकि आग उसके दरवाजे तक पहुंच गई है। डर है कि यह प्रतिक्रिया भी क्षणिक साबित न हो। जरूरत इस गुस्से को एक गंभीर विमर्श में बदलकर धर्मवीर कमीशन जैसी तमाम बुनियादी परिवर्तन में समर्थ सिफारिशों को मानने के लिए सरकारों को मजबूर करने की है। जिस संस्था से रोजमर्रा की जिंदगी में सबसे अधिक साबका पड़ता है, ऐसी पुलिस को मित्र पुलिस बनाने के लिए जनता को खुद आवाज उठानी होगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)


https://www.livehindustan.com/blog/story-former-ips-officer-vibhuti-narayan-rai-article-in-hindustan-on-09-october-2213201.html


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